स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
वनवासी द्वारा भरतजीक मंडली केर सत्कार, कैकेइ केर पश्चाताप
१. भरि पोखरि कमल फुलायल अछि। जलपक्षी सब कूजि रहल अछि। भमरा सब गुंजार कय रहल अछि। रंग-बिरंगक चिड़ैयाँ आ जंगली जानवर सब वैररहित भ’ विहार कय रहल अछि।
२. कोल, किरात आर भील आदि वन मे रहयवला लोक सब पवित्र, सुन्दर आ अमृत समान स्वादिष्ट मधु सुन्दर-सुन्दर दोना मे भरि-भरिकय, कन्द, मूल, फल आ अंकुर आदि सजाकय अयोध्यावासी सब केँ विनयपूर्वक प्रणाम करैत ओहि चीज सभक अलग-अलग स्वाद, प्रकार, गुण आ नाम बखानि-बखानिकय आग्रह करैत खाय लेल दैत छथि।
३. लेनिहार लोक सब एहि सभक खूब मूल्य सेहो दियए चाहैत छथि मुदा ओ सब किछु नहि लैत छथि आर मूल्य घुराकय श्री रामजीक दोहाइ दैत छथि। प्रेम मे मग्न भेल ओ कोमल वाणी सँ कहैत छथि जे साधु समाज दोसरक प्रेम चिन्हि ओकर सम्मान करैत छथि अर्थात अहाँ सब साधु थिकहुँ, अहाँ सब हमरा लोकनिक प्रेम केँ देखू, दाम दयकय या वस्तु घुराकय हमरा सभक प्रेमक निरादर जुनि करू।
४. अहाँ सब त पुण्यात्मा छी, हम नीच निषाद छी। श्री रामजीक कृपा सेँ मात्र हमरा लोकनि केँ अपने सभक दर्शन भेटल अछि। हमरा लोकनि लेल अपने सभक दर्शन बहुत दुर्लभ अछि, जेना मरुभूमि लेल गंगाजीक धारा दुर्लभ छैक। देखू! कृपालु श्री रामचन्द्रजी निषाद सबपर केहेन कृपा कयलनि अछि। जेना राजा छथि तहिना हुनकर परिवार आ प्रजा केँ सेहो हेबाक चाही। हृदय मे एना बुझि संकोच छोड़िकय तथा हमरा सभक प्रेम देखिकय कृपा करू आ हमरा सब केँ कृतार्थ करबाक लेल मात्र ई फल, तृण, अंकुर – जे किछु अछि से ग्रहण करू। अपने सब प्रिय पाहुन लोकनि वन मे आयल छी। अपनेक सेवा करबाक योग्य हमरा सभक भाग्य नहि अछि। हे स्वामी! हम सब अहाँ लोकनि केँ कि देब? भील केर मित्रता त बस लकड़ी आ पत्ते धरि सीमित अछि। हमरा सभक त यैह बड भारी सेवा अछि जे हम सब अहाँक कपड़ा आ बर्तन नहि चोरा लैत छी। हम सब जड़ जीव छी, जीव सब पर हिन्सा करयवला, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि आ कुजाति छी। हमरा सब लेल दिन-राति पापे करैत बितैत अछि। तैयो नहि त डाँर्ह पर कपड़ा अछि आ न पेटे भरैत अछि। हमरा सबकेँ सपनहुँ मे कहियो धर्मबुद्धि केहेन? ई सब त श्री रघुनाथजीक दर्शनक प्रभाव थिक। जहिया सँ प्रभुक चरण कमल देखलहुँ, तहिया सँ हमरा सभक दुःसह दुःख आर दोष मेटा गेल अछि।
५. वनवासी लोकनिक वचन सुनिकय अयोध्याक लोक प्रेम मे भरि गेलाह आर हुनका सभक भाग्यक सराहना करय लगलाह।
छन्द :
लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥
सब कियो हुनका सभक भाग्यक सराहना करय लगलाह आ प्रेमक वचन सुनबय लगलाह। हुनका लोकनिक बजबाक आ भेटबाक ढंग तथा श्री सीता-रामजीक चरण मे हुनक प्रेम देखिकय सब कियो सुख पाबि रहल छथि। ओहि कोल-भील सभक वाणी सुनिकय सब नर-नारी अपन प्रेम केर निरादर करैत छथि, यानि ओकरा धिक्कारैत छथि। तुलसीदासजी कहैत छथि जे ई सबटा रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजीक कृपा थिक जे लोहा नाउ केँ अपना उपर राखिकय पानि मे हेलि गेल।
६. सब कियो दिनानुदिन परम आनन्दित होइत वन मे चारू दिश घुमैत-फिरैत छथि। जेना पहिल बरखा के पानि सँ बेंग आ मयूर मोटा जाइत अछि, प्रसन्न भ’कय नाचैत-फाँगैत अछि। अयोध्यापुरीक पुरुष आर स्त्री सब प्रेम मे अत्यन्त मग्न भ’ रहल छथि। हुनका सभक दिन पलहि भरि मे बिति जाइत छन्हि।
७. जतेक सासु छलीह, हुनका सब केँ सीताजी वेष बदलिकय सब सासुक आदरपूर्वक एक्के समान सेवा करैत छथि। श्री रामचन्द्रजीक सिवा एहि भेद केँ आर कियो नहि जनलक। सब माया (पराशक्ति महामाया) श्री सीताजीक माया मे मात्र समाहित छथि। सीताजी सासु लोकनि केँ सेवा सँ वश मे कय लेलीह। ओ सब सुख पाबिकय सीख आ आशीर्वाद देलीह।
८. सीताजी समेत दुनू भाइ श्री राम-लक्ष्मण केर सरल स्वभाव देखिकय कुटिल रानी कैकेइ भरि पेट पछतेलीह। ओ पृथ्वी तथा यमराज सँ याचना करैत छथि मुदा धरती फाटिकय ओहि मे समा जेबाक लेल रास्ता नहि दैत छथि आ विधाता मृत्यु नहि दैत छथि।
९. लोक आ वेद मे प्रसिद्ध अछि आर कवि (ज्ञानी) सेहो कहैत छथि जे श्री रामजी सँ विमुख छथि, हुनका नरकहु मे कतहु ठौर नहि भेटैत छन्हि।
१०. सभक मोन मे ई सन्देह भ’ रहल छन्हि जे हे विधाता! श्री रामचन्द्रजीक अयोध्या गेनाय हेतनि या नहि। भरतजी केँ नहि त राति केँ नींद अबैत छन्हि, नहिये दिन मे भूखे लगैत छन्हि। ओ पवित्र सोच मे एना विकल छथि जेना नीचाँक पाँक (थाल) मे गरल माछ केँ जल केर कमी सँ व्याकुलता होइत छैक।
११. भरतजी सोचैत छथि जे माताक माध्यम सँ काल कुचालि कयलक। जेना धान केर पकैत समय ईति केर भय आबि उपस्थित हुए। आब श्री रामचन्द्रजीक राज्याभिषेक कोन तरहें हो, हमरा त कोनो उपाय नहि सुझि पड़ैत अछि। गुरुजीक आज्ञा मानिकय त श्री रामजी अवश्ये अयोध्या वापस चलता, लेकिन मुनि वशिष्ठजी त श्री रामचन्द्रजीक रुचि जानियेकय किछु कहता। अर्थात ओ श्री रामजीक रुचि देखने बिना चलबाक लेल नहि कहता। माता कौसल्याजीक कहला सँ सेहो श्री रघुनाथजी लौटि सकैत छथि, मुदा भला, श्री रामजी केँ जन्म दयवाली माता कि कहियो हठ करती? हम सेवकक त बाते कतेक चलत? ताहि मे सेहो समय खराब अछि एखन, हमर दिन नीक नहि अछि आ विधाता प्रतिकूल छथि। जँ हम हठ करैत छी त ई घोर कुकर्म (अधर्म) हेतय, कियैक त सेवकक धर्म शिवजीक पर्वत कैलासो सँ भारी (निबाहय मे कठिन) अछि।
१२. एकहु टा युक्ति भरतजीक मोन मे नहि ठहरलनि। सोचिते सोचिते राति बिति गेलनि। भरतजी प्रातःकाल स्नान कयकेँ आर प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ सिर नमाकय बैसले रहथि कि ऋषि वशिष्ठजी हुनका बोलावा पठौलनि, बजबा लेलनि।
हरिः हरः!!