रामचरितमानस मोतीः श्रीराम द्वारा माता कौसल्या सँ वनगमन लेल आशीर्वाद मांगब

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-कौसल्या संवाद

१. अयोध्याक समस्त नारी-पुरुष श्रीराम प्रति वनगमनक आदेश सँ अत्यन्त विषाद मे पड़ि गेल अछि। स्वामी श्री रामचंद्रजी माता कौसल्या लग पहुँचलथि। एहि समय हुनकर मुखमंडल पर प्रसन्नताक आभा स्पष्ट छन्हि। चित्त मे उत्साह चौगुना बढ़ि गेल छन्हि। ईहो चिन्ता मेटा गेल छन्हि जे कहुँ राजा वन जाय सँ रोकि नहि लेथि। श्री रामजी केँ राजतिलक केर बात सुनि विषाद भेल छलन्हि जे सब भाइ केँ छोड़ि खाली हमरे टा राजतिलक कियैक होयत। आब माता कैकेइ केर आज्ञा आ पिताक मौन सहमति पाबिकय इहो सोच मेटा गेल छन्हि।

२. श्री रामचंद्रजीक मोन नव पकड़ायल हाथी जेकाँ आ राजतिलक ओहि हाथीक बान्हयवला काँटेदार लौहक बेड़ी जेकाँ छन्हि, ‘वन जेबाक अछि’ से सुनिकय अपन बन्धन टूटल जानि हुनकर हृदय मे आनन्द बढ़ि गेल छन्हि।

३. रघुकुल तिलक श्री रामचंद्रजी दुनू हाथ जोड़ि आनन्दक संग माताक चरण मे माथ झुकौलनि। माता आशीर्वाद देलीह आ अपन हृदय सँ लगा लेलीह, संगहि हुनका उपर गहना आ कपड़ा सब निछावर कयलीह। माता बेर-बेर श्री रामचंद्रजीक मुख चूमि रहल छथि। नेत्र मे प्रेमक जल भरि आयल छन्हि आर हुनकर समस्त अंग पुलकित भ’ गेल छन्हि। श्री राम केँ अपन कोरा मे बैसाकय फेरो हृदय सँ लगा लैत छथि। मातृत्वक एहेन भाव आबि गेल छन्हि मानू मायक स्तन सँ प्रेमरस (दूध) बहय लागल हो।

४. हुनकर प्रेम और महान्‌ आनन्द किछु कहल नहि जाइत अछि। मानू जे कोनो कंगाल कुबेरक पद पाबि गेल हो! बड़ा आदरक संग सुन्दर मुख देखि माता मीठ वचन बजलीह – हे तात! हम बलिहारी जाइत छी। कहू, ओ आनन्द-मंगलकारी लग्न कखन अछि जे हमर पुण्य, शील व सुख केर सुन्दर सीमा होयत आ जन्म लेबाक लाभ केर अवधि पूर्ण होयत, जाहि लग्न केँ सब स्त्री-पुरुष अत्यन्त व्याकुलता सँ एना चाहैत छथि जेना प्यासल चातक-चातकी शरद ऋतुक स्वाति नक्षत्र मे वर्षा हेबाक चाहत रखैत अछि। हे तात! हम बलैया लैत छी, अहाँ जल्दी नहा लिअ आर जे इच्छा करय से किछु मिठाई खा लिअ। बाउ! तेकर बादे पिता लग जायब। बहुत देरी भ’ गेल अछि, माय बलिहारी जाइत अछि।

५. माताक अत्यन्त अनुकूल वचन सुनिकय – जे मानू स्नेहरूपी कल्पवृक्ष केर फूल छल, जे सुखरूपी मकरन्द (पुष्परस) सँ भरल छल आ श्री राजलक्ष्मी केर मूल छल – एहेन वचनरूपी फूल देलोपर श्री रामचंद्रजीक मनरूपी भौंरा ओहि पर नहि मथरल।

६. धर्मधुरीण श्री रामचंद्रजी धर्म केर गति जानिकय माता सँ अत्यन्त कोमल वाणी मे कहलथि – हे माता! पिताजी हमरा वन के राज्य देलनि अछि, जतय सब प्रकार सँ हमर बहुत पैघ काज पूरा होइवला अछि। हे माता! अहाँ प्रसन्न मन सँ हमरा आज्ञा दिअ जाहि सँ हमर वन के यात्रा मे आनन्द-मंगल बनल रहय। हमरा सँ स्नेहक कारण बिसरियोकय डेरायब नहि। हे माता! अहाँक कृपा सँ आनन्दे-आनन्द रहत सबटा। चौदह वर्ष वन मे रहिकय, पिताजीक वचन केँ सत्य सिद्ध कयकेँ, पुनः घुरिकय अहाँक चरण केर दर्शन करब, अहाँ एहि लेल मोन एकदम म्लान (दुःखी) नहि करी।

