महत्वपूर्ण मंत्र व जानकारी

 

*GAYATRI MANTR गायत्री-सावित्री मंत्र

 

GAYATRI MANTR गायत्री-सावित्री मंत्र 

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 

By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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यह मंत्र ऋग्वेद में उद्धृत है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मंत्रों मे केवल एक है। इसकी महिमा का अनुभव ऋषियों ने किया। संपूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मंत्रों में से इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप ::

(1), ॐ,  (2). भूर्भव: स्व: और (3). तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

[ऋग्वेद 3.62.10, यजुर्वेद 36.3.30, यजुर्वेद संहिता 3.35, 22.9, 30.2, सामवेद उत्तरार्थिक 13.3.3, 3.4.3]

मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।

om bhoor bhuvah svah Tat savitur varenyam bhargo devasy dheemahi dhiyo yo nah prachodayat.

हे ! पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल लोक के प्रकाशक, सबसे उत्तम, सूर्य की भाँति उज्जवल, कर्मों का उद्धार करने वाले, आत्म चिंतन और बुद्धि में धारण-ध्यान करने के योग्य  परमात्मा, हमें शक्ति दें।

Hey Almighty! The one who has to be meditated through intelligence, spreading radiance-lustre-brilliance to the three abodes :- The earth, The Heaven & The Nether world; shinning like the Sun, kindly grant me strength to liberate from the impact of deeds.

उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।

मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।

ब्रह्मा जी के कथनानुसार :- ब्रह्म ज्ञान (गायत्री) की उत्पत्ति स्वयम्भू भगवान् विष्णु की अंगुलियाँ मथने से जल उत्पन्न हुआ। जल से फेन निकला। फेनों से बुद्बुद्ध की उत्पत्ति हुई। उससे अण्ड की और अण्ड से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। उनसे वायु निकला।अग्नि की उत्पत्ति उससे ही हुई। अग्नि से ओङ्कार उत्पन्न हुआ। ओङ्कार से व्याहृति उत्पन्न हुईं। व्याहृति से गायत्री पैदा हुईं और गायत्री से सावित्री। उनसे सरस्वती। सरस्वती से सभी वेद उत्पन्न हुए। वेदों से सभी लोक हुए और उनसे सभी प्राणी हुए। इसके बाद गायत्री और व्याहृतियाँ प्रवृत्त हुईं।

गायत्री दो प्रकार की होती है :– लौकिक और वैदिक। लौकिक गायत्री में चार चरण होते हैं तथा वैदिक गायत्री में तीन चरण होते हैं। इसी कारणवश गायत्री का नाम त्रिपदा भी है। त्रिपदा गायत्री के ऋषि विश्वामित्र हैं। परमसत्ता धर्मी, शक्ति या शक्तिमान् की जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया इस गुणत्रय से सम्पन्न है और जो ज्योति: स्वरुप है उसकी मैं उपासना करता हूँ। त्रिपदा गायत्री के :– भूमि, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये अष्टाक्षर कहलाते है। गायत्री का प्रत्येक पाद आठ अक्षरों का है :–

भू:, भुव: और स्व: यह तीनो लोक परिन्त विराजमान हैं। ऋच: यजूंषि ओर सामानि ये अष्टाक्षर भी गायत्री की एक पदत्रयी विद्या है। प्राणों का नाम गय है। उनका त्राण करने से ही गायत्री कहलाती है। गायत्री के भिन्न–भिन्न 24 अक्षर इस प्रकार है :–

ऊँ (1). त, (2). त्स, (3). वि, (4). तु, (5). र्व, (6). रे, (7). णि, (8). यं। ऊँ (9). भ, (10). र्गो, (11). दे, (12). व, (13). स्य, (14). धी, (15). म, (16). हि। ऊँ (17). धि, (18). यो, (19). यो, (20). न:, (21). प्र, (22). चो, (23). द, (24). यात् ।

मुक्ताविद्रुमहेमनील धवलच्छायैमु‍र्खैस्त्रीक्षणैयु‍र्क्ता मिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम्। 

गायत्रीं वरदाभयाडंकुशकषा: षुभ्रं कपालं गुणं, षंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥ 

