कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः अरण्यकाण्ड आरम्भ

मिथिलाभाषा रामायण – अरण्यकाण्ड

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण केर अरण्यकाण्ड आरम्भ

अथ अरण्यकाण्ड

।शिखरिणी छन्दः।

भ्रमन्तौ कान्तारे क्षयितदनुजौ त्यक्तनगरौ
किशोरौ सद्वीरौ जनकतनया-रक्षणपरौ।
जटावन्तौ दान्तौ करकमल-चापाशुगधरौ
सदापायास्तान्नो दशरथतनुजौ नरवरो॥१॥

।चौपाइ।

एकदिन रहि प्रभु पुन चललाह। अरिआतय मुनि सङ्ग चललाह॥
राम कहल अपनैँ घुरि जाउ। कृपायुक्त वन-बाट देखाउ॥
शुनि मुनि कहलनि होमहि बूझ। अपनैँ काँ प्रभु कतय न सूझ॥
हमर शिष्य लौकिक व्यवहार। बाट देखौता उचित विचार॥
चलला एक कोश प्रभु भूमि। अत्रिशिष्यसौँ कहलनि घूमि॥
देखि पड़ै अछि नदी अथाहि। निर्ज्जन भेट नाब कि ताहि॥
शिष्य कहल प्रभु अछि भल नाव। देखब खेबि लबै छिय आव॥
तिनु जनकाँ लेल नाव चढ़ाय। क्षणमे देलनि पार लगाय॥
अपने लोक कयल बड़ काज। गेल जाय मुनि अत्रि – समाज॥
विपिन भयङ्कर सह सह साप। सिंह बाघ वन-जन्तु कलाप॥
झिल्ली करय घोर झंकार। राक्षस विकट विकट संचार॥
शुनु लक्ष्मण कहलनि रघुवीर। यतनहि चलिय सज्ज धनुतीर॥

।दोहा।

आगाँ हम पाछाँ अहाँ, सीता माझहि ठाम।
ब्रह्म जीव माया जेहनि, चलु दण्डक वन नाम॥

।चौपाइ।

सभ दिश लक्ष्मण तकितहि रहब। आबय दुष्ट शीघ्र से कहब॥
कहइत योजन डेढ़ प्रमान। जाय देखल एक दिव्य स्थान॥
शोभासीम्र अनूप तड़ाग। सुन्दर वारि अमृत सम लाग॥
उत्पल कमल कुमुद कह्लार। जल-पक्षी कर विविध विहार॥
जाय समीप पीबि किछु पानि। बैसला तरुतर छाया जानि॥
अबइत देखल एक उतपात। वदन भयङ्कर भयकर गात॥
गर्ज प्रचण्ड मेघ समतूल। कत मानुष गाँथल छल शूल॥
महिष बाघ गज शूकर खाय। चटचट हाड़ समेत चिबाय॥
शुनु लक्ष्मण कहलनि रघुवीर। धनु कोदण्ड हाथ करु तीर॥
आबि गेल राक्षस बड़ गोट। दौड़ल अबइत अछि बड़ मोट॥
जानकि जनु मन मानब त्रास। हिनकर एहिखन करब विनाश॥
राम बाण धय अचल समान। ठाढ़ भेला ओकरे दिश ध्यान॥
ओ प्रभु निकट विकट हँसलाह। जयबह कतय आब फसलाह॥
मुनिसन वेष धनुष शर हाथ। अति निर्भय मन करह न लाथ॥
स्त्री – सहाय छह युगल कुमार। हे सुन्दर के देल विचार॥
अयला बन नहि बचतौ प्राण। हमरा मुह तेहि ग्रास प्रमाण॥
कह कह बनमे छौ कि काज। ई दण्डक – वन दनुजक राज॥
राम कहल शुन राक्षस घोर। कतय पड़यबह पकड़ल चोर॥
हमर नाम कहइछ जन राम। पिता – वचन सौँ छोड़ल धाम॥
लक्ष्मण भ्राता हमर कनिष्ठ। त्रिभुवन – विजयी वीर बलिष्ठ॥
प्राण – वल्लभा सीता नाम। काज शुनह अयलहुँ एहिठाम॥
तोर सन जन रण – शिक्षा देब। मुनिक मण्डली मे यश लेब॥
राम – वचन शुनि हँसल से घोर। देखब राम केहन बल तोर॥
शूल हाथ दौड़ल मुह बाय। देखितहिं सभकाँ जयबहु खाय॥
जनयित नहि छह नाम विराध। मृग-मुनि-जनक वनक हम व्याध॥
कत कत मुनिकाँ गेलहुँ खाय। बाँचल से जे गेल पड़ाय॥
त्यागि अस्त्र दुनु बन्धु पड़ाह। सीताकाँ हमरा दय जाह॥
जौँ जिबइक इच्छा संसार। सत्वर करह यहन व्यवहार॥
बल लेब जानकि दौड़ल डाँटि। शरसौँ राम तनिक भुज काटि॥
हँसइत मन नहि कोपक लेश। श्रीरघुनन्दन प्रबल नरेश॥
मुह बओलैँ दौड़ल खल फेरि। पयर काटि लेलथिनि तहि बेरि॥
ससरल आबय करय प्रताप। मुह बओलैँ जनु अगर साप॥
अर्द्ध – चन्द्र – बाणैँ तनि माँथ। चटपट काटल श्रीरघुनाथ॥
पृथिवी – तल ककरहु नहि टेर। से खल खसल रुधिर भेल ढेर॥
प्रभु-महिमा किछु कहल न जाय। सीता प्रभु – तन गेलि लपटाय॥
दिवि दुन्दुभि निर्भीति बजाव। अप्सरादि नाचथि कय भाव॥
गाबथि किन्नर – गण गन्धर्व्व। धन्य धन्य प्रभुकाँ कह सर्व्व॥

।दोहा।

भेल विराधक देह सौँ, दिव्य पुरुष उत्पन्न।
दिव्य वसन भूषण कनक, रवि-रुचि गुण-सम्पन्न॥

।चौपाइ।

बद्धाञ्जलि रामक लग ठाढ़। नाथ छोड़ाओल सङ्कट गाढ़॥
बेरि बेरि से करथि प्रणाम। कहि सानुज सीतापति राम॥
हम विद्याधर विमल – प्रकाश। देखल – नयन भरि पूरल आश॥
दुर्व्वासा मुनि देल छल शाप। क्रोध – विवश थापल छल पाप॥
अपनैँक चरण मध्य स्मृति रहय। रसना रामनाम नित कहय॥
प्रभु – गुण-कीर्तन शुन नित कान। कर सेवा कर कर्म्म न आन॥
प्रभु – पद-पङ्कज पर पड़ माँथ। करुणागार देव रघुनाथ॥
देव – लोक माया नहि व्याप। से प्रभु अपनेक मुख्य प्रताप॥
रघुनन्दन कह सुखसौँ जाउ। अँह माया मे जनु लपटाउ॥
हमर दर्शनैँ अँह काँ मुक्ति। दुल्लभ तेहन हमर दृढ़ भक्ति॥
शीघ्र जाउ आज्ञा शिर मानि। भक्ति भाव सम्पन्नैँ जानि॥

।दोहा।

रामचन्द्र – करसौँ मरण, छूटल मुनि-कृत शाप।
चरित मुक्ति-वर-प्रद कहथि, सकल भुवन यश व्याप॥

।इति।

क्रमशः – अध्याय २

हरिः हरः!!