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अहाँ ई करू – अहाँ ओ करू

अहाँ ई करू – अहाँ ओ करू

समाज बदलबाक काज जखन असामाजिक लोक करत त समाज मे केहेन परिवर्तन आओत ई स्वतः बुझय योग्य प्रश्न भेल। मनन करू।

तहिना भाषा आ साहित्यक अर्थ तक नहि बुझनिहार जखन भाषा-साहित्य पर विमर्श करत त ओहेन समाज मे भाषा-साहित्यक केहेन स्थिति रहत सेहो स्वतः बुझय योग्य प्रश्न भेल। मनन करू।

तरकारी बेचयवला सँ मणि (कीमती पत्थर) के मूल्य पुछब आ ओकर दाम लगाबय त मणिक मूल्य, महत्व आ मान्यता कतय स्थिर होयत सेहो सामान्य मस्तिष्क केँ बुझबैत तुलसीदासजी रामचरितमानस मे श्री रामचरित के महत्ता पर अनुपयुक्त-अनधिकृत व्यक्तिक ‘भाषणबाजी’ बुझेने छथि।

आइ-काल्हि हमर मिथिलाक लोक केँ ‘मैथिली सामग्री’ अथवा पूर्व समय जेकाँ ‘संस्कृत सामग्री’ पढ़बाक-बुझबाक अवसर नहि भेटैत छैक। अथवा बहुत कम भेटैत छैक सेहो कहि सकैत छी, कारण एक्के बेर पूरे नगण्य त नहि भ’ गेलैक अछि लेकिन दायरा ततबा छोट आ संकुचित भ’ गेलैक अछि जे आब लोक अपने बाजय लागल अछि जे ई खाली सीमित जाति, सीमित क्षेत्र आदिक भाषा थिक।

आब लोक केँ ‘हिन्दी-अंग्रेजी सामग्री संग’ मसालेदार-झालदार ‘भोजपुरी-पंजाबी सामग्री’ सब जहिंपटार भेटि रहलैक अछि। मसालेदार-झालदार त किछु लोक मैथिली मे सेहो प्रयास करिते अछि, जेकरा ‘अश्लीलता मुक्त मिथिला’ नाम के एकटा मुहिम द्वारा बड़ा अश्लील ढंग सँ उजागर कयल जेबाक कथावस्तु सामाजिक संजाल मे देखिते रहैत छी। एहने एकटा हिन्दी-सामग्री सँ राजस्थान व अन्य स्थान पर होइवला ‘मृत्युभोज’ परम्परा पर आम लोक मे चर्चा मिथिला क्षेत्र मे सेहो आबि गेल छैक।

जँ अपन भाषा-साहित्य आ कि परम्परा, मूल्य, मान्यता आदि सँ लोक केँ रुबरु होयबाक अवसर भेटल रहितैक त एतबा ज्ञान जरूर रहितैक जे मिथिलाक पांडित्य परम्परा मे जीवनशैली वेदानुसार राखल गेल छैक, एतय केकरो कियो जबर्दस्ती नहि कहि सकैत छैक जे एतेक न एतेक भोज करू, खर्च करू, दान करू.. आदि। बल्कि श्रद्धा सँ श्राद्ध कय निवृत्त होउ, गला मे लेल गेल उतरी उतारू यानि जिम्मेदारी सँ मुक्त हेबाक विध पूरा करू। एहि लेल समाजक किछु पंच केँ पितररूप मे सम्मान दैत आ अछि त वृहत् स्तर पर अन्नदान के इन्तजाम करू।

उजरा-ललका आ खाजा-मुंगबा के मलफाई उड़ेबाक विकृत कार्य लेल विधान कतहु किछु नहि कहने छैक। तखन त फल्लाँ बाबू केँ चिल्लाँ बाबू संग आपसी प्रतिस्पर्धाक कारण समाज मे एकटा विकृति उजरा-ललका, कांट-कुस, खाजा-मुंगबा आदिक फिजुलखर्चक आडम्बरी प्रथा सेहो आइ-काल्हि चलय लागल अछि, अहाँ एहि पर मनन करू जे ई जरूरी अछि या फेर फिजुलखर्च आ आडम्बर। कर्त्ता आ समाज दुनू एहि पर विचार करू।

श्राद्ध केँ मृत्युभोज कहिकय, ब्राह्मण केँ दान केँ कुत्सित दान कहिकय, पितर प्रति अपन समर्पण-त्याग आ दान-दक्षिणा केँ अपमानित नहि करू। मृत्युभोज आदि हिन्दी दुनियाक शब्द नहि, मैथिली दुनियाक बाप-पुरखाक जीवनपद्धति केँ महत्व बुझू।

नहि त ढेर होशियार बनू, ब्राह्मण विरोध के पराकाष्ठा नांघू…. भूराबाल साफ करू…. भाषा केँ विभाजित करू… जे मोन हुए से करू आ मात्र १ सँ २ पीढ़ी मे अपन सर्वनाश सुनिश्चित कय लिअ। हमर की!

मृत्युभोज के परम्परा मिथिला मे नहि अछि। तथापि किछु लोक श्राद्ध केँ मृत्युभोज सँ जोड़िकय देखैत छथि, आ तेँ एकर विरोध सेहो करैत छथि।
श्राद्ध अपन परिजनक (माता-पिता व अन्य सम्बन्धीक) मृत्यु उपरान्त एक आवश्यक समर्पण कर्म होइत छैक, जाहि मे कर्जा कय केँ आ अपन ओकादि सँ बेसी खर्च करबाक कोनो जरूरत नहि छैक। बल्कि पितृकर्म केर कर्मकाण्डीय त्याग (समर्पण, दान आदि) कय केँ अपना सहित मृत पितर केर आत्मीय शान्तिक रास्ता परिभाषित छैक।
लेकिन गये दिन ‘मृत्युभोज’ के नाम पर अनेकों चर्चा देखैत छी आइ-काल्हि। पहिने किछु ब्राह्मणेतर मैनजन-मुखिया सब ब्राह्मण विरोध मे ई सब फसाद आरम्भ कय समाज मे ब्राह्मणक हैसियत केँ चुनौती दैत एना कयलनि। श्राद्ध केँ खराब एहि लेल मानय लगलाह जे ई अनिवार्य रूप सँ होइवला कर्म आ तथाकथित सामाजिक दबाव मे कर्जा कइयो कय पितरक नाम पर दान आ भोज आदिक आयोजन करब कहल गेल। जँ, सच मे कोनो समाज मे एहि तरहक व्यवस्था हुए जे ओकादि कर्त्ताक किछु नहि आ श्राद्ध-कर्म पर लाखों खर्च करहे पड़त त निश्चित ई गलत परम्परा थिकैक, बन्द करबाउ। जँ, श्रद्धा आ समर्पण सँ कयल जायवला केवल कर्त्ताक नैष्ठिक व अनिवार्य कर्म थिकैक त एकरा मृत्युभोज कहि अपमानित नहि करू।

हरिः हरः!!

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