यह पॉंच सिर वाली है (जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के बोधक) तथा प्रधान पंच प्राणधारिणी है। इन पंच प्राणों के पंच वर्ण हैं। एक मोती जैसा, दूसरा विद्रुम मणि जैसा तीसरा सुवर्ण जैसा, चौथा नीलमणि जैसा और पॉंचवा धवल अर्थात् गौरवपूर्ण का है। इसके तीन आँखें हैं अर्थात् (अ–उ–म् :: ऊॅं) प्रणव के वर्ण–त्रय के अनुसार वेदत्रय अर्थात् रसवेद, विज्ञानवेद और छन्दोवेद सम्बद्ध, ऋक, यजु: और साम वेदात्मक तीन नयन अर्थात् ज्ञानवाली या त्रिविद्यावाली है। इसी को दूसरे प्रकार से श्रुति कहती है कि ये नाद, बिन्दु और कला के द्योतक है। इसके मुकुट पर, जो रत्न–मंडित है, वह चन्द्र है अर्थात् ज्योतिर्मयी आद्यषक्ति अमृत वर्शिणी है, ऐसा बोध है। तत्व वर्णात्मिका है अर्थात् चौबीस अक्षर वाली गायत्री चतुविशंति तत्वों की बनी हुई पूर्ण अर्थात् सत् चिद् ब्रा स्वरुपिणी है। यहॉ गायत्री में तीन अक्षर हैं :– ग+य+त्र। ग से ‘गति‘ ‘य‘ तथा ‘त्र‘ से ‘यात्री‘ अर्थात् यात्री की गति हो, वह ‘गायत्री‘ है। ‘ग‘ से गंगा, ‘य‘ से यमुना और ‘त्र‘ से त्रिवेणी। ये तीनों हिन्दू के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। दसों भुजायें कर्मेन्द्रियों और विषयों की द्योतक है। दक्षिण पाँचों भुजाएँ, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ की द्योतक है तथा बॉंई–पाँचों भुजाएँ वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग और आनन्द विशयक रुप है। ये दसों आयुध इनके कर्म करण रुप हैं। ऐसी ही रुप–कल्पना परा प्राण शक्ति या परमात्मा की भी है और अपरा, चन्चला, माध्यमा, प्राणशक्ति या जीवात्मा की भी है।

श्रुति भी कहती है कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वम्‘‘ गायत्री ही सब कुछ है। व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से गायत्री वह है जो इसके साधक को सभी प्रकार की मलिनता तथा पापों से बचाये एवं संरक्षण करे। कहा गया हे कि ‘गायन्तं त्रायते इति गायत्री‘। गायत्री मन्त्र भी है और प्रार्थना है जिसमें उपासक केवल अपने लिये ही नहीं, सभी के लिये ज्ञान की ज्योति पाने हेतु प्रार्थना करता है ।

देवियों में स्थान :: 

गयत्र्येव परो विश्णुगायित्र्व पर: षिव:। गायत्र्येव परो ब्राा, गायत्र्येव त्रयी तत:॥[स्कन्दपुराण]

गायत्री ही परमात्मा विष्णु है, गायत्री ही परमात्मा शिव है और गायत्री ही परमात्मा परम् ब्रह्म है। अत: गायत्री से ही तीनों वेदों की उत्पत्ति हुई है। भगवती गायत्री को सावित्री, ब्राागायत्री, वेदमाता, देवमाता आदि के नाम से मनुष्य ही नही अपितु देवगण भी सम्बोधित करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि, गायत्री वेदों की माता है और गायत्री से ही चारो वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह सब ब्रह्माण्ड गायत्री ही है। वेद, उपनिशद्, वेदों की शाखाएं, ब्रााण ग्रन्थ, पुराण और धर्मशास्त्र ये सभी गायत्री के कारण पवित्र माने जाते हैं। अनेक शास्त्र, पुराणादि के कीर्तन करने पर भी ये सभी शास्त्र गायत्री के द्वारा ही पावन होते हैं। गायत्री मन्त्र के जप में भगवत् तत्व को प्रकट करने की रहस्यमयी क्षमता है। मन्त्र के जप से हृदय की ग्रंथियों का भेदन होता है, सम्पूर्ण दु:ख छिन्न–भिन्न हो जाते हैं और सभी अवशिष्ट कर्मबन्धन विनिष्ट हो जाते हैं।

