सोशल मीडिया पर मैथिलीक पढ़ाइ
विद्यालय मे मैथिली भाषा-साहित्यक पढाइ बालकक्षा सँ उच्चकक्षा धरि – विभिन्न शोध व उपाधि हासिल करबाक धरि मौजूद अछि । मुदा पढ़निहार मे रुचि विभिन्न कारण सँ कम अछि, दिनानुदिन कम भेल जा रहल अछि । राज्य एहि लेल कोनो चिन्ता नहि करैछ, सामाजिक सरोकार रखनिहार सेहो गुम्मी लदने देखाइछ ।
मुदा सोशल मीडिया मे गोटेक महानुभाव सब व्याकरणक नियम सब सिखबैत देखाइत रहैत छथि – अनेकों तरहक टिप्स-सुझाव सब दैत रहैत छथि । हेतनि, हुनको अपन आउडियेन्स (पढनिहार-देखनिहार-अनुकरण कयनिहार) अवस्से हेतनि – तेँ ओ सब अपन ज्ञान सँ मैथिलीक कल्याण लेल सोशल मीडियाक उपयोग करैत छथि ।
लेकिन हमरा गोटेक खन एना लगैत अछि जेना शंकराचार्य संग ओ व्याकरणविद् केर बहस भेल छल –
शंकराचार्य केँ व्याकरणाचार्य टोकि देलखिन, कतहु उच्चारण मे व्याकरणक नियम सँ इतर आदिगुरु बाजि देने रहथिन । भरल सभा मे वृद्ध अवस्था प्राप्त आदिगुरु केँ समवयस्क व्याकरणाचार्य द्वारा एना शुद्ध-अशुद्धक कसौटी पर नपनाय किछु लोक केँ बड़ा अटपटा बुझेलनि । ओ सब इशारा कयलखिन्ह जे आदिगुरुक उमेर देखू आ हुनकर प्रस्तुतिक भाव बुझू – एहि मे व्याकरणक नियम केर जाँचब-परखब सभा अनुकूल उचित नहि भेल ।
शंकराचार्य सेहो विस्मित भेलाह । हुनको उपर अचानक बीच मे टोकल जेबाक आ वाणी मे अशुद्धि रहबाक प्रतिक्रियाक थोड़ेक प्रभाव पड़ले रहनि । शंकराचार्य तखन विनम्रता पूर्वक निम्न निवेदन कयलखिन –
भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥
हे मोह सँ ग्रसित बुद्धिवला मित्र! गोविन्द केँ भजू, गोविन्द केर नाम लियह, गोविन्द सँ प्रेम करू । कियैक तँ मृत्युक समय व्याकरणक नियम याद रखला सँ अहाँक रक्षा नहि भ’ सकैत अछि ।
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करबाक लोभ त्यागू । अपना मन सँ एहि समस्त कामना सभक त्याग करू । सत्यताक पथ केर अनुसरण करू, अपन परिश्रम सँ जे धन प्राप्त हो वैह सँ अपन मोन केँ प्रसन्न राखू ॥२॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥
स्त्री शरीर पर मोहित भ’ आसक्त जुनि होउ । अपना मन मे निरन्तर स्मरण करू कि ई मांस-वसा आदिक विकार केर अतिरिक्त किछु आर नहि थिक ॥३॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्,
तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ल पानिक बून्द समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) अछि । ई बुझि जाउ जे समस्त विश्व रोग, अहंकार आर दु:ख मे डूबल अछि ॥४॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥
जाबत धरि व्यक्ति धनोपार्जन मे समर्थ अछि, ताबत धरि परिवार मे सब ओकरा प्रति स्नेह प्रदर्शित करैत अछि । परन्तु अशक्त भ’ गेला पर ओकरा सामान्य बातचीत मे पर्यन्त कोनो पूछ नहि होइत छैक ॥५॥
यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥
जाबत धरि शरीर मे प्राण रहैत छैक ताबत धरि मात्र लोक कुशल पुछैत छैक । शरीर सँ प्राण वायु निकलिते पत्नी सेहो ओहि शरीर सँ डराइत छैक ॥६॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बचपन मे खेल मे रूचि होइत छैक, युवावस्था मे युवा स्त्रीक प्रति आकर्षण होइत छैक, वृद्धावस्था मे चिन्ता सब सँ घेरायल रहैत अछि लेकिन प्रभु सँ कियो प्रेम नहि करैत अछि ॥७॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥
के अहाँक पत्नी छी, के अहाँक पुत्र छी, ई संसार अत्यन्त विचित्र अछि, अहाँ के छी, कतय सँ आयल छी, बन्धु ! एहि बात पर तँ पहिने विचार कय लियह ॥८॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥
सत्संग सँ वैराग्य, वैराग्य सँ विवेक, विवेक सँ स्थिर तत्त्वज्ञान आर तत्त्वज्ञान सँ मोक्ष केर प्राप्ति होइत छैक ॥९॥
वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥
आयु बित गेलाक बाद काम भाव नहि रहैछ, पानि सुखा गेलापर पोखरि नहि रहैछ, धन चलि गेलापर परिवार नहि रहैछ आर तत्त्व ज्ञान भेलापर संसार नहि रहैछ ॥१०॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥
धन, शक्ति आर यौवन पर गर्व जुनि करू, समय क्षण भरि एकरा नष्ट कय दैत छैक । एहि विश्व केँ माया सँ घेरायल जानिकय अहाँ ब्रह्म पद मे प्रवेश करू ॥११॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥
दिन आर राति, साँझ आ भोर, सर्दी आर बसन्त बेर-बेर अबैत-जाइत रहैत छैक । काल केर एहि क्रीडा संग जीवन नष्ट होइत रहैत छैक, मुदा इच्छा सभक अन्त कहियो नहि होइत छैक ॥१२॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः,
श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२.१॥
बारह गीत केर ई पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण केँ प्रदान कयल गेल ॥१२.१॥
हरिः हरः!!
सोशल मीडिया पर मैथिलीक पढ़ाइ
विद्यालय मे मैथिली भाषा-साहित्यक पढाइ बालकक्षा सँ उच्चकक्षा धरि – विभिन्न शोध व उपाधि हासिल करबाक धरि मौजूद अछि । मुदा पढ़निहार मे रुचि विभिन्न कारण सँ कम अछि, दिनानुदिन कम भेल जा रहल अछि । राज्य एहि लेल कोनो चिन्ता नहि करैछ, सामाजिक सरोकार रखनिहार सेहो गुम्मी लदने देखाइछ ।
मुदा सोशल मीडिया मे गोटेक महानुभाव सब व्याकरणक नियम सब सिखबैत देखाइत रहैत छथि – अनेकों तरहक टिप्स-सुझाव सब दैत रहैत छथि । हेतनि, हुनको अपन आउडियेन्स (पढनिहार-देखनिहार-अनुकरण कयनिहार) अवस्से हेतनि – तेँ ओ सब अपन ज्ञान सँ मैथिलीक कल्याण लेल सोशल मीडियाक उपयोग करैत छथि ।
लेकिन हमरा गोटेक खन एना लगैत अछि जेना शंकराचार्य संग ओ व्याकरणविद् केर बहस भेल छल –
शंकराचार्य केँ व्याकरणाचार्य टोकि देलखिन, कतहु उच्चारण मे व्याकरणक नियम सँ इतर आदिगुरु बाजि देने रहथिन । भरल सभा मे आदिगुरु केँ वयोवृद्ध व्याकरणाचार्य द्वारा एना शुद्ध-अशुद्धक कसौटी पर नपनाय किछु लोक केँ बड़ा अटपटा बुझेलनि । ओ सब इशारा कयलखिन्ह जे आदिगुरुक उमेर देखू आ हुनकर प्रस्तुतिक भाव बुझू – एहि मे व्याकरणक नियम केर जाँचब-परखब सभा अनुकूल उचित नहि भेल ।
शंकराचार्य सेहो विस्मित भेलाह । हुनको उपर अचानक बीच मे टोकल जेबाक आ वाणी मे अशुद्धि रहबाक प्रतिक्रियाक थोड़ेक प्रभाव पड़ले रहनि । शंकराचार्य तखन विनम्रता पूर्वक निम्न निवेदन कयलखिन –
भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥
हे मोह सँ ग्रसित बुद्धिवला मित्र! गोविन्द केँ भजू, गोविन्द केर नाम लियह, गोविन्द सँ प्रेम करू । कियैक तँ मृत्युक समय व्याकरणक नियम याद रखला सँ अहाँक रक्षा नहि भ’ सकैत अछि ।
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करबाक लोभ त्यागू । अपना मन सँ एहि समस्त कामना सभक त्याग करू । सत्यताक पथ केर अनुसरण करू, अपन परिश्रम सँ जे धन प्राप्त हो वैह सँ अपन मोन केँ प्रसन्न राखू ॥२॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥
स्त्री शरीर पर मोहित भ’ आसक्त जुनि होउ । अपना मन मे निरन्तर स्मरण करू कि ई मांस-वसा आदिक विकार केर अतिरिक्त किछु आर नहि थिक ॥३॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्,
तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ल पानिक बून्द समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) अछि । ई बुझि जाउ जे समस्त विश्व रोग, अहंकार आर दु:ख मे डूबल अछि ॥४॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥
जाबत धरि व्यक्ति धनोपार्जन मे समर्थ अछि, ताबत धरि परिवार मे सब ओकरा प्रति स्नेह प्रदर्शित करैत अछि । परन्तु अशक्त भ’ गेला पर ओकरा सामान्य बातचीत मे पर्यन्त कोनो पूछ नहि होइत छैक ॥५॥
यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥
जाबत धरि शरीर मे प्राण रहैत छैक ताबत धरि मात्र लोक कुशल पुछैत छैक । शरीर सँ प्राण वायु निकलिते पत्नी सेहो ओहि शरीर सँ डराइत छैक ॥६॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बचपन मे खेल मे रूचि होइत छैक, युवावस्था मे युवा स्त्रीक प्रति आकर्षण होइत छैक, वृद्धावस्था मे चिन्ता सब सँ घेरायल रहैत अछि लेकिन प्रभु सँ कियो प्रेम नहि करैत अछि ॥७॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥
के अहाँक पत्नी छी, के अहाँक पुत्र छी, ई संसार अत्यन्त विचित्र अछि, अहाँ के छी, कतय सँ आयल छी, बन्धु ! एहि बात पर तँ पहिने विचार कय लियह ॥८॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥
सत्संग सँ वैराग्य, वैराग्य सँ विवेक, विवेक सँ स्थिर तत्त्वज्ञान आर तत्त्वज्ञान सँ मोक्ष केर प्राप्ति होइत छैक ॥९॥
वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥
आयु बित गेलाक बाद काम भाव नहि रहैछ, पानि सुखा गेलापर पोखरि नहि रहैछ, धन चलि गेलापर परिवार नहि रहैछ आर तत्त्व ज्ञान भेलापर संसार नहि रहैछ ॥१०॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥
धन, शक्ति आर यौवन पर गर्व जुनि करू, समय क्षण भरि एकरा नष्ट कय दैत छैक । एहि विश्व केँ माया सँ घेरायल जानिकय अहाँ ब्रह्म पद मे प्रवेश करू ॥११॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥
दिन आर राति, साँझ आ भोर, सर्दी आर बसन्त बेर-बेर अबैत-जाइत रहैत छैक । काल केर एहि क्रीडा संग जीवन नष्ट होइत रहैत छैक, मुदा इच्छा सभक अन्त कहियो नहि होइत छैक ॥१२॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः,
श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२.१॥
बारह गीत केर ई पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण केँ प्रदान कयल गेल ॥१२.१॥
हरिः हरः!!