स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
लङ्काकाण्ड – तेरहम अध्याय
।चौपाइ।
ऐरावत पर चढ़ि सुरराज । समीची श्री – शची समाज ॥
सहस्राक्ष अयला तहिठाम । सुरगण सहित गबैत गुणग्राम ॥
यम ओ वरुण कुबेर समेत । अयला रघुनन्दन – रण – खेत ॥
वृषभ चढ़ल अयला वृषकेतु । करब रघूत्तम – स्तुति तैँ हेतु ॥
रजताचल सन झलकय देह । चण्डी सङ्ग अखण्ड सिनेह ॥
त्रिनयन शोभित श्रीमुख पाँच । रघुपति – चरित सतत से बाँच ॥
गङ्गा पिङ्ग – जटा भल रङ्ग । भूतप्रेत – गण बहुविध सङ्ग ॥
ब्रह्मा अयला हंस - सवार । सङ्ग शारदा सदगुणदार ॥
वीणा पुस्तक अक्ष सुमाल । अयली जतय राम महिपाल ॥
मुनि ऋषि पितर सिद्ध गन्धर्व्व । उरगादिक मिलि अयला सर्व्व ॥
बद्धाञ्जलि अभिनत सतभाष । प्रभु पूरल जन – मन – अभिलाष ॥
सकल – लोक – कर्त्ता भगवान । साक्षी सकल देह विज्ञान ॥
रावण सभक हरल धन धाम । तकरा अपने मारल राम ॥
भेलहुँ अकण्टक सुख सौँ रहब । निज निज सदन सुयश – चय कहब ॥
ब्रह्मास्तुति कयलनि अगुआय । आज कयल प्रभु समुचित न्याय ॥
।अनुष्टुप् छन्दः।
।देश।
स्तुवे कादम्बिनी – श्यामं धनुष्मन्तम्मुदा रामम् ।
युगान्ते सर्व्वलोकानामशोकानां हि विश्रामम् ॥
खले मन्दोदरीकान्ते महच्चित्रं रणे शान्ते ।
हृताशेषावनोभारं रमादारं महोदारम् ॥
मुनीनां दुःखशान्त्यर्थं मुदा सम्प्राप्तकान्तारम्।
सुमित्रानन्दनं वन्दे रणे शक्रारिहन्तारम् ॥
।सबैया छन्द।
वाक अगोचर चित्त अगोचर, के कह केहन कान्ति कहाँ छी ।
सूक्ष्मसौँ सूक्ष्म विशाल विशालसौँ, ईश्वर छी विभु छी जे जहाँ छी ॥
सृष्टिक हेतु अनादि अनामय, ध्यान सौँ ध्येय-स्वरूप तहाँ छी ।
विष्णु अहाँ छी विरञ्चि अहाँ छी, महेश अहाँ छी कहाँ नै अहाँ छी ॥
ज्ञान समाधि समग्र महातप, ध्येय सरूप जहाँ छी तहाँ छी ।
नाम विरञ्चि कहै छथि लोक से, गोचर ब्रह्म न देव कहाँ छी ॥
व्योम समीर तथानल ओ जल, देखल जाइछ सर्व्व – सहाँ छी ।
श्रीरघुनन्दन दुष्ट – निकन्दन, सद्गुण ब्रह्म अनन्त अहाँ छी ॥
।चौपाइ।
पावक प्रकट भेल तहिकाल । दिव्यरूप अति – दीप्ति विशाल ॥
वैदेही आरापित अङ्क । क्षीरोदधि जनु रमा निशङ्क ॥
अरुण बसन विमलारुण कान्ति । दिव्य विभूषण सुन्दरि शान्ति ॥
सकलदेव जय – जय धुनि करथि । गगन अवनि स्वेच्छा सञ्चरथि ॥
पावक कहल राम भगवान । करयित यशोराशि – गुणगान ॥
प्रमुदित राम कमल – कर धयल । वाम अङ्ग मे स्थापित कयल ॥
से शोभा देखथि अमरेश । कह जय – जय सीता – प्राणेश ॥
सहस्राक्ष फल पाओल आज । सीतासहित देखल रघुराज ॥
हम अमरेश्वर छल ई गर्व्व । से अभिमान रहित भेल सर्व्व ॥
श्रीप्रभु – चरणक हम लघु दास । रावणादि – कृत छूटल त्रास ॥
रामचन्द्र नूतन – घन – रङ्ग । जनक – सुता – सौदामिनि सङ्ग ॥
जहिलय योग ज्ञान तप करथि । गुहावास घन वन सञ्चरथि ॥
जहिलय शङ्कर करथि समाधि । तनिकाँ देखल छूटल आधि ॥
केओ कह कर्म्म काल केओ प्रकृति । केओ कह पुरुष सिद्धमुनि प्रभृति ॥
कहयित शुनयित अन्त न पाव । केओ कह सृष्टिक सहज स्वभाव ॥
कर्त्ता कर्म्मादिक जत भाष । देखि प्रभु – चरण पुरल अभिलाष ॥
रहल न एको मन वैषम्य । सभहिक अपने केवल गम्य ॥
।दण्डक छन्दः।
जय सदोद्य – धराधारे, हृत – धरित्री – विपुल – भारे,
जगन्मातर्गुणागारे, महोदारे हे ।
