रामचरितमानस मोतीः श्री राम केर श्रृंगवेरपुर प्रवेश आ निषाद द्वारा सेवाक प्रसंग

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम केर श्रृंगवेरपुर पहुँचब, निषाद द्वारा सेवा

१. शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुण सँ रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह) सच्चिदानंद-कन्द स्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान श्री रामचन्द्रजी मनुष्यक सदृश एना चरित्र करैत छथि जे संसाररूपी समुद्र के पार उतरबाक लेल पुल समान अछि।

२. जखन निषादराज गुह ई खबरि पेलनि त ओ आनन्दित भ’ कय अपन प्रियजन व भाइ-बन्धु सब केँ बजा लेलनि आ भेंट करबाक लेल फल, मूल (कन्द) लय कय बहँगी (भार) मे भरिकय भेटय लेल चलि देलाह। हुनकर हृदय मे अपार हर्ष भरल छलन्हि। दण्डवत कय भेंट सामने राखिकय ओ अत्यन्त प्रेम सँ प्रभु केँ देखय लगलाह। श्री रघुनाथजी स्वाभाविक स्नेह केर वश भ’ कय हुनका अपना पास बैसाकय कुशल पुछलनि। निषादराज उत्तर देलखिन – हे नाथ! अहाँक चरणकमल केर दर्शनहि सँ कुशल अछि। आइ हम भाग्यवान पुरुषक गिनती मे आबि गेलहुँ। हे देव! ई पृथ्वी, धन आर घर सब अहाँक थिक। हम त परिवार सहित अहाँक नीच सेवक छी। आब कृपा कय केँ श्रृंगवेरपुर मे आउ आ एहि दास केर प्रतिष्ठा बढ़ाउ जाहि सँ सब लोक हमरो भाग्यक बड़ाइ करय।

३. श्री रामचन्द्रजी कहलखिन – हे सुजान सखा! अहाँ जे किछु कहलहुँ से सबटा सत्य अछि। मुदा पिताजी हमरा लेल किछु आरे आज्ञा देलनि अछि। हुनकर आज्ञानुसार हमरा चौदह वर्ष तक मुनि लोकनिक व्रत और वेष धारण कय आर मुनिये योग्य आहार करैत वन मे बसबाक अछि, गामक भीतर निवास करब उचित नहि अछि। ई सुनिकय गुह केँ बड़ा दुःख भेलनि।

४. श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीक रूप केँ देखिकय गामक स्त्री-पुरुष प्रेम सँ चर्चा करैत अछि। कियो कहैत अछि – हे सखी! कहू त, ओ माता-पिता केहेन छथि जे एहेन सुन्दर सुकुमार बालक केँ वन लेल पठा देलनि अछि। कियो कहैत अछि – राजा नीके कयलनि, एहि बहन्ने हमरो सबकेँ ब्रह्माजी नेत्र केर लाभ देलनि। तखन निषादराज हृदय मे अनुमान कयलनि त अशोकक गाछ केँ हुनका ठहरबाक लेल मनोहर स्थान मानलनि। ओ श्री रघुनाथजी केँ लऽ जाकय ओ स्थान देखौलनि। श्री रामचन्द्रजी ओहि स्थान केँ देखिकय कहलनि जे ई सब तरहें सुन्दर स्थान अछि। पुरवासी लोक सब जोहार (वन्दना) कय केँ अपन-अपन घर लौटि गेलाह आ श्री रामचन्द्रजी संध्या करय लेल चलि गेलाह।

५. गुह एहि बीच कुश आर कोमल पत्ता सभक कोमल आ सुन्दर पटिया सजाकय बिछा देलनि आ पवित्र, मीठ और कोमल देखि-देखिकय दोना सबमे भरि-भरिकय फल-मूल आ पानि राखि देलनि। अपना हाथ सँ फल-मूल दोना मे भरि-भरिकय राखि देलनि।

