स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
किष्किन्धाकाण्ड – सातम् अध्याय
चिन्ता – दुर्ब्बल देह, सीतान्वेषण मे भ्रमित।
छूटल निज निज गेह, वन-तरु-शाखा-स्थित सकल॥
अङ्गद कहल अपन मन – ताप। मरि गेला बालिक सन बाप॥
पिती करै छथि निन्दित काज। माइक अनुचित कहइत लाज॥
हुनका नहि पुन मारथि राम। दूइ रीति अछि एकहि गाम॥
कामी मलिन चलथि की नीति। हमरा विषय कतय हो प्रीति॥
गह्वर घुमयित गत भेल मास। रामक रक्षित हम निस्त्रास॥
यहि जीवन सौँ मरणे नीक। अयश श्रवण नित बाप पितीक॥
कनयित तनिकाँ देल सन्तोष। एतहि रहु सभ जन निर्दोष॥
से शुनि कहल वीर हनुमान। एहन न करिय बालि-सुत ज्ञान॥
अहँ कपीश केँ प्राण समान। अङ्गद जनु करु संशय आन॥
लक्ष्मण सौँ अहँ मे अतिप्रीति। राखथि रघुवर धर्म्म सुनीति॥
मानुष मानल अहँ मन राम। देखल पराक्रम अपनहि ठाम॥
नारायण मानुष अवतार। छल – बल हरता अवनी – भार॥
सत्य कहैछी निश्चय मानि। सीता विष्णुक माया जानि॥
लक्ष्मण थिकथि शेष – अवतार। नर – लीला कर लोकाचार॥
हमरहु सबहि लेल अवतार। थिकहुँ देवता चरित उदार॥
अङ्गद काँ कयलनि सन्तुष्ट। करु संहार दनुज जे दुष्ट॥
क्रम क्रम जाय महोदधि – तीर। से देखि ककरो मन नहि थीर॥
कतहु देखि पड़ नहि किछु लक्ष। कि करब विधि जलनिधिक समक्ष॥
गुहा भ्रमित बीतल ई मास। अतिशय अछि सुग्रीवक त्रास॥
देखितहुँ कतहु दशानन नयन। अवश करबितहुँ अवनी – शयन॥
सीताकाँ देखितहुँ कहुँ आँखि। कहितहुँ थिति रघुपति संभाखि॥
बिनु देखलें जायब घर घूरि। कपि-पति देता चरणहि चूरि॥
ई कहि कहि कुश घास ओछाय। वानर सभ बैशल पछताय॥
तखन महेन्द्राचलक गुहा सौँ शञ्च शञ्च बहरायल गृद्ध।
पर्व्वत सन से सभ वानर काँ कहलनि मांसप्रिय अतिवृद्ध॥
दिन दिन एक एक काँ खायब से शुनि वानर सकल डराय।
कहल जटायु धन्य खग छल छथि पाओल मुक्ति गृद्ध-तन पाय॥
शुनि सम्पाति जटायुक चर्च्चा कर्णामृत सन मन मन मानि।
कहल कहू निर्भय भय कपि-कुल करब न ककरो जीवन-हानि॥
जाय समीप कहल अङ्गद सभ शुनु हम कहइतछी वृत्तान्त।
पृथिवी-भार – हरण कारण विभु अवतरला महि लक्ष्मीकान्त॥
।चौपाइ।
सीता – सह सानुज रघुनाथ। अयला वन पितृ – आज्ञा लाथ॥
रावण छलसौँ सीता – हरण। कयलक ध्रुव तनिकर लग मरण॥
शुनितहिँ वैदेहीक विलाप। कयल जटायु गतायु प्रताप॥
युद्ध विरुद्ध कयल से घोर। कहि कहि दुष्ट दशानन चोर॥
रावण तनिकाँ मारल बाण। मूर्छित खसला तन धर प्राण॥
मोक्ष जटायुक अन्त चरित्र। रामचन्द्र काँ कपिपति मित्र॥
बालि – निधन सुग्रीवक राज। अयलहुँ सभहुँ तनिक हित काज॥
सीता तकइत तकइत आज। अयलहुँ एहि गह्वरक समाज॥
बहुत विलम्ब बितल एक मास। सुग्रीवक हो अतिशय त्रास॥
लवणोदधिक आबिकेँ तीर। जायत प्राण कि रहत शरीर॥
वृद्ध गृद्ध अँह काँ दुर सूझ। हमरा सबहिक आधि के बूझ॥
जनक-नन्दिनी छथि जे गाम। कहू दयामय मन दय ठाम॥
अङ्गद – वचन शुनल से गृद्ध। कहलनि भ्राता छल छथि वृद्ध॥
कति सहस्र बीतल अछि वर्ष। वार्त्ता शुनि मन बाढ़ल हर्ष॥
कहब जतय छथि वचन सहाय। जलक समीप दिअओ पहुचाय॥
पहुचाओल समुद्रक कात। देल तिलाञ्जलि कहि सहजात॥
पुनि पहुचाओल पहिलहि ठाम। कहल तखन किछु समय विराम॥
गिरि त्रिकूट पर लङ्का नाम। पुरी अशङ्क दशानन – धाम॥
छथि वैदेही विपिन अशोक। कोटवार अछि राक्षसि लोक॥
योजन शत कत जलचर पानि। से समुद्र जे जयता फानि॥
से सीता काँ देखथि जाय। सत्य कथा हम देल जनाय॥
रावण – वध करबा हम दक्ष। कि करब सम्प्रति नहि गति पक्ष॥
गृद्ध लोककाँ सूझय दूर। करु उपाय उत्तम जे फूर॥
।सवैया छन्द।
शतयोजन जलनिधि सुख फानथि, लङ्कापुरी अशङ्कित जाय।
वैदेहीक कुशल सभ जानथि, समाचार सन्तोष शुनाय॥
फानथि पुन निर्भयसौँ जलनिधि, छथि के यहि मे करू विचार।
होयत कार्य्य-सिद्धि निश्चय अछि, श्री नारायण-कृपा अपार॥
।इति।
हरिः हरः!!