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समाज मे बदलाव सँ पहिने स्वयं मे बदलाव आवश्यक

स्वयंसंकल्प आ स्वयंसेवा
 
यदि हम चाहि टा लेबय, परिवर्तन आबिये टा जेतय!
यदि दुविधे फँसल रहबय, समय ब्यर्थे टा बिति जेतय!!
 
स्वयंसंकल्प आ स्वयंसेवा सँ समाज बदलैत छैक। हम स्वयं कि सब सिद्धान्त बनेने छी, हमरा स्वयं मे समाज प्रति सेवाक केहेन भावना अछि, एहि तरहें परिवर्तन स्वयं सँ समाज व समुदाय धरि पहुँचैत छैक। हम-अहाँ दोसर केँ परिवर्तन तखनहि कय सकैत छी जखन स्वयं केँ बदलबाक आ सुधारबाक कुब्बत राखब। कियो केकरो जबरदस्ती कदापि नहि बदलि सकैत छैक। हँ, समाज मे जखन सब एक भ’ जाइत छय आ तखन कियो समाज सँ बाहर डेग उठबय छय त समाज ओकरा असगर कय देल करैत छैक आ से विवेकी मनुष्य कहियो नहि चाहत जे हम समाज सँ बाहर जाय।
 
एखन दुरुहकाल चलि रहल छैक। राजनीति के आधार जाति-पाँति आ धर्म पर हेबाक कारण आपस मे दूरी बढ़ि रहल छैक। समाज बँटल जा रहल अछि। एक-दोसर सँ जे सहयोग आ प्रेम-भाइचारा लोक निभबैत छल से एहि खतरनाक राजनीति के चलते छहोंछित अबस्था मे पहुँचि गेल अछि। एहेन दुरावस्था मे सेहो सामाजिक सद्भाव व समरस समाज के निर्माण लेल मानव समाज केँ एकजुट भ’ ई विचार करय पड़त जे आखिर एहि आन्तरिक विभाजनक लाभ के उठा रहल अछि आ हमरा सभक अबस्था दिन-ब-दिन दयनीय केना-केना भ’ रहल अछि।
 
कनिकाल लेल हम सब सोचि लेल करैत छी – “जाय दियौक, हमरा कोन, हम त अपन खुट्टा सँ ओहिना उपड़िकय आब नव आशियाना (परदेशक फ्लैट वला जिनगी) मे जिबय लेल बाध्य भेल छी। हम कि करय जाउ समाज मे फेर?” लेकिन ई पलायनवादी सोच भेलय। मनुष्य सामाजिक प्राणी होइत छैक आ समाज बिना जीवन मुश्किल मात्र नहि असम्भव सेहो छैक। तेँ, सजग होइ आ सजगताक प्रसार करी। मानव छी आ मानवता केँ सर्वोपरि धर्म बुझि जीवन जिबय के कोशिश मे लागल रहू। कि पता! कखन कोन प्राकृतिक आपदा आओत कोरोना महामारी जेकाँ! कि पता! कखन विश्वयुद्ध आ जनयुद्ध के शिकार होयब हम-अहाँ। तेँ, निराशाक तेहेन शिकार भेने बिना केवल अपन सार्थक सोच, सिद्धान्त, संकल्प संग स्वयंसेवा करैत बढ़ैत रहू।
 
हरिः हरः!!

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