स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
लङ्काकाण्ड – आठम अध्याय
।सोरठा।
शुनल वचन लङ्केश, कुम्भकर्ण समुचित कहल ।
मानल हृदय कलेश, क्रोधातुर चहलनि उठय ॥
शिखइक नहि अछि ज्ञान, बजबाओल से काज करु ।
जाउ जौँ मन किछु आन, करु सुषुप्ति निद्रा – विकल ॥
।चौपाइ।
कुम्भकर्ण शुनि रावण – उक्ति । कालविवश काँ नीति न युक्ति ॥
समुचित कहल कयल ओ कोप । पापक उपचय शर्म्मक लोप ॥
महागोट पर्व्वत सन काय । चलला समर विषाद विहाय ॥
रण – महि कयल तेहन से नाद । सातो जलधि रहित – मर्याद ॥
अति भयकारक कपि – दल जान । कुम्भकर्ण थिक काल – समान ॥
झपटि झपटि वानर केँ खाथि । गिरि सपक्ष सन सत्वर जाथि ॥
मुदगर लय कर तेहन घुमाव । कालदण्ड गुणि के लग आव ॥
बहुतक चूर चरण ओ हाथ । बहुत जनक भेटय की माथ ॥
जाय विभीषण कयल प्रणाम । गदापाणि कहलनि निज नाम ॥
भाय दया करु भय गेल भेट । रावण रहल न कहल समेट ॥
बहुत कहल हम नीति बुझाय । अनुचित मानल बड़का भाय ॥
कि कहब सहल बहुत अपमान । रहितहुँ निकट न बचयित प्राण ॥
मारल लात हाथ तरुआरि । असमन्धिक जकँ धिक पड़ गारि ॥
राम – शरण हम धयल विचारि । सचिव – चारि – युत कुशल निहारि ॥
अमृत त्यागि विषय तिष के खाय । चुम्बन करय व्यालमुख जाय ॥
कुम्भकर्ण लघु भ्राता जानि । मिलि कहलनि की तोहर हानि ॥
महाभागवत थल भल पाय । कुल मे कमल भेलहुँ एक भाय ॥
नारद सौँ हमरा सभ ज्ञात । जाउ निकट सौँ सम्प्रति कात ॥
के थिक अपन बुझी नहि आन । सुरा हरल जतबो छल ज्ञान ॥
कहलनि कुम्भकर्ण जे भाय । कह सुग्रीव चरण लपटाय ॥
कनयित कनयित भेला विदाय । कयल निवेदन प्रभु – पद जाय ॥
कुम्भकर्ण किछु श्रम नहि लेथि । करपद सौँ कपि – दल पिसि देथि ॥
मुका एक मारल हनुमान । खसला कटला गाछ समान ॥
कुम्भकर्ण रण उठल सम्भारि । हनुमानक सङ्ग बजरल मारि ॥
हनुमानक पर मुका चलाय । मूर्छित कय देल अवनि शुताय ॥
नलनीलादि सहित कपिराज । पटकल छल सभ किछु नहि बाज ॥
मातल जेहन प्रबल मातङ्ग । कुम्भकर्ण से धयलनि रङ्ग ॥
।सवैया छन्द।
कण्ठकूप मे कपिपति जाँतल, सभ प्रधान सङ्ग्राम खसाय ।
कुम्भकर्ण घुरि लङ्का चलला, ककरो बुते नहि बनय उपाय ॥
गमहि गमहि अति साहसि कपिपति, हुनकर काटल नासा कान ।
उड़ि नभ अपन कटक चल अयला, कुम्भकर्ण काँ भेल न ज्ञान ॥
।बरबा छन्द।
सूर्प्पनखा काँ समुचित, भेलथिनि भाय ।
रूप भयङ्कर तिनकर, कहल न जाय ॥
।दोबय छन्द।
लय त्रिशूल कर फिरल भयङ्कर कालमूर्त्ति जनु आबै ।
नाशा – श्वास – पवन सौँ कपिगण योजन बहुत उड़ाबै ॥
एक जनक शक से नहि भेले, जे क्षण रण अटकाबै ॥
प्रबल वेग चल प्रवह जेहन बह, कत कपि नभ लटकाबै ॥
नहि सुबाहु खरदूषण नहि हम, नहि कबन्ध वनचारी ॥
नहि हम शम्भु-धनुष जे तोड़लह, तथा ताटका नारी ॥
सूर्प्पनखा मारीच नीच नहि, जड़ जलनिधि नहि जानह ॥
रे रे राम विश्वबलमर्दन, कालमूर्त्ति मन मानह ॥
।चौपाइ।
वानर विकल देखल रघुनाथ । क्रुद्ध धनुष शर लेलनि हाथ ॥
फेकलनि अस्त्र एक वायव्य । अस्त्रसहित काटल भुज सव्य ॥
खसल हाथतर कपि जे पड़ल । रहि गेल ठामहिँ नहि संचरल ॥
राक्षस लय कर शाल विशाल । रघुवर पर दौड़ल तत्काल ॥