६. सीताजी, सुमंत्रजी और भाई लक्ष्मणजी सहित कन्द-मूल-फल खाकय रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी पइड़ रहलाह। भाइ लक्ष्मणजी हुनकर पैर दबाबय लगलाह। फेर प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ सुतल जानि लक्ष्मणजी उठलाह आर कोमल वाणी सँ मंत्री सुमंत्रजी केँ सुतबाक लेल कहिकय ओतय सँ किछु दूरी पर धनुष-बाण सँ सजिकय, वीरासन मे बैसि जागिकय पहरा दियए लगलाह। गुह सेहो विश्वासपात्र पहरेदार सबकेँ बजाकय अत्यन्त प्रेम सँ जगह-जगह नियुक्त कय देलाह आ अपने सेहो डाँर्ह मे तरकस बान्हि धनुष पर बाण चढा लक्ष्मणजी लग बैसि गेलाह।

७. प्रभु केँ जमीन पर सुतल देखिकय प्रेमवश निषाद राज केर हृदय मे विषाद होबय लगलनि। हुनकर शरीर पुलकित भ’ गेलनि आर आँखि सँ नोर बहय लगलनि। ओ प्रेम सहित लक्ष्मणजी सँ ई वचन कहय लगलाह –

“महाराज दशरथजीक महल त स्वभाविके सुन्दर अछि, इन्द्रभवन सेहो ओकर समानता नहि पाबि सकैत अछि। ओहि मे सुन्दर मणि सब सँ चौबार (छतक ऊपर बनल बँगला) सब अछि, जे मानू रतिक पति कामदेव अपनहि हाथ सँ सजाकय बनौलनि अछि। जे पवित्र, बड़ा विलक्षण, सुन्दर भोग पदार्थ सब सँ पूर्ण आर फूल सभक सुगन्ध सँ सुवासित अछि, जतय सुन्दर पलँग आर मणि सभक दीपक अछि तथा सब तरहें पूरा आराम अछि, जतय ओढ़य-बिछबय के अनेकों वस्त्र, तकिया आर गद्दा सब सेहो मौजूद अछि, जे दूध के फेन समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) आर सुन्दर अछि, ओहि चौबारा सब मे श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी राति केँ सुतल करैत छलथि आर अपन शोभा सँ रति व कामदेव केर गर्व केँ हरण करैत छलथि।”

“वैह श्री सीता और श्री रामजी आइ घास-फूस केर पटिया पर थाकल बिना ओढ़ने-बिछाउना के सुतल छथि। एहि दशा मे ओ सब हमरा सँ देखल तक नहि जा रहल छथि।”

“माता, पिता, कुटुम्ब, पुरवासी (प्रजा), मित्र, नीक शील-स्वभाव केर दास ओ दासी लोकनि – सब कियो जिनका अपन प्राणक समान सार-सम्भार करैत रहथि, वैह प्रभु श्री रामचन्द्रजी आइ पृथ्वी पर सुतल छथि। जिनक पिता जनकजी छथि, जिनकर प्रभाव जग भरि मे प्रसिद्ध अछि, जिनकर ससुर इन्द्र केर मित्र रघुराज दशरथजी छथि, और पति श्री रामचन्द्रजी छथि, से जानकीजी आइ जमीन पर सुतल छथि।”

“विधाता किनकर प्रतिकूल नहि होइत छथि! सीताजी और श्री रामचन्द्रजी कि वन केर योग्य छथि? लोक सच कहैत अछि जे कर्म मात्र प्रधान थिक। कैकइराज के बेटी नीच बुद्धि कैकेइ बहुते कुटिलता कयलीह जे रघुनंदन श्री रामजी और जानकीजी केँ सुखक समय दुःख दय देलीह। ओ सूर्यकुल रूपी वृक्ष लेल कुरहैर बनि गेलीह। ओ कुबुद्धि सम्पूर्ण विश्व केँ दुःखी कय देलीह।”

श्री राम-सीता केँ जमीन पर सुतल देखि निषाद केँ बड तकलीफ भेलनि।