Gayatri is Tri Pada :- a Trinity, since being the Primordial Divine Energy, it is the source of three cosmic qualities known as “Sat”, “Raj” and “Tam” representing spirituality by the deities “Saraswati” or “Hreem”. “Lakshmi” or “Shreem” and “Kali” or “Durga” as “Kleem”. Incorporation of “Hreem” in the soul augments positive traits like wisdom, intelligence, discrimination between right and wrong, love, self-discipline and humility. Yogis, spiritual masters, philosophers, devotees and compassionate saints derive their strength from Saraswati.

गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है, वैसे मन भी देव है [देवं मन: ऋग्वेद, 1.164.18]। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य और प्रत्यक्ष सिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है।

ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है :- कर्माणि धिय: अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं, वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्म क्षम शक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरणा के लिए आवश्यक है, वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है, वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है, उसी के द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।

तीनों वेदो ॠग्वेद, यजुर्वेद, एवं सामवेद का संबंध अध्यात्म तथा दर्शन से है। ॠग्वेद पारलौकिक ज्ञान का भंडार है, जबकि यजुर्वेद यज्ञादि अनुष्ठानों को संपन्न करने में प्रयुक्त मंत्रों का संग्रह है। धार्मिक अनुष्ठानों में गायन में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन सामवेद क रूप में है। अथर्व वेद में लौकिक उपयोग की बातें यथा आयुर्विज्ञान, आयुधविज्ञान, अर्थशास्त्र संग्रहीत हैं।

गायत्री मंत्र की महिमा चारों वेदों में, स्मृति ग्रंथों में उपनिषदों में, महाभारत में, ऋषियों, मुनियों, विद्वान, आचार्यों ने मुक्त कंठ से की है। यह दुख हरणी, पाप नाशनी, सुख दायनी, बुद्धि प्रदायनी अनुपम गरिमाशालिनी मंत्र है।

ॐ :: प्रणब-प्राचीनतम, जगत की उत्तपत्ति की  ध्वनि,

तत् :: वह, ईश्वर, जगदाधार परमात्मा, भगवान्,

सवितुर :: सूर्य, कर्ता, संरक्षक, सूर्य की भांति उज्जवल;

वरेण्यम :: आराध्य, सर्वोत्तम-चयन करने योग्य, सबसे उत्तम;

भर्गो-भर्गास :: आभा, प्रभा, प्रकाश दीप्ति, कर्मों का उद्धार करने वाला, radiance; lustre; brilliance.

देवस्य :: दैवीय, दैदीप्यमान सर्वोच्च परमात्मा, प्रभु, intellect and mind.

धीमहि :: हम ध्यानस्थ हों, हम ध्यान करते हैं, आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान), May meditate.

धियो-धियः :: विचार, बुद्धि, विवेक,

यो :: जो, इस प्रकाश में; He who.

नः :: हमें, हमारा, हमारी, us; to us or ours.

प्रचोदयात ::  प्रेरित करे, प्रेरणा, मार्गदर्शन मिले,  हमें शक्ति दें (प्रार्थना), inspire; kindle, urge, induce.

अर्थात जो प्रकाश, सूक्ष्म, परिपूर्ण और सामान्य इन तीनों लोकों को दीप्तिमान करता है, हम उसकी महिमा का चिंतन करते हैं।

मैं शक्ति, प्रेम, उज्ज्वल प्रकाश और सार्वभौमिक बुद्धि के रूप में परमात्मा की कृपा का अनुभव कर रहा हूँ। प्रभु मेरे मस्तिष्क को प्रदीप्त करके मुझे दैवीय प्रकाश-मार्गदर्शन प्रदान करें।