इन्द्र – अस्त्र प्रभु मारल ताहि । शालसहित कटि गेल तनि बाँहि ॥
भुजयुग – रहित चलल खिसिआय । रावण काँ प्राणाधिक भाय ॥
अर्द्धचन्द्र दुइ सौँ बुझि बयर । काटि देल प्रभु तनिकर पयर ॥
छिन्नचरण महि खसला ढेर । ओँघड़ायित दौड़ से फेर ॥
बड़वामुह सन मुह बड़ बाय । विधु लग राहु ग्रसय जनु जाय ॥
शिलाखण्ड प्रभु शरपर लेथि । कुम्भकर्ण – मुह भरि भरि देथि ॥
तदपि न मरय करय सञ्चार । ओँघड़यितहुँ कपिदल संहार ॥
तखन ऐन्द्रधनु अशनि समान । राम धनुष पर कर सन्धान ॥
फेकल कयल तनिक संहार । वासव वृत्र समर व्यवहार ॥
कुम्भकर्ण शिर लङ्का द्वारि । तनिक पतन तन वारिधि वारि ॥
धर तल जलचर जे पड़ि गेल । तनिकर मरण अकालहिँ भेल ॥
देखल समर अमर – गण गगन । कयलनि सुमन – वृष्टि मन – मगन ॥
खग पन्नग मुनिगण गन्धर्व्व । अतिशय हृदय हर्ष भर सर्व्व ॥
नारद मुनि अयला तहिठाम । स्तुति कर धन्य धन्य प्रभु राम ॥
विजय – सदवसर बजबथि बीण । धरणीभार कयल प्रभु क्षीण ॥
कुम्भकर्ण सन मारल शूर । सज्जन मुनिक मनोरथ पूर ॥
के छथि जनिकाँ देल न कष्ट । सुखित आज छथि दिग्गज अष्ट ॥
अपनैँक तकलैँ हो संसार । मुनलय आँखि सृष्टि – संहार ॥
प्रकृति पुरुष साक्षी से काल । व्यक्ताव्यक्त त्रिगुणमय जाल ॥
सबहिक मूलभूत अहँ राम । बार बार तैँ करी प्रणाम ॥
स्मरण नाम कीर्त्तन गुण करथि । कथा – कथन से संसृति तरथि ॥
सभ – ज्ञाता काँ हम की कहब । सुर मिलि नभ सौँ देखयित रहब ॥
कृपा करू जाइत छी आज । सिद्धि कयल धरणी सुरकाज ॥
चलल मनोगति विधिक समाज । सुरमण्डलि सुख गगन विराज ॥
जय अतिबल रघुवर भगवान । भूमि गगन धुनि पूरित कान ॥
जय जय शब्द करय कय बेर । वानर अरिगण काँ नहि टेर ॥
कुम्भकर्ण काँ मारल राम । पर्व्वत सन शिर अछि एहिठाम ॥
शुनि से रावण भूमि लोटाय । कहि भ्राता – गुण शोक समाय ॥
क्षण – क्षण मूर्छा क्षण चैतन्य । बरनथि विशद सहज सौजन्य ॥
भेलहुँ आज उत्साह – विहीन । मानल गेलहुँ काल – अधीन ॥
निहत पिती विह्वल लङ्केश । शुनि मेघनाद पहुँचि तहि देश ॥
परिहरु शोच पिता एहिठाम । हमरा आगाँ के थिक राम ॥
अतिबल जिबितहिँ छी घननाद । अपनैँ काँ नहि उचित विषाद ॥
स्वस्थ चित्त सौँ रहु महिपाल । हम श्रम करब हरब जञ्जाल ॥
अपनैँक शत्रु – समूह संहारि । तौँ जानब हमरा शक्रारि ॥
मेघनाद रण चलल सकोप । करब समर रघुवर – बल – लोप ॥
भोरहिँ वानर रोकल द्वारि । भेल परस्पर भारी मारि ॥
मेघनाद अतिमाया धयल । रथ चढ़ि गगन महा – रव कयल ॥
रङ्ग एकर नहि लगएछ नीक । विकल सकल दल कह की थीक ॥
होइछ अस्त्र जते संसार । नभ सौँ बरिशय नानाकार ॥
अविरल वारिद बरिसय नीर । तेहने बरष गगन सौँ तीर ॥
समर राम सङ्ग करय प्रताप । शर तन लाग ससरि हो साप ॥
वानर दल भय थर थर काँप । सगर समर भरि सापहिँ साप ॥
साप लपटि सभहिक तन जाय । रह अवकाश न केओ पड़ाय ॥
तखन प्रकट भेल पढ़यित गारि । परिकल छह कय दिन कय मारि ॥
एतगोट दर्प्प हमर पुर जार । अतिबल राक्षस काँ संहार ॥
जाम्बवान कहलनि रे दुष्ट । जयबह कतय समर – सन्तुष्ट ॥
मेघनाद शुनि कय मन क्रोध । रह रे वृद्ध वृद्ध – दुर्ब्बोध ॥
बुढ़ भनि छोड़ल साहस छोड़ । अपना बल काँ के कह थोड़ ॥