जनक-महि – महनीय-कन्ये, शिव-विरञ्चि-प्रभृति-मान्ये,
रमा-गौरी-जन-वदान्ये, यशोहारे हे ॥
सदानाहत – जलज – वासे, पाप – तूल – महा हुताशे,
पूरिताखिल-सुर-जनाशे, निराकारे हे ।
राम-घन-चपले सुकामिनि, जय चराचर-वर – स्वामिनि,
रूप जित-कन्दर्प्प-मानिनि, शक्तिसारे हे ॥
।चौपाइ।
राम कहल शुनु शुनु सुरराज । एकगोट अपनैँ सौँ काज ॥
वानर रण मे मुइल बहूत । से सजीव करु प्रिय पुरहूत ॥
से शुनि तेहन कयल अमरेश । अमृत – वृष्टि सौँ राम – निदेश ॥
प्राप्त – जीव से लाखहि लाख । जय रघुनन्दन आनन्द भाष ॥
।सोरठा।
शुनु करुणानिधि राम, हाथ जोड़ि शङ्कर कहल ।
हम आयब ओहिठाम, अति उत्सव अभिषेक मे ॥
।जयकरी छन्द।
दशरथ नृप देखयित छथि ठाढ़ । अहँ मे प्रेम जनिक अछि गाढ़ ॥
दशरथ काँ लगला प्रभु गोड़ । लक्ष्मण सीता हर्ष न थोड़ ॥
दशरथ कहलनि पूरल आश । संशय आधि सर्व्व भेल नाश ॥
दशरथ गेला पाबि सन्मान । राग द्वेष गत पाओल ज्ञान ॥
तखन विभीषण जोड़ल हाथ । एक विज्ञप्ति हमर रघुनाथ ॥
घर थिक अपन चलल प्रभु जाय । दिनेक रहब शक के अटकाय ॥
स्नान अलङ्कृत मङ्गल वेष । सभ काँ मन प्रभु – छवि काँ देख ॥
घर भेल अपन अहँक सन भक्त । रघुवर कहलनि समय सशक्त ॥
अति सुकुमार भरत की हयत । अवधि एको दिन जौँ बिति जायत ॥
वल्कल वसन जटा धर माथ । हमरा बिनु शत्रुघ्न अनाथ ॥
तकइत हयता हमरे बाट । अनतय न बनब छन सम्राट ॥
करब स्नान की तनि बिनु आज । जायब सत्वर तनिक समाज ॥
सुग्रीवादिक हो सत्कार । हम मानब अपने उपकार ॥
शुनल विभीषण रघुवर – उक्ति । अति प्रसन्न मन मानल युक्ति ॥
कनकाम्बर वररत्न बजार । निज निज रुचि पाहुन व्यवहार ॥
यूथप – गणक कयल सत्कार । मुदित विभीषण परमोदार ॥
मणि लय वानर सादर चाट । स्वाद न पाव पटक झट बाट ॥
कनकाम्बर नख दसनैँ चीर । हसथि विनोद देखि रघुवीर ॥
पुष्पकरथ रवि – तेज विराज । लयल विभीषण रामक काज ॥
तेहि रथ चढ़ला राम नरेश । अछि गन्तव्य शीघ्र निज देश ॥
सीता लक्ष्मण रथ चढ़लाह । मन उदास कपिगण पड़लाह ॥
सभ काँ राम वचन कहि बेश । भालु कीश काँ देल निदेश ॥
वानर भालु यथारुचि जाथु । स्वेच्छा वन उत्तम फल खाथु ॥
कपि – पति अङ्गद नवलङ्केश । सभ काँ कहलनि चलइत देश ॥
मित्र – काज अपने सभ कयल । ऋण उपकार सर्व्वदा धयल ॥
आज्ञा दी तौँ चली सबेर । भेट घाट होयत कय बेर ॥
किष्किन्धा लय सैन्य अपार । कपिपति जाउ सिद्ध उपकार ॥
भक्त विभीषण करु गय राज । लङ्कापुर मे सहित समाज ॥
बड़ अगुताइ कथा अछि ढेर । चलब अयोध्या होइछ अबेर ॥
शुनि शुनि सभजन जोड़ल हाथ । मानल जाय देव रघुनाथ ॥
देखितहुँ रामचन्द्र – अभिषेक । रहल लालसा मन मे एक ॥
कौशल्या काँ करब प्रणाम । घुरि घुरि सभ जन अयबे गाम ॥
प्रभु कह कथा देब नहि काटि । केओ न हमर भरत सौँ घाटि ॥
चलु चलु पुष्पक होउ सबार । अतिशय कठिन प्रेम व्यवहार ॥
लङ्केश्वर कपिवर हनुमान । वानर रथ पर चढ़ल प्रधान ॥
राजराज – रत अतिशय राज । चढ़ल सकल दल हलचल काज ॥
आज्ञा देलनि विश्व – निवास । हंसयुक्त रथ उड़ल अकास ॥
रघुनन्दन वर छवि काँ पाब । शोभा जेहन विरञ्चिक आब ॥
दिनकर – बिम्ब सुधवि काँ धयल । धनपति – रथ नभ – पथ गति कयल ॥
।सोरठा।
जय जय श्याम – शरीर, जय जय पङ्कज – नयन प्रभु ।
जय सानुज रघुवीर, जय सीतापति अमर कह ॥
।इति।
हरिः हरः!!