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रामचरितमानस मोतीः वन मे राम-भरतकेँ वशिष्ठजी द्वारा सम्बोधन

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री वशिष्ठजीक सम्बोधन

१. भरतजी गुरुक चरणकमल मे प्रणाम कय आज्ञा पाबि बैसि रहलाह। ताहि समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि समस्त सभासद सेहो ओतहि जुटि गेलाह। श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी समयोचित वचन बजलाह –

“हे सभासद लोकनि! हे सुजान भरत! सुनू। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्री रामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान छथि। ओ सत्य प्रतिज्ञ छथि आर वेदक मर्यादाक रक्षक छथि। श्री रामजीक अवतारे संसारक कल्याण लेल भेलनि अछि। ओ गुरु, पिता आ माताक वचनक अनुसार चलयवला छथि। दुष्ट केर दलक नाश करयवला आर देवता लोकनिक हितकारी छथि।

नीति, प्रेम, परमार्थ आर स्वार्थ केँ श्री रामजीक समान यथार्थ (तत्त्व सँ) कियो नहि जनैत अछि। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सब कर्म और काल, शेषजी आर (पृथ्वी एवं पाताल केर अन्यान्य) राजा आदि जतय धरि प्रभुता अछि आर योग केर सिद्धि सब अछि, जे वेद आ शास्त्र मे गायल गेल अछि, हृदय मे नीक जेकाँ विचारिकय देखब त ई स्पष्ट देखाय देत जे श्री रामजीक आज्ञा हिनका सभक माथ पर छन्हि, यानि श्री रामजी टा सभक एक मात्र महान महेश्वर छथि।

अतएव श्री रामजीक आज्ञा आर रुख राखइये मे हमरा सभक हित होयत। एहि तत्त्व आर रहस्य केँ बुझिकय आब अपने बुद्धिमान समाज मे सभक जे सम्मत हो, वैह मिलिजुलि करय जाउ। श्री रामजीक राज्याभिषेक सभक लेल सुखदायक अछि। मंगल आर आनन्दक मूल यैह एक गोट मार्ग अछि। आब श्री रघुनाथजी अयोध्या केना चलता? विचारिकय कहू आ वैह उपाय कयल जाय।”

२. मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजीक नीति, परमार्थ आर स्वार्थ (लौकिक हित) मे सानल वचन सब कियो आदरपूर्वक सुनलनि। मुदा किनको कोनो उत्तर नहि अबैत छन्हि, सब कियो भोला (विचार शक्ति सँ रहित) भ’ गेलाह। तखन भरतजी सिर नमबैत हाथ जोड़लनि आ कहलनि –

“सूर्यवंश मे एक सँ एक पैघ बहुतो रास राजा भेलाह अछि। सभक जन्म केर कारण पिता-माता होइत छथि आर शुभ-अशुभ कर्मक विधाता दैत छथिन। अपनेक (गुरुक) आशीष टा एहेन अछि जे दुःख आदिक दमन कय केँ समस्त कल्याण केँ साजि दैत अछि से पूरा संसार जनैत अछि। हे स्वामी! अपनहि छी जे विधाताक गति (विधान) केँ सेहो रोकि देलहुँ। अपने जे टेक टेकि देलहुँ (जे निश्चय कय देलहुँ) ओकरा के टालि सकैत अछि? आब अपने हमरा सँ उपाय पुछैत छी, ई सब हमर अभाग्य थिक।”

३. भरतजीक प्रेममय वचन केँ सुनिकय गुरुजीक हृदय मे प्रेम उमड़ि पड़लनि। ओ बजलाह –

“हे तात! बात सत्य अछि, मुदा अछि रामजीक कृपे टा सँ। राम विमुख केँ त सपनहुँ मे सिद्धि नहि भेटैत अछि। हे तात! हम एकटा बात कहय मे सकुचाइत छी। बुद्धिमान लोक सर्वस्व जाइत देखिकय (आधाक रक्षा लेल) आधा छोड़ि देल करैत छथि। अतः अहाँ दुनू भाइ (भरत-शत्रुघ्न) वन केँ जाउ आर लक्ष्मण, सीता आर श्री रामचन्द्र केँ राज्य लौटा देल जाइन्ह।”

४. ई सुन्दर वचन सुनिकय दुनू भाइ हर्षित भ’ गेलाह। हुनक समस्त अंग परमानन्द सँ परिपूर्ण भऽ गेलनि। मोन प्रसन्न भ’ गेलनि। शरीर मे तेज सुशोभित भ’ गेलनि। मानू राजा दशरथजी उठल होइथ आ श्री रामचन्द्रजी राजा भ’ गेल होइथ! आरो लोक सब केँ त एहि मे लाभ बेसी आ हानि कम प्रतीत भेलनि, मुदा रानी सब केँ दुःख-सुख बराबरे रहलनि, राम-लक्ष्मण वन मे रहता या भरत-शत्रुघ्न, दुइ पुत्रक वियोग त रहबे करतनि, ई बुझि ओ सब कानय लगलीह।

५. भरतजी कहय लगलाह – मुनि जे कहलनि, से कयला सँ जगत भरिक जीव केँ ओकरा सभक इच्छित वस्तु देबाक फल भेटत। चौदह वर्षक अवधि मात्र नहि, हम त जीवन भरि वन मे वास करब। हमरा लेल त एहि सँ बढिकय आर कोनो सुखो नहि अछि। श्री रामचन्द्रजी आर सीताजी सभक हृदयक बात जाननिहार छथि आर अपने (गुरुजी) सर्वज्ञ तथा सुजान थिकहुँ। जँ अपने ई सत्य कहि रहल छी त हे नाथ! अपन वचनक प्रमाण दिअ, ताहि मुताबिक व्यवस्था करू।

६. भरतजीक वचन सुनिकय आर हुनकर प्रेम देखिकय समस्त सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह भ’ गेलाह, किनको अपन देहक सुधि नहि रहलनि।

७. भरतजीक महान महिमा समुद्र थिक, मुनिक बुद्धि ओकर किनार पर ठाढ़ अबला स्त्रीक समान अछि। ओ (ओहि समुद्रक) पार जाय चाहैत अछि। एकरा लेल ओ हृदय मे उपाय सेहो तकलक! मुदा ओकरा पार करबाक साधन नाव, जहाय या बेड़ा किछुओ नहि भेटलैक।

८. भरतजीक बड़ाई आर के करत? तलैयाक सीप (खुरचैन) मे कहुँ समुद्र समा सकैत अछि? मुनि वशिष्ठजीक अन्तरात्मा केँ भरतजी बहुत नीक लगलाह आर ओ समाज सहित श्री रामजी लग अयलाह। प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रणाम कय उत्तम आसन देलखिन। सब कियो मुनिक आज्ञा सुनिकय बैसि रहलाह।

९. श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर अनुसार विचार कय केँ वचन बजलाह –

“हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम! सुनू – अहाँ सभक हृदयक भीतर बसैत छी आर सभक नीक-बेजा भाव केँ जनैत छी, जाहि मे पुरवासी लोकनिक, माता लोकनिक आर भरत केर हित हो, वैह उपाय बताउ। आर्त (दुःखी) लोक कहियो विचारिकय नहि कहैत छथि। जुआरी केँ अपनहि टा दाँव सूझैत छैक।”

१०. मुनिक वचन सुनिकय श्री रघुनाथजी कहय लगलाह –

“हे नाथ! उपाय त अपनहि के हाथ मे अछि। अपनहिक रुखि राखय मे आ अहींक आज्ञा केँ सत्य कहिकय प्रसन्नतापूर्वक पाल करय मे सभक हित छैक। पहिने त हमरा जे आज्ञा हो, हम ओहि शिक्षा केँ माथ पर चढ़ाकय करी। फेर हे गोसाईं! अपने जिनका जेना कहब ओ सब तरहे सँ सेवा मे लागि जेता, आज्ञा पालन करता।”

११. मुनि वशिष्ठजी कहय लगलाह –

“हे राम! अहाँ सच कहलहुँ, मुदा भरतक प्रेम हमर विचार केँ नहि रहय देलक। ताहि लेल हम बेर-बेर कहैत छी, हमर बुद्धि भरत केर भक्तिक वश भ’ गेल अछि। हमरा समझ मे त भरतक रुचि राखिकय जे किछु कयल जायत, शिवजी साक्षी छथि, वैह सब टा शुभ होयत।”

हरिः हरः!!

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