देखि प्रताप तदपि नहि ज्ञान । हम छी मेघनाद नहि आन ॥
शूल चलाओल वचनैँ झोँकि । जाम्बवान लेल हाथैँ लोकि ॥
मारल शूल हृदय मे हाँकि । मूर्छित खसला शकथि न ताकि ॥
समर – भूमि पद धय घिसिआय । लङ्का फेकि देल खिसिआय ॥
हर्ष विषाद नगर भरि भरल । रजनि जानि नहि जन सञ्चरल ॥
।रूपक दण्डक छन्द।
।सरमाक उक्ति।
नागपाश सौँ रण मे बाँधल – सीता तोहर भर्त्ता, उद्धर्त्ता ।
प्रायः एको व्यक्ति नहि छूटल – जे सङ्कट काँ हर्त्ता, अरि मार्त्ता ॥
त्यागू मन सौँ पति – प्रत्याशा – पड़लहुँ शोकक गर्त्ता, रुचिकर्त्ता ।
सरमा कहल सत्य कहयित छी – हमहुँ भेलहुँ दुःखार्त्ता, शुनि वार्त्ता ॥
।वसन्ततिलका छन्द।
।सीताक उक्ति।
हा राम लक्ष्मण कहू कत की करै छी
माया – भुजङ्गमक बन्धन सौँ मरै छी ।
हा स्पष्ट कष्ट हमरे सभ हेतु प्राप्त
अम्भोजबन्धु – कुल – कीर्त्ति – शशी समाप्त ॥
।नाराचिका छन्द।
।तिरहुति।
पतिगति शुनिय जिवन थोर, फरकय बाम नयन मोर ।
मुनिजन देखल कहल जत, नहि वैधव्य लिखल तत ॥
समर – अजय रघुनन्दन, करता अरि – बल – खण्डन ।
यदपि वचन शुनि दुस्सह, मन नहि अपन तेहन कह ॥
।जयकरी छन्द।
गरुड़ावाहन कयलनि राम । चलल विहगपति नभ बलधाम ॥
उड़यित उड़ि गेल बहुत पहाड़ । गलित होय पन्नग – कुल – हाड़ ॥
अयला ततय जतय रघुराज । तनि भय सौँ भेल निर्भय काज ॥
खगपति खयलनि माया – व्याल । गरुड़क पूर भेल नहि गाल ॥
पक्ष – पवन – खन प्रलय घटाक । अति दुर्ग्गति लङ्काक अटाक ॥
सभ जन सुखित दुखित नहि एक । कयल विहगपति अमृतक सेक ॥
गिरिवर तरु कपि – दल लय जाय । मारथि राक्षस – भट खिसिआय ॥
सकल पड़ायल राक्षस वीर । समर एक नहि रहले थीर ॥
नहि मुइला ओ वरक प्रसाद । मेघनाद मन बहुत विषाद ॥
रावण – मुख देखि लज्जा आब । मन मन जाम्बवान गुन गाब ॥
त्रिकुटाचल – अन्तर – गिरि जाय । मेघनाद अभिचारि नुकाय ॥
अरुण वसन गल माला लाल । चन्दन सुमन विधान विशाल ॥
अर्द्धचन्द्र कुण्डक निर्म्माण । आमिष शोणित तत लय आन ॥
काठ बहेड़क कयल से ढेर । होम करय लगलाह सबेर ॥
होमक धूम गगन घन – रूप । अनुष्ठान कर चूपहि चूप ॥
बुझल विभीषण से सभ कर्म्म । रघुनन्दन सौँ कहलनि मर्म्म ॥
प्रभु कहयित छी हम कल जोड़ि । आन लड़ाइ आइ दिय छोड़ि ॥
होमारम्भ कयल घननाद । जकर धूम अम्बर आछाद ॥
जौँ सम्पन्न होयत मुख – काज । अजय होयत सुरपति – जित आज ॥
लक्ष्मण चलथु सैन्य सभ सङ्ग । करथु प्रथम तनिकर मख – भङ्ग ॥
मारथु तनिका लड़ि सङ्ग्राम । आज्ञा देल जाय प्रभु राम ॥
राम कहल भल हमहीँ जयब । सुरपति – अरि रण – सन्मुख हयब ॥
अनल – अस्त्र तनिकाँ हम मारि । वन – दव सम तनिकाँ देब जारि ॥
।सोरठा।
कहल हाथ दुहु जोड़ि, शुनल विभीषण प्रभु – वचन ।
श्री लक्ष्मण काँ छोड़ि, मरत न रावण – सुत समर ॥
बारह वर्ष विहीन, निद्राहार – विहार सौँ ।
कयल विरञ्चि अधीन, जे तनि कर मर इन्द्रजित ॥
निद्रादिक परित्याग, अबधि अयोध्यागमन सौँ ।
लक्ष्मण – विषय विराग, रघुनन्दन – सेवा – निरत ॥
मरता लक्ष्मण – हाथ, मेघनाद लङ्केश – सुत ।
शुनु शुनु प्रभु रघुनाथ, अपनैँक आज्ञा पाबि कैँ ॥
धराभार हर्त्ता, अहाँ विश्व – कर्त्ता !!
।इति।
हरिः हरः!!