इसकी रचना गायत्री नामक छंद में हुई है। 24 अक्षरों वाला यह मंत्र श्रेष्ठतम माना गया है। इस मंत्र का देवता सविता से संबंध होने के कारण इसका नाम सावित्री मंत्र भी है। महात्म्य, प्रभाव, बड़प्पन, ऊँचा होने के कारण इसको गुरु मंत्र, महा मंत्र भी कहा जाता है।

भू: भुर्व:  स्व: :: गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। इन तीन व्याहृतियों के अनेक गुण, भाव पद हैं। शाब्दिक दृष्टि से ये क्रमशः पृथ्वी लोक, अंतरिक्ष तथा स्वर्ग लोक को इंगित करते हैं। पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोक के मध्य में अंतरिक्ष है। वह परमात्मा भू: स्वयंभू अर्थात स्वयं की स्वतंत्र सत्ता वाला है। प्राणों का रक्षक है। उसे किसी ने नहीं बनाया है। उसका कोई कारण नहीं है। वह भुव: है। दुख विनाशक है। सृष्टि को बनाने वाला है। चेतन स्वरूप है। वह स्व: सुखस्वरूप है। आनंद का भंडार है। उसकी सत्ता में दुख का लेशमात्र भी स्थान नहीं है। जिस प्रकार सूर्य की रश्मियाँ (परमेश्वर की आभा), पृथ्वी (भुर), आकाश (भुवः) और अंतरिक्ष (स्वः) को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार वह प्रकाश मुझे भी दीप्तिमान करे।

भुर :- पृथ्वी लोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है; भौतिक जगत, नुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला;

भुवः :- अंतरिक्ष लोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है; मानसिक जगत, दुख़ों का नाश करने वाला; the Earth and the world immediately above the earth; और

स्वः :- आध्यात्मिक जगत, सुख़ प्रदान करने वाला; one’s own, that all creating great person in the form of sun.

द्युलोक, सामवेद, आदित्य देवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक है। वाक का अनंत विस्तार है, किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त प्रतीक लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा, जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।

ॐ OM, ओम्, ओउम :: 

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम। एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्म लोके महीयते॥

इस ओम् नाम का सहारा सर्वोत्तम है। इस सहारे को जान लेने से मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेता है।

प्रणव-primordial sound at the occasion of evolution.  I adore the Divine Self, who illuminates the three abodes :- Earth, Heaven & the Nether world physical, astral and causal; I offer my prayers to that God who shines like the Sun. May He enlighten our intellect. Pranav or Omkar Mantr consisting of the vowels a and u and the consonant `m’. It refers to the Almighty, OM, Brahmn.

तत्सवितुर्वरेण्यम् :: गायत्री मंत्र में भगवान को सविता के रूप में वरण करने, अपनाने की प्रार्थना की गई है जो कि सविता बनकर मनुष्य को प्रेरणा देता है। ज्ञान का प्रकाश करता है। समस्त जगत् को उत्पन्न करता है और सबका स्वामी है। समग्र ऐश्वर्य युक्त है। सब दुखों का नाशक है। ऐसे उस सविता युक्त देव को हम अपनाएँ।

सविता (सवितृ) :: यह परमात्मा का संबोधन है, जिससे समस्त सृष्टि का प्रसव हुआ है अर्थात् जिससे मूर्त एवं अमूर्त सभी कुछ उत्पन्न हुआ है। सभी पापों का भर्जन करने वाली उसकी सामर्थ्य या शक्ति को भर्ग कहा गया है। मंत्र में निहित भाव है :- उस सविता देवता के वरण किये जाने योग्य अर्थात् प्रार्थनीय भर्ग का हम ध्यान करें। वह सविता या उसका भर्ग जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों के प्रति प्रेरित करता है।

भर्गो देवस्य धीमहि :: जो परमेश्वर भर्ग: स्वरूप है। जो सर्वश्रेष्ठ, सबसे पवित्र, सबसे अच्छा और तेज स्वरूप है। भगवान के उस उत्तम तेज का, प्रकाश का हम श्रद्धा, भक्ति और एकाग्र भाव से ध्यान करें जो दिव्य गुणों से युक्त, आनंद एक रस तथा सुखों को प्रदान करने वाला परम देवादि महादेव है उसका ही सदा ध्यान करें।

धियो यो न प्रचोदयात्गा :: इसमें भगवान सविता से जो उत्तम बुद्धि का दाता है। परम शुद्ध तेजोमय और पाप को भून डालने वाला है, वरण करने के योग्य है, वह परमेश्वर हमारी बुद्धि को उत्तम मार्ग की ओर प्रेरित करें। मनुष्य की बुद्धि सत्संग, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वर-चिंतन, परोपकार, सेवा, दान आदि श्रेष्ठ कर्मों में लगे इसलिए कहा गया है :-

जहाँ सुमति तंह सम्पत्ति नाना। जहाँ कुमति तंह विपत्ति निधाना[तुलसीदास]

गायत्री  बौद्धिक क्षमता बढ़ाने हेतु की जाने वाली प्रार्थना है।

यह अन्नपूर्णा है, माँ है, जीवन की वृद्धि करने वाली पुष्टिदाता शक्ति है, अतः उसकी उपेक्षा न करें।

यह वेदसार है। यह वेद-विज्ञ अर्थात ज्ञान की वृद्धि करने वाली है। तथ्यात्मक रूप से चारों वेदों में निहित चार महावाक्य सार तत्व के रूप में इस गायत्री मंत्र में निहित हैं।

गायत्री मंत्र बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए वैदिक प्रार्थना है जो कि एक पवित्र मन्त्र है जो सृष्टि निर्माण के बहुआयामी एकत्व को प्रदर्शित करता है। इस एकता की मान्यता के माध्यम से मनुष्य बहुलता को समझ सकता है। जिस प्रकार एक ही मिट्टी से अलग अलग आकृति और आकार के बर्तन बनाये जा सकते है, सोने के गहने विविध प्रकार के निर्मित किये जा सकते हैं, जबकि स्वर्ण एक ही है, यह आत्मा (दैवीय तत्व) भी सबमें एक ही है। गाय का रंग जो भी हो दूध हमेशा सफेद ही रहता है।

स्तुति, ध्यान और प्रार्थना ये गायत्री के तीन भाग हैं। सबसे पहले दैवीय प्रार्थना, तदुपरांत श्रद्धा पूर्वक ध्यान और अंत में बुद्धि विवेक जागृत एवं पुष्ट करने का दैविक शक्ति से निवेदन।

इस मंत्र में सभी देवता समाहित हैं। यह किसी धर्म, विशेष संप्रदाय, जाति, मूर्ति या संस्था से संबंधित नहीं है।

गायत्री सम्पूर्ण वेदों की माँ है (गायत्री चंधासम माता)। इनके तीन नाम हैं :- गायत्री, सावित्री और सरस्वती। ये तीनों प्रत्येक मनुष्य में निवास करती हैं।

गायत्री अर्थात चैतन्य शक्ति। यह इंद्रियों, भावनाओं की स्वामी हैं।

सावित्री अर्थात प्राण अधिपति (जीवन शक्ति) है। सावित्री सत्य की शिक्षक, प्रतीक हैं ।

सरस्वती वक्तृत्व शक्ति (वाक) की अधिपति, पीठासीन देवी हैं।

ये तीनों विचारों की शुद्धता, शब्द और कर्म (त्रिकर्ण शुद्धि) का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। यद्यपि गायत्री के ये तीन नाम है किन्तु ये तीनों चेतना (गायत्री), वाणी की शक्ति (सरस्वती) और जीवनी शक्ति (सावित्री) के रूप में प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान हैं। अतः गायत्री चेतना, मन और वाक् की त्रिमूर्ति हैं।

गायत्रीमन्त्राः 

सूर्य :: 

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥1॥

ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात्॥2॥

ॐ प्रभाकराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥3॥

ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥4॥

ॐ भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि तन्न आदित्यः प्रचोदयात्॥5॥

ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥6॥

ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥7॥

ॐ भास्कराय विद्महे महाद्द्युतिकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥8॥

चन्द्र ::

ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥9॥

ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥10॥

ॐ निशाकराय विद्महे कलानाथाय धीमहि तन्नः सोमः प्रचोदयात्॥11॥

अङ्गारक, भौम, मङ्गल, कुज ::

ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥12॥

ॐ अङ्गारकाय विद्महे भूमिपालाय धीमहि तन्नः कुजः प्रचोदयात्॥13॥

ॐ चित्रिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥14॥

ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥15॥

बुध :: 

ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥16॥

ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥17॥

ॐ सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥18॥

गुरु ::

 ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥19॥

ॐ सुराचार्याय विद्महे सुरश्रेष्ठाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥20॥

शुक्र ::

 ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥21॥ 

22 ॐ रजदाभाय विद्महे भृगुसुताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥22॥

23ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥23॥

शनीश्वर, शनैश्चर, शनी ::

ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥24॥

25ॐ शनैश्चराय विद्महे सूर्यपुत्राय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥25॥

 26 ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः सौरिः प्रचोदयात्॥26॥

राहु ::

 ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥27॥

28 ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥28॥

केतु ::

ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥29॥

ॐ चित्रवर्णाय विद्महे सर्परूपाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥30॥

ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥31॥

पृथ्वी ::

ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे सहस्रमर्त्यै च धीमहि तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात्॥32॥

ब्रह्मा ::

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥33॥

ॐ वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥34॥

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥35॥

ॐ परमेश्वराय विद्महे परमतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥36॥

विष्णु ::

ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥37॥

नारायण ::

ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥38॥

 वेङ्कटेश्वर ::

ॐ निरञ्जनाय विद्महे निरपाशाय धीमहि तन्नः श्रीनिवासः प्रचोदयात्॥39॥

राम ::

ॐ रघुवंश्याय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥40॥

ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥41॥

ॐ भरताग्रजाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥42॥

ॐ भरताग्रजाय विद्महे रघुनन्दनाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥43॥

 कृष्ण ::

ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥44॥

ॐ दामोदराय विद्महे रुक्मिणीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥45॥

ॐ गोविन्दाय विद्महे गोपीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥46॥

गोपाल ::

ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥47॥

 पाण्डुरङ्ग ::

ॐ भक्तवरदाय विद्महे पाण्डुरङ्गाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥48॥

नृसिंह ::

ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नो नारसिꣳहः प्रचोदयात्॥49

ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात्॥50॥

परशुराम ::

ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नः परशुरामः प्रचोदयात्॥51॥

इन्द्र ::

ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥52॥

हनुमान ::

ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥53॥

ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥54॥

मारुती ::

ॐ मरुत्पुत्राय विद्महे आञ्जनेयाय धीमहि तन्नो मारुतिः प्रचोदयात्॥55॥

दुर्गा ::

ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥56॥

ॐ महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥57॥

ॐ गिरिजायै च विद्महे शिवप्रियायै च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥58॥

शक्ति ::

ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे विश्वजनन्यै च धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्॥59॥

काली ::

ॐ कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै च धीमहि तन्न अघोरा प्रचोदयात्॥60॥

ॐ आद्यायै च विद्महे परमेश्वर्यै च धीमहि तन्नः कालीः प्रचोदयात्॥61॥

देवी ::

ॐ महाशूलिन्यै च विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥62॥

ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराज्ञै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥63॥

गौरी ::

ॐ सुभगायै च विद्महे काममालिन्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥64॥

लक्ष्मी ::

ॐ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीश्च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥65॥

ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥66॥

 सरस्वती ::

ॐ वाग्देव्यै च विद्महे विरिञ्चिपत्न्यै च धीमहि तन्नो वाणी प्रचोदयात्॥67॥

 सीता ::

ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै च धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात्॥68॥

राधा ::

ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि तन्नो राधा प्रचोदयात्॥69॥

अन्नपूर्णा ::

ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्न अन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥70॥

तुलसी ::

ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे विष्णुप्रियायै च धीमहि तन्नो बृन्दः प्रचोदयात्॥71॥

महादेव ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥72॥

रुद्र ::

ॐ पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥73॥

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥74॥

शङ्कर ::

ॐ सदाशिवाय विद्महे सहस्राक्ष्याय धीमहि तन्नः साम्बः प्रचोदयात्॥75॥

नन्दिकेश्वर ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे नन्दिकेश्वराय धीमहि तन्नो वृषभः प्रचोदयात्॥76॥

