हिन्दी दिवस पर खास….. समाज में औरतों की स्थिति क्या है आजः एक चिन्तन

हिन्दी दिवस पर खास….
 
समाज में औरतों की स्थिति क्या है आज? मिनेरल वाटर का प्रचार करने के लिये विचित्र अंग प्रदर्शन करती हुई स्त्रियों को दिखाकर उसका प्रचार करें हम और व्यवसायिक हित साधें…. कहाँ हैं हम? आज टेलिविजन पर आ रहे लगभग आधे से अधिक कार्यक्रमों का मूल्यांकन स्त्रित्व की रक्षा के दृष्टि से देखा जाय तो हमें खुद पर शर्म आने लगता है कि हम इसी मानव समुदाय के सहयात्री हैं जहाँ स्त्रियों की मातृ-शक्ति और देवी होने का भान भूलकर इन्हें केवल और केवल उपभोग की वस्तु मानकर हम चल रहे हैं। फिल्म में, पत्रिकाओं में, बड़े-बड़े होर्डिंग्स के ऊपर और प्रचार-प्रसार के हर साधनों में स्त्रियों को जिस तरह दिखाया जा रहा है उससे यही स्पष्ट होता है कि वगैर आकर्षक और कामूक स्त्री को दिखाये उपभोग्य वस्तुओं का उपभोक्ताओं मे खरीदने की शक्ति आ ही नहीं सकती।
 
आज ऐसे प्रदर्शनों से हमारे, हमारे बच्चों के और समाज के हरेक लोगों में स्त्रीत्व के प्रति अजीब भावनाओं का विकास होते हुए हम देख रहे हैं। हम खुद के व्यवहार को ही परखें तो ऐसा लगता है कि अपने घर की स्त्रियों को छोड़कर बाकी किसी को भी हम उसी तरह इज्जत भरे दृष्टि से आज विभिन्न कारणों से नहीं देख पाते हैं। कहीं-कहीं तो खुद के घर में भी स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। कहीं न कहीं हम मर्यादाओं को भूलकर हरेक स्त्री में अपना हित साधने की संभावना तलाशने लग जाते हैं, ऐसा मैंने कई मौकों पर अनुभव किया है। पता नहीं, ये कोई बीमारी है या वर्तमान युग में स्त्रियों के प्रति गिरता सम्मान। और यह सब केवल इसलिये होता है कि हमें स्त्रियों के प्रति यही धारणा बनाने के लिये हर तरफ एक माहौल तैयार किया जा रहा है। स्त्रियों का स्त्रित्व को बिक्री का सामान समझ हमारे बीच ऐसे परोसा जा रहा है मानो हम सभी उपभोक्ता इसी मसाले पर खुद को तैयार कर पाते हैं एक खरीददार के रूप में।
 
पहले कहा जाता था कि पूर्व और पश्चिम का व्यवहार अलग है। मनोज कुमार की एक फिल्म (नाम याद नहीं है अब) जिसमें यही दिखाया गया था कि पूरब और पश्चिम में सभ्यता का फरक है। परन्तु आज भारतवर्षीय सभ्यता में हम औरतों को खुलेआम बिक्री होते हुए देख रहे हैं। इतने सारे नारी अधिकारवादी लोग हैं परन्तु कहीं से मैंने इस तरह का अत्याचारी प्रथा का विरोध होते हुए नहीं देखा है। क्यों? क्या स्त्रियों को यह सब सहज लग रहा है? क्या उन्हें नहीं लगता कि उन्हें और उनकी शक्ति को व्यवसायीकरण के होड़ में सरेआम बोली लगाकर बेचा जा रहा है? मैंने तो कई जगह खुद औरतों को अपना अंग प्रदर्शन करते और बड़ी-बड़ी बातें करते देखा और वो काफी सहज थीं। उन्हें यदि कोई पर्दा का सीख दे तो वो उस सीख देनेवाले की खड़े-खड़े ऐसे फटकार लगाईं कि मुझ जैसे पुराने विचारधारे के लोगों को फिर कभी हिम्मत ही नहीं हुआ कि किसी को कुछ समझा पायें। बस घर में अपनी स्त्रियों तक लाज-लेहाज और संस्कार की बातें कर खुद को समझा लेना जरुरी समझे। बाकी, मैंने पहले ही कहा कि इस दुनिया की रंगीनियाँ को प्रदर्शन करने में नारियों का गलत इस्तेमाल से मैं खुद भी काफी बुरी तरह प्रभावित होते रहा हूँ। आखिर हम साधारण इन्सान विश्वामित्र की तरह बहुत अधिक देर तक मेनकाओं की प्रेम-पुकार का प्रतिरोध भी कहाँ से कर सकेंगे! टूट जाते हैं। ऐसा लगता है कि और लोगों के साथ भी मेरे जैसा ही हाल होता होगा। तब तो आज विद्यालय, कार्य-स्थल, अस्पताल, मन्दिर, मठ, कहीं भी लोग संवरण नहीं कर पाते और बेचारा प्रद्युम्न जैसा अबोध बच्चा का हत्या तक कर डालते हैं अपनी करतूतों पर छद्म पर्दा डालने के लिये…..!
 
हरिः हरः!!