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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः अरण्यकाण्ड दसम् अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

अरण्यकाण्ड – दसम् अध्याय

।चौपाइ।

ओ वन छोड़ि वनान्तर प्राप्त। सीता-विरह – अग्नि मन व्याप्त॥
शबरी देखल प्रभुक स्वरूप। आइलि आनन्दमयि चुप चूप॥
मन एकाग्र सनक सन केश। दिनकर – कान्ति तपस्विनि – वेश॥
राम-चरण पर धयलनि माथ। कह जय जय सानुज रघुनाथ॥
पुलक शरीर नयन बह नोर। कह जय जय जय श्यामल गोर॥
निकटहि कुटि देखक थिक ओह। नाथ परशमणि हम छी लोह॥
हम कुवस्तु जन जन विख्यात। प्रभु रवि – चन्द्र – किरण – संघात॥
शबरी – भक्ति – विवश श्रीराम। हर्षित गेला तनिकर धाम॥
भल भल जल लय पयर धोआब। से जल लय लय माथ चढ़ाब॥
कन्द मूल फल भल भल आन। अतिशय प्रेम – मगन भगवान॥
खाथि कहथि अमृतक अभिमान। हरल यहन रसना रस जान॥

।गीत दोबय छन्द।

कि कहब करणी, हे प्रभु, हम शबरक घरणी।
चारू पन हम वनहि गमाओल, विषय – व्याध हम जनु हरिणी॥
ई संसार-समुद्र तरब हम, पायोल प्रभुक चरण तरणी॥
माया – मानुष भूप – शिरोमणि, श्याम गौर छवि की वरणी॥
निर्ग्गुण ब्रह्म सगुण बनि अयलहुँ, मन आनन्द अमर धरणी॥
योग-अनल जरि तत्पद पायोब, जतय न फेरि जनन मरणी॥
जय जय रामचन्द्र जय लक्ष्मण, मायापन्नगि हम भरणी॥

।चौपाइ।

गुरु महर्षि छल छथि यहि ठाम। से सब गेला ब्रह्मक धाम॥
चलयित तनिकाँ कयल प्रणाम। ओ कहलनि थिर रह यहि ठाम॥
राक्षस लोक क मारण काम। अयोता रघुनन्दन यहिठाम॥
सम्प्रति चित्रकूट गिरि वास। भक्तिमती तोर पूरत आस॥
यावत आबथि विभु रघुवीर। तावत राखह अपन शरीर॥
तनिकर दर्शन जे छन प्राप्त। जयबह तत्पद देह समाप्त॥
जेहन कहल छल सुगुरु महान। तेहन कयल छल अपनैँक ध्यान॥
पुरल मनोरथ देखल आँखि। हम कृत्यकृत्य वृथा की भाखि॥
नहि दासीत्व विषय अधिकार। तदपि कयल प्रभु हमर उधार॥
यावत योग – अनल हम जरब। प्रभु रहु निकट विकट तम तरब॥

।सोरठा।

प्रभु पम्पासर जाउ, किष्किन्धा सुग्रीव छथि।
सीता – वार्ता पाउ, करु चरित्र माया-रचित॥
प्रभुपद – कमल निहारि, महाभक्ति सम्प्राप्त से।
योग – अग्नि तन जारि, भक्तिमती कयलनि तथा॥

।इति।

हरिः हरः!!

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