गणेश ::

ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥77॥

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥78॥

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥79॥

ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥80॥

ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥81॥

षण्मुख ::

ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥82॥

ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षष्ठः प्रचोदयात्॥83॥

सुब्रह्मण्य ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात्॥84॥

ॐ ::

ॐ ॐकाराय विद्महे डमरुजातस्य धीमहि! तन्नः प्रणवः प्रचोदयात्॥85॥

अजपा ॐ हंस हंसाय विद्महे सोऽहं हंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥86॥

दक्षिणामूर्ति ::

ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥87॥

गुरु ::

ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्मणे धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥88॥

हयग्रीव ::

ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥89॥

अग्नि ::

ॐ सप्तजिह्वाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥90॥

ॐ वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥91॥

 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्नो अग्निः प्रचोदयात्॥92॥

यम ::

ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नो यमः प्रचोदयात्॥93॥

वरुण ::

ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नो वरुणः प्रचोदयात्॥94॥

वैश्वानर ::

ॐ पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात्॥95॥

मन्मथ ::

ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पवनाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात्॥96॥

हंस ::

ॐ हंस हंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥97॥

ॐ परमहंसाय विद्महे महत्तत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥98॥

नन्दी ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो नन्दिः प्रचोदयात्॥99॥

गरुड ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥100॥

सर्प ::

ॐ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नः सर्पः प्रचोदयात्॥101॥

पाञ्चजन्य ::

ॐ पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शङ्खः प्रचोदयात्॥102॥

सुदर्शन ::

ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्॥103॥

अग्नि ::

ॐ रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो वह्निः प्रचोदयात्॥104॥

ॐ वैश्वानराय विद्महे लाललीलाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात्॥105॥

ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निमथनाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात्॥106॥

आकाश ::

ॐ आकाशाय च विद्महे नभोदेवाय धीमहि तन्नो गगनं प्रचोदयात्॥107॥

अन्नपूर्णा ::

ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्नोऽन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥108॥

बगलामुखी ::

ॐ बगलामुख्यै च विद्महे स्तम्भिन्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥109॥

बटुकभैरव ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे आपदुद्धारणाय धीमहि तन्नो बटुकः प्रचोदयात्॥110॥

भैरवी ::

ॐ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥111॥

भुवनेश्वरी ::

ॐ नारायण्यै च विद्महे भुवनेश्वर्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥112॥

ब्रह्मा ::

ॐ पद्मोद्भवाय विद्महे देववक्त्राय धीमहि तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात्॥113॥

ॐ वेदात्मने च विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥114॥

ॐ परमेश्वराय विद्महे परतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥115॥

चन्द्र ::

ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्त्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥116

छिन्नमस्ता ::

ॐ वैरोचन्यै च विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥117

दक्षिणामूर्ति ::

ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥118॥

देवी ::

ॐ देव्यैब्रह्माण्यै विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥119॥

धूमावती ::

ॐ धूमावत्यै च विद्महे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात्॥120॥

दुर्गा ::

ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥121॥

ॐ महादेव्यै च विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥122॥

गणेश ::

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥123॥

ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥124॥

गरुड ::

ॐ वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥125॥

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपर्णाय (सुवर्णपक्षाय) धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥126॥

गौरी ::

ॐ गणाम्बिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥127॥

ॐ सुभगायै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥128॥

गोपाल ::

ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥129॥

गुरु ::

ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥130॥

हनुमत् ::

ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्॥131॥

ॐ अञ्जनीजाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्॥132॥

हयग्रीव ::

ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥133॥

इन्द्र, शक्र ::

ॐ देवराजाय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्नः शक्रः प्रचोदयात्॥134॥

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सहस्राक्षाय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥135॥

जल ::

ॐ ह्रीं जलबिम्बाय विद्महे मीनपुरुषाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥136॥

ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नस्त्वम्बु प्रचोदयात्॥137॥

जानकी ::

ॐ जनकजायै विद्महे रामप्रियायै धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात्॥138॥

जयदुर्गा ::

ॐ नारायण्यै विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥139॥

काली ::

ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नोऽघोरा प्रचोदयात्॥140॥

काम ::

ॐ मनोभवाय विद्महे कन्दर्पाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात्॥141॥

ॐ मन्मथेशाय विद्महे कामदेवाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्॥142॥

ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्॥143॥

कामकलाकाली ::

ॐ अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयत्॥144॥

ॐ दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥145

ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्ण: प्रचोदयात॥146॥ 

*कामकलाकाली मन्त्रम् KAM KALA KALI MANTR :: 

This is one of the most auspicious form of Maa Maha Kali. The Sadhana should be carried out under the supervision of an enlightened teacher who could energise the Mantr and fruitfully perfected the Mantr. This form of Maha Kali bestow all the Siddhis. Only one who performed-practiced Sadhana in previous births may get this Kali Mantr. Chastity-celibacy is essential for this.

ॐ अस्य श्रीकामकलाकाली मन्त्रस्य, महाकालऋषि: वृहतिछन्दः। 

कामकलाकाली देवता, क्लीं बीजम्, हूं शक्ति:, भगवति कामकलाकाली प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः

षडङ्ग न्यास ::

क्लीं का हृदयाय नमः । क्रीं म शिरसे स्वाहा । हूँ क  शिखायै वौषट् । क्रों ला नेत्रत्रयायै वौषट् । स्फ्रें का कवचाय हुं । कामकलाकाली ली अस्त्राय फट्।

ध्यानम् :: 

ध्यानमस्याः प्रवक्ष्यामि कुरु चित्तैकतानताम्

उद्यद्घनाघना श्लिष्यज्जवा-कुसुम-सन्निभाम्

मत्त-कोकिल-नेत्राभां  पक्व-जम्बूफल-प्रभाम्

सुदीर्घ-प्रपदालम्बि विस्रस्त-घन-मूर्ध्वजाम्

ज्वालदंगार-वच्छोण नेत्रत्रितय-भूषिताम्

उद्य-च्छारद-सम्पूर्ण चन्द्र-कोकनदाननाम्

दीर्घ-दंष्ट्रा-युगो  दंचद्-विकराल-मुखाम्बुजाम्

वितस्तिमात्र-निष्क्रान्त  ललज्जिह्वा-भयानकाम्

व्यात्ताननतया दृश्यद्वात्रिंशद्-दन्तमण्डलाम्

निरन्तरं वेपमानोत्तमांगाम् घोररूपिणीम्

अंसासक्त नृमुंडसृक् पिबन्तीं वक्रकन्धराम्

उरोजा भोगसंसक्त सम्पतद्रुधिरोच्चयाम्

सशीत्कृतिध्यन्तीम् तल्ले लिहानरसज्ञया। 

बीज मन्त्रम्-त्रैलोक्याकर्षण मन्त्रम् ::

क्लीं क्रीं हूँ क्रों स्फ्रें कामकलाकाली स्फ्रें क्रों हूँ क्रीं क्लीं स्वाहा। 

कामकलाकाली गायत्री ::

ॐ अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयत्। 

कपिलोपासित उपासित कामकलाकाली मन्त्रम् ::

ॐ अस्य मन्त्रस्य, श्रीसनक ऋषि:, प्रतिष्ठा छन्द:, श्रीकामकलाकाली देवताः,ग्लूं शक्तिः,ग्लूं कीलकं श्रीकामकलाकाली प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

ह्रीं फ्रें क्रौं ग्लूं छ्रीं स्त्रीं हूं स्फ्रें खफ्रें ह्सख्फ्रें  क्ष्रौं स्हौ: फट् स्वाहा। 

मरीचि उपासित श्रीकामकलाकाली मन्त्रम् ::

ॐ अस्य मन्त्रस्य, श्री कदर्म  ऋषि:, बृहति छन्द:, श्रीकामकलाकाली देवताः, ह्रीं शक्तिः, हूं कीलकं श्रीकामकलाकाली प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं हूं छ्रीं स्त्रीं फ्रें क्रों हौं क्षौं आं स्फ्रें स्वाहा।