७. रघुकुल मे श्रेष्ठ श्री रामजीक ई अत्यन्ते नम्र आ मीठ वचन माताक हृदय मे बाण जेकाँ लगलनि। आर एकर कसक बेतरतीब होबय लगलनि। ओहि शीतल वाणी केँ सुनि कौसल्या ओहिना सुखा गेलीह जेना बरखाक पानि पड़ला सँ जवासा (एक वनस्पति) सुखा जाइत अछि। हृदयक विषाद किछु कहल नहि जाइत अछि। मानू सिंहक गर्जना सुनि हिरनी विकल भ’ गेल हो। आँखि नोरा गेलनि। शरीर थरथराय लगलनि। जेना माछ बर्खाक पहिल फेन (माँजा) खाकय बदहवास भ’ गेल हो! धीरज धरैत पुत्र केर मुंह देखि माता गदगद वचन कहय लगलीह –

“हे तात! अहाँ त पिता केँ प्राणक समान प्रिय छी। अहाँक चरित्र देखिकय ओ नित्य प्रसन्न भेल करैत छथि। राज्य देबाक लेल वैह शुभ दिन शोधबौलनि। फेर आब कोन अपराध सँ वन जेबाक लेल कहि देलनि? हे तात! हमरा एकर कारण सुनाउ। सूर्यवंशरूपी वन केँ जरेबाक लेल आइग के बनि गेल अछि?”

८. तखन श्री रामचन्द्रजीक रुइख देखि मन्त्रीक पुत्र सब कारण समझाकय कहलखिन। ओहि प्रसंग केँ सुनिकय ओ एना चुप भेलीह जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। नहि राखिये सकैत छथि, नहिये ई कहि सकैत छथि जे अहाँ वन लेल चलि जाउ। दुनू अवस्था मे हुनकर हृदय मे बड़ा भारी सन्ताप भ’ रहल छन्हि। मनहि-मन सोचैत छथि – विधाताक चाइल सदिखन सभक लेल टेढ़े होइत छन्हि। लिखय लगलाह चन्द्रमा आ लिखा गेलनि राहु!

९. धर्म और स्नेह दुनू कौसल्याजीक बुद्धि केँ घेर लेलकनि। हुनकर दशा साँप-छुछुन्दर जेहेन भ’ गेलनि। ओ सोचय लगलीह – जँ हम हठ कय केँ पुत्र केँ राखि लैत छी त धर्म जाइत अछि आर भाइ सब मे सेहो विरोध होइत अछि, आर जँ वन जाय लेल कहैत छी त बड़ा भारी हानि होइत अछि।

१०. एहि तरहक धर्मसंकट मे पड़िकय रानी विशेष रूप सँ सोच केर वश भ’ गेलीह। फेर बुद्धिमती कौसल्याजी स्त्री धर्म (पातिव्रत धर्म) केँ बुझैत आर राम तथा भरत दुनू पुत्र केँ समान जानिकय सरल स्वभाववाली श्री रामचन्द्रजीक माता बड़ा धीरज धरैत ई वचन बजलीह –

“हे तात! हम बलिहारी जाइत छी। अहाँ बहुत नीक कयलहुँ। पिताक आज्ञाक पालन करब टा सब धर्मक शिरोमणि धर्म थिक। राज्य देब कहिकय वन दय देलनि, तेकर कनिकबो दुःख नहि अछि। दुःख एहि बात के अछि जे अहाँक बिना भरत केँ, महाराज स्वयं केँ आ प्रजा केँ बड़ा भारी क्लेश हेतनि। हे तात! जँ मात्र पिताजी टा’क आज्ञा अछि त माता केँ पिता सँ पैघ जानि आ मानि अहाँ वन जुनि जाउ, मुदा यदि पिता-माता दुनू वन जेबाक लेल कहलनि अछि त वन अहाँक वास्ते सैकड़ों अयोध्याक समान अछि। वन के देवता अहाँक पिता हेता आर वनदेवी लोकनि माता हेती। ओहिठामक पशु-पक्षी अहाँक चरणकमल केर सेवक हेता। राजाक लेल अन्त मे त वनवास करब उचिते अछि। बस, अहाँक सुकुमार अवस्था देखिकