स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
अथ सुन्दरकाण्ड
पहिल अध्याय
।द्रुतविलम्बित छन्दः।
धुतनगेऽम्बरगे परमोत्सवे, चकितभानुगणे जितमन्मथे।
जनकजाधिविनाशिमनोगतौ, प्रणतिरस्तु हनूमति मारुतौ॥
।चौपाइ।
जयजय राम नवल – घनश्याम । सकललोक – लोचन अभिराम ॥
मनमे तनिक ध्यान दृढ़ राखि । मारुतनन्दन उड़ला भाखि ॥
शतयोजन वारिधि विस्तार । लाँघब हम मन हर्ष अपार ॥
देखथु कपिगण जाइत गगन । शोभित जेहन प्रवहमे भगण ॥
वैदेही हम देखब आज । दोसर यहन आन की आज ॥
रघुनन्दन काँ वार्ता कहब । सत्वर घुरब अनत नहि रहब ॥
नामस्मरण अन्त एक बार । जनिकाँ भव – जलनिधि से पार ॥
प्रभुक मुद्रिका हमरा सङ्ग । होयत न हमर मनोरथ भङ्ग ॥
जायब लङ्का दनुज – समाज । प्रभुप्रताप साधब सब काज ॥
।सोरठा।
उड़ि चलला हनुमान, ध्यान राम-पद मे सतत ।
प्रबल प्रलय पवमान, रौद्र-मूर्ति लङ्काभिमुख ॥
।चौपाइ।
लङ्का जाइत छथि हनुमान । की बल की मति से के जान ॥
सुरसा काँ सुर सत्वर कहल । सर्प्प-जननि करु सुरहित टहल ॥
बहुत दिवस धरि मानब गून । जाउ शीघ्र घुरि आयब पून ॥
रोकब बाट कहब नहि मर्म्म । बूझब की करइत छथि कर्म्म ॥
कहल कयल से नभ पथ रोकि । चललहुँ कतय ततय देल टोकि ॥
हमरा आनन सत्वर आउ । विहित भक्ष्य अन्यत्र न जाउ ॥
।सवैया छन्द।
मारुत-सुत कहलनि शुनु माता, राम-काज कय आयब घुरि ।
सीता – विषय कहब श्रीप्रभुकाँ, अहँक देब प्रत्याशा पूरि ॥
सुरसा देवि होइ अछि अरसा, कल जोड़ैछी छोड़ू बाट ।
अभिनत मारुति कहल न मानल, नमस्कार कयल भेलहुँ आँट ॥
सुरसा कहल शून रे बाबू, नहि छोड़ब बिनु खयलैँ ।
एखनहुँ धरि जीवन-प्रत्याशा, हमरा मुहमे अयलैँ ॥
बहुत दिनासौँ हम भूखलि छी, बिनु आहारैँ मरबे ।
हाथ मुसरी बियरि मे दय, कड़े कड़े नहि करबे ॥
।षट्पद।
मारुत – नन्दन तखन सूक्ष्म – तन, निशिमे धय कहुँ ।
लङ्का कयल प्रवेश भ्रमित अतिगुप्त भय कहुँ ॥
सीता तकयित ततय दशानन – मन्दिर गेला ।
देखि विभव – विन्यास बहुत मन विस्मित भेला॥
देखल लङ्का सकल थल, नहि प्रदेश बाँकी रहल ।
देखलनि नहि सीता कतहु, स्मरण भेल लङ्किनि-कहल ॥
।दोबय छन्द।
अरुण अशोक देवद्रुम – सोदर, तरु-तति आनत फलसौँ ।
उत्तम मणि-सोपान वापिका, पूरित निम्मल जलसौँ ॥
कञ्चन महल कहल नहि जाइछ, चुम्बित जलधर-माला ।
मणिस्तम्भ – शतसौँ अतिशोभित, खग-मृग – परिवृत शाला ॥
।चौपाइ।
विस्मित – मन सन मारुत – पूत । देखयित जाथि रघूत्तम – दूत ॥
कनक विहङ्गम जतय अनेक । वृक्ष शिंशपा देखल एक ॥
अति रमणीय निविड़ तरु – छाह । मारुत – नन्दन ततय गेलाह ॥
तेहि तरु ऊपर बैसला जखन । सीता काँ देखल से तखन ॥
भूतल देवी ाबि कि गेलि । राक्षस-पुरी विकल – मन भेलि ॥
वेणी एक मलिन अति चोर । दीना दुर्ब्बलि मृदुल शरीर ॥
लङ्का-विषय यहनि के आन । सीता थिकि निश्चय अनुमान ॥
राम राम मुख करथि उचार । भूमि-लुठित मन दुःख अपार ॥
तहि तरु – मूल जानकी जानि । अपन भाग्यकाँ उत्तम मानि ॥
अति कृतार्थ भेलहुँ देखि आज । हम साधल रघुनायक – काज ॥
।दोहा।
अन्तःपुर बाहरक शुनि, कल कल शब्द महान ।
वृक्ष-खण्ड-संलीन-तन, कर विचार हनुमान ॥
।चौपाइ।
दशमुख वनिता – वृन्दक सङ्ग । आयल कज्जल – गिरि-वर रङ्ग ॥
किङ्किनि – नूपुर – शिञ्चित शूनि । दुष्ट निशाचर – आगम गूनि ॥
विश भुज लोचन दश गोट मुण्ड । सह सह सङ्ग राक्षसी – झुण्ड ॥
अति विस्मित मन कह हनुमान । देखल शुनइत छलहुँ जे कान ॥
रहला द्रम-दल दबकि नुकाय । अछि आगाँ कर्त्तव्य उपाय ॥
कर विचार रावण मन अपन । पूर्व्व रात्रि जे देखल सपन ॥
राम पठाओल वानर दूत । कामरूप बल बुद्धि बहूत ॥
टक टक ताकय तरु पर बैशि । बुझलक घाट बाट पुर पैशि ॥
कयल बहुत हम रामक दोष । एखनहु धरि हुनका नहि रोष ॥
कहिया मरण राम – कर हयत । माया – पाप – काय छुटि जयत ॥
एखनहु धरि नहि आबथि राम । कहिया होयत दिव्य सङ्ग्राम ॥
मनमे ज्ञान उपर अभिमान । चकमक भीतर आगि समान ॥
वचन-बाण तेहन अनुसरब । सीता-मन अति कलुषित करब ॥
स्वप्न सत्य तौँ कपि देखि लेत । रामचन्द्र काँ सभ कहि देत ॥
जौँ कपि होयता कहता जाय । लयोता सानुज राम बजाय ॥
ई मन गुनिकेँ सीता निकट । पहुँचल दशमुख दुम्मद विकट ॥
सीता – दशा कहल नहि जाय । आत्ममध्य जनु रहलि समाय ॥
।दोहा।
रावण सीता काँ कहल, सुमुखि सत्य वृत्तान्त ।
राम न अयोता काज किछ, मनमे करु सिद्धान्त ॥
।चौपाइ।
वैदेही परिहरु सन्ताप । उचित कयल नहि अहँकाँ बाप ॥
रामक हाथ देल की जानि । कानन-वास अकारण हानि ॥
हेम-हरिण देखयित भेल लोभ । लङ्का देखि त्यागु मन क्षोभ ॥
शिव शिव आब कि रामक आश । लङ्का छोट हाथ उनचास ॥
जौँ नहि निर्गुण रहितथि राम । तौँ बसितथि नृप-दशरथ – धाम ॥
राम बसथि वनचर – गण सङ्ग । हमहुँ शुनल छल कथा – प्रसङ्ग ॥
बहुत तकायोल लोक पठाय । नहि भेटला रहलाह नुकाय ॥
जौँ हुनकाँ अहँ मे किछु प्रीति । अबितथि लय जइतथि रण जीति ॥
पामर रामक त्यागू आश । विद्यमान लङ्केश्वर दास ॥
हरि आनल अहँकाँ कत दूरि । एको बेरि की तकलनि घूरि ॥
बड़ कपटी छथि ज्ञान घमण्ड । दैवो देलथिनि समुचित दण्ड ॥
सकल सुरासुर – नारि समाज । सभक स्वामिनि होयब आज ॥
सीता मन जनु करु किछु छोट । भाग्य अहाँक भेल बड़ गोट ॥
तृण – अन्तरित अधोमुखि रुष्ट । रावण – वचनक उत्तर पुष्ट ॥
जे शिर शिवकाँ अर्प्पण कयल । प्रबल पाप चरण तत धयल ॥
धिक धिक रावण तोहर ज्ञान । काल – निकट अनहित हित मान ॥
जनिक त्रास बनि भिक्षुक रूप । हरि हरि हरि लयला की चूप ॥
कुक्कुर जनु मख-घृत लय जाय । मरबह खल पाछाँ पछताय ॥
मानुष मानह श्रीरघुवीर । परिचय मन तन लगलय तीर ॥
अयोता सानुज प्रभु रघुनाथ । विचलत गर्व्व तोर दश – माथ ॥
बाणक तेज समुद्र सुखाय । सायक सेतु – उदधि बन्धबाय ॥
अयोता निश्चय होयत मारि । निश्चय तोहर रणमे हारि ॥
मरबह पुत्र – निकर – बल – सहित । आयल निकट तेहन दिन अहित ॥
।दोहा।
सीता – वचन कठोर शुनि, रावण लय तरुआरि ।
यहन कथा हमरा कहति, सद्यः हम देब मारि ॥
।चौपाइ।
मन्दोदरी कहल शुनु नाथ । अबला वध कि अपनैँ हाथ ॥
विदित वीर अपनैँ ई नारि । अपयश पाप देव जौँ मारि ॥
अबला ऊपर एतटा रोष । कड़रिक तरु पर शितुआ चोष ॥
कृपणा मलिना दुर्ब्बल देह । हिनका जीबहु मे सन्देह ॥
अन्न पानि कयलनि अछि त्याग । नहि करती पर-जन – अनुराग ॥
अहँकाँ कोन कमी प्राणेश । जीतल भुज-बल सकलो देश ॥
सुर गन्धर्व्व सकल जन नाग । कन्या लयलैँ मनता भाग ॥
कन्या – जन मद – चूर्णित – नयन । अपनहि सुखसौँ अउती शयन ॥
।दोहा।
रावण राक्षसि सौँ कहल, उत्कट त्रास देखाय ।
अनुकूला सीता करह, जे बल बुद्धि उपाय ॥
दूइ मासमे करति ई, जौँ हमरासौँ प्रेम ।
सकल राज्य – रानी हयति, हिनका सभ सुख क्षेम ॥
बहुत बुझौलय नहि बुझथि, बीति जाय दुइ मास ।
हम आज्ञा दय देल अछि, हिनकर करब विनाश ॥
।चौपाइ।
अन्तःपुर गेला दश – भाल । वनिता – परिवृत गर्व्व विशाल ॥
विकटादिक सीता तट जाय । भयभीता कर स्वाङ्ग बनाय ॥
व्यर्थ तोर तन यौवन आस । भेल न दशमुख सौँ सहवास ॥
केओ कह हिनक अङ्ग सभ काट । केओ कह जाह सँ शोणित चाट ॥
अपने हठ अपने सुख खाय । होयत की पाछाँ पछताय ॥
केओ तरुआरि तेज लय हाथ । काटि लिअ हम हिनकर माथ ॥
केओ दौड़य बड़ गोट मुह बाय । की विलम्ब हम जाइछि खाय ॥
त्रिजटा कहल करह अन्याय । सीता नहि जानह असहाय ॥
हिनकर निकट भ्रमहुँ जनु जाह । अपने अपन तन बरु खाह ॥
यहि खन हम देखल अछि सपन । होयत सत्य बुझल मन अपन ॥
।रूपमाला।
चढ़ल ऐरावतक ऊपर, राम लक्ष्मण सङ्ग ।
दग्ध लङ्कापुरी भय गेल, समर रावण भङ्ग ॥
राम-सेवा कर विभीषण, राज्य लङ्का पाय ।
जानकी ई राम – अङ्क – स्थिता भेली जाय ॥
।चौपाइ।
दशमुख नग्न सकल परिवार । तेल लगओलय भरल विकार ॥
गोबर डाबर मध्य नहाथि । खर पर चढ़ल याम्य दिश जाथि ॥
रावण मरता सहित समाज । प्राप्त विभीषण काँ भेल राज ॥
राम जानकी मिलि घर जयत । दुखमय लङ्का सत्वर हयत ॥
करत अनर्थ अखण्डित नोर । धन्य धन्य सीता हिय तोर ॥
करु करु धैरज कहब कि आन । मुठिएक धूरि न चान मलान ॥
।कवित्त घनाक्षरी।
।गीत।
त्रिजटा कहल शुनु जानकी नवीन कथा,
वानर-विशेष वर वाटिका उजारलक ॥
रक्षक प्रबल रण – दक्ष लक्ष लक्ष खेत,
मुइल मुर्च्छित कतो रावण पुकारलक ॥
“चन्द्र” भन यहन न देखल शुनल छल,
अक्षय – कुमार काँ पटकि झट मारलक ॥
कतहुँ न हारलक वीरता प्रचारलक,
रावण – पालित हाय लङ्कापुर जारलक ॥
स्वप्न कथा राक्षसि – गण शुनिकेँ,
त्यागि उपद्रव गेलि डराय ॥
मत-मातलि छलि जागलि थाकलि,
निन्द-विवश भेलि जहँ तहँ जाय ॥
सीता तखन विकलि मन – भीता,
दुःख – मूर्छिता रहित – उपाय ॥
कनयित कलपि कहथि की करु विधि,
प्रातहि राक्षसि जाइति खाय ॥
।गीत काफी।
सपन हम देखल अचिन्तित राति।
विद्रुम – रक्त – वदन तेजोमय, अद्भुत वानर जाति ॥
प्रभु – प्रेषित पाथोनिधि सन्तरि, लङ्का-परिचय पाबि ।
हम विधिहता शुनल शुभ वार्त्ता, इष्ट अनिष्ट कि भावि ॥
जे दिन लङ्का प्रलय होइछ नहि, से दिन पापिक भाग ।
ई अन्याय घोर लङ्कामे, पानिसौँ आगि न लाग ॥
सुरपति – सुतक पराभव – दायक, कोशल कौशल भूप ।
से शर से कर से रघुवर वर, कत बैसल छथि चूप ॥
।गीत।
से दिन कोना होयत मनोरथ पूर ।
रघुनन्दन – बल प्रलय पवन सम, अधम निशाचर तूर ॥
देवर – तीर जेहन प्रलयानल, रावणगण वन झूर ।
के हम थिकहुँ ककर हम कामिनि, परिचय पओता क्रूर ॥
सकल तमीचर तामस तम सम, श्रीरघुनन्दन सूर ।
हमर यहन गति दैव देखै छथि, नहि उपाय किछु फूर ॥
तीरक तेज समुद्र सुखायत, जल थल ऊड़त धूर ।
कोटि शनैश्चर सहित सङ्कटा, लङ्का घर घर घूर ॥
।गीत।
केहन विधि लिखल विपति – तति भाल ।
कुल पवित्र कुल-कामिनि हमरहि, कठिन विपति जंजाल ॥
रघुनन्दन पति देवर लक्ष्मण, जनि डर काँपय काल ।
चोर दशानन त्रास देखाबय, अनुचित कह वाचाल ॥
दनुज – वधू कह मारब काटब, चाटब शोणित लाल ।
यहि अवसर जौँ ओ प्रभु आबथि, देखथि सभटा हाल ॥
काल-दूत जनि हेम-मरिण छल, छल न बुझल ततकाल ।
कालहि सिंह-घरणि तट निर्भय, गरवित सरव शृगाल ॥
।गीत।
हमर विधि प्राण अपन भेल भार ।
की सुख भुजि छथि ओई देहमे, कतहु कि नहि आधार ॥
जौँ आबथि रघुनन्दन सानुज, लीला – सागर पार ।
गृद्धझुण्ड दशमुण्ड – मुण्ड पर कर खर नखर प्रहार ॥
ककरा कहब केओ नहि मानुष, नहि कारुणिक चिन्हार ।
रक्षा करथि अरक्षित जनकाँ, केवल धर्म्म उदार ॥
कठिन विषय विष तिष नहि भेटय, खड़ग न लग तिष-धार ।
शिव शिव जीव – घात वर मानल, धिक जीवन-संसार ॥
रामचन्द्र – चन्द्रिका थिकहुँ हम, सपन न मन व्यभिचार ।
विधि बुधि विरहिणि व्याकुलि एकसरि, चित चिन्ता विस्तार ॥
।सबैया मुदिरा।
हा रघुनाथ अनाथ जकाँ, दशकण्ठ-पुरी हम आइलि छी ।
सिंहक त्रास महावनमे हरिणीक समान डराइलि छी ॥
चन्द्र चकोरि अहैँक सदा, हम शोक-समुद्र समाइलि छी ।
देवर-दोष कहू हम की, अपना अपराध सँ काइलि छी ॥
।दोहा।
जनक जनक जननी अवनि, रघुनन्दन प्राणेश ।
देवर लक्ष्मण हमर छथि, नैहर मिथिला देश ॥
।इति।
हरिः हरः!!