मैथिल गप्पी कियैक होइत अछि?
– प्रवीण नारायण चौधरी
मैथिल खूब गप्पी टा होइत अछि, वास्तविकता यैह छैक। अहाँ गप खूब लय सकैत छी मैथिल जनमानस सँ।
एकरा लेल खूब शोध केलाक बाद पता चलैत छैक जे बेसी रास लोक, कहि सकैत छी जे सब कियो अपन पैर पर ठाढ छथि या हेबाक लेल तत्पर रहैत छथि। निजी आवश्यकताक पूर्ति करबाक संघर्ष मे व्यस्त लोक लेल सामाजिक - सामुदायिक व्यवस्थापन ओतेक सरोकारक विषय नहि रहि जाइत छैक। निजी कामनाक पूर्ति करनिहार लोक केँ जनकल्याणक चिन्ता कम सतबैत छैक, कारण प्रतिस्पर्धा एहि लेल बेसी छैक जे ओकरा पास एतेक सम्पत्ति तऽ हमरा पास एतबी कियैक, हमरो भौतिक सुख-सुविधा कोना बढत ताहि लेल जे करय पड़त से करब। एहेन स्थिति मे के पूछैत अछि भाषाक संरक्षण-संवर्धन-प्रवर्धन केँ, केकरा चिन्ता हेतैक लोकसंस्कृतिक संरक्षण-संवर्धन-प्रवर्धन केर… के चिन्ता करत जे एक पीढी सँ दोसर पीढी मे नीक परंपराक हस्तान्तरण कैल जाय। आ जखनहि लोकहित आ जनकल्याणकारी योजनाक अन्त अधिकांश व्यक्ति मे होइत छैक, ओतय केवल भभाराबाजी आ गप्प देबाक प्रवृत्ति हावी होइत छैक।
समाज मे महिलावर्गक एकटा खास आदति होइत अछि जे जहाँ दु गोटे एकठाम हेती तऽ हुनका सबहक आपसी गपक खजाना खूजि जाएत अछि, सौंसे समाज केर चरित्र-चित्रण हुनका सबहक आपसी वार्ता मे नित्य होयब अस्वभाविक नहि कहल जा सकैछ। गृहिणी रूप मे अधिकांश मैथिलानी सब केँ गृहकार्य सँ फुर्सत भेटब ओना तऽ दिकदारिये सँ भरल होइछ, मुदा ग्रामीण जीवन मे ‘गप्प देबाक’ विशेष मनोरंजनात्मक कला छोड़ि आब आधुनिक युग मे टेलिविजन केर धारावाहिक (सिरियल) लैत देखाइत अछि। गौर करब, मौगियाही गप कहिकय एकटा प्रसिद्ध कहावत चलैत अछि। पुरुख मे जँ मौगियाही गप करबाक प्रवृत्ति आबि जाय तऽ ओ सबसँ बेसी खतरनाक मानल जाइछ। बात स्पष्ट छैक, खाली दिमाग शैतान का, यैह टा मूल प्रकृति होइत छैक गप्पी केर। जहाँ सृजना सँ दूर होयब, गप्प छोड़ि दोसर किछु नहि दय सकैत छी। समाज मे एहेन गप्पी सँ कहियो हित होयब संभव नहि अछि। अत: गप्पी केँ मूलधार मे ओकर काजक प्रकृति अनुरूप काज मे बझायब मानल जाइत छैक।
जाहि समाज मे आइयो सुकृति करबाक एक तरहें होड़ लागल छैक, ओहि ठामक सपुत सबहक दिमाग मे सदिखन सृजनशीलताक उत्साहपूर्ण रगत दौड़ैत रहैत छैक। एकटा कोनो सक्षम सपुत सार्वजनिक हित केर योजना समाज मे रखैत अछि तऽ ओहि मे दस टा आरो सपुत सकारात्मक-सार्थक सहयोग देबाक लेल उद्यत् होइत अछि। एहेन समाज मे कखनहु गप्प देबाक प्रवृत्ति केँ प्रोत्साहन नहि भेटैत छैक। ओतय काजहि सँ केकरो फुर्सत नहि होइत छैक। एहने समाजक कीर्तिक यशगान चारू तरफ होयब स्वाभाविक छैक। वास्तव मे पौराणिक मिथिला यदि आइयो जीवित अछि तऽ कम्मे संख्या मे सही मुदा यैह सृजनशील समाजक बदौलत एकर सनातन जीवन कायम छैक, पहिचान बनल छैक। एहि बातकेँ आरो जगजियार होयब तखन प्रमाणित होइत छैक जखन मिथिलाक सम्भ्रान्त समाज देश-विदेशक विभिन्न भाग मे रहितो अपन पहिचान केँ सृजनशीलताक संदेश दैत कैल गेल विभिन्न कार्यक्रमक मार्फत जीवित रखैत छैक। आइ हिन्दुस्तान हो, नेपाल हो, बेलायत हो, अमेरिका हो, खाड़ी देश हो, पैन-एशिया हो, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका कतहु मैथिल समाज अछि तऽ ओ अपन सृजनशीलताक पौरुख सँ अपन पहिचान केँ जीवित राखय मे आर समुदाय सँ बहुत आगाँ अछि। साहित्य, संस्कृति, भाषा, भेषभुषा आ आध्यात्मिकताक संग लौकिक व्यवहार मे मैथिल केर मिठास विश्व भरि मे अलगे स्थान रखैत अछि। एहि सब सँ नितान्त दूर – कटल आ रूसल समाज मे गप्प देबाक प्रवृत्ति सुनिश्चित अछि।
हालहि संङोर नाटक – मैथिली मे सर्वथा सबसँ पैघ रेडियो नाटक श्रृंखलाक एक लेखन प्रकाश प्रेमी जी साक्षात्कारक क्रम मे यैह किछु प्रश्न पूछने छलथि। लोकसंस्कृति – लोकगीत, मिथिलाक मौलिक संगीत आदि जे विलोपान्मुख अछि एकरा कोना बचायल जा सकैत अछि। एक पीढी सँ दोसर पीढी मे कोनो विशिष्ट कला केँ कोना पहुँचायल जा सकैत अछि। एक तरफ पहिचानक विशिष्टताक रक्षा लेल चिन्तन अछि, दोसर तरफ भौतिकतावादी युगक राक्षसी प्रसार। कतय विदेहक मिथिला आ कतय रावणक स्वर्णलंका। तथापि एक वर्ग जे एहि सब दिशा मे चिन्तन कय रहला अछि हुनकहि बदौलत परिवर्तन एतेक जरुर आओत जाहि सँ किछु हद तक ‘मिथिला‘ जीबिते रहत। गप्पी भर्सेस काजक लोक – एहि दुइ मे कोनो होड़बाजी नहि रहैत छैक। गप्पी सदिखन काजक लोकपर पचास तरहक उलहन-उपराग आदि छोड़िते रहैत छैक, मुदा काजक लोक सब दिन अपन एकटा निश्चित दृष्टिकोण संग निर्धारित मार्ग पर बिना गप्पी-गफास्टर केँ नकारने वा गनने अपन तरीका सँ बढिते रहैत छैक। काजक बेटा अपन आन-मान-शान केर विषय मानि मैथिली-मिथिला लोकहित केर रक्षक बनिकय अपन जीवन सदा-सदा लेल सकारथ कय लैत अछि। गप्पी अधिकांशत: गुँह गिजिते अन्तकाल प्राप्त करैत अछि। ओकर दुर्दशा सुनिश्चित रहैत छैक।
भरोसा अहू लेल करगर अछि जे आखिर कोन एहेन तत्त्व मिथिलाकेँ भूगोलविहीन अवस्था मे पर्यन्त आइ सनातन पहिचान सँ सम्मानित केने अछि। कोना एतेक गूढ ऐतिहासिक पहिचान सहित पौराणिक काल सँ वर्तमान युग धरि हमरा लोकनि ‘मिथिला आ मैथिली’ सँ चिन्हल जाइत छी। कोढिया चाहे हऽ – एहेन तरहक लोकोक्ति केँ बल देबाक लेल नहि, हम ई भावना मात्र ओहि तत्त्व केँ आत्मसात करबाक लेल कहि रहल छी जाहि सँ चिन्तनक वर्ग मे अहुँ पड़ू। मिथिला मे दिनानुदिन काजक लोक घटल जा रहल अछि, एहि चिन्तन केँ विस्तार देबाक लेल ‘गप्पी’ पर शोध जरुरी छल। आशा करैत छी जे पढनिहार केओ गप्पी एकरा नकारात्मक रूप मे नहि लेता, बल्कि अपन सामर्थ्य सँ मातृभूमि प्रति सेवाभाव ग्रहण करता।
जय मैथिली – जय मिथिला!!
हरि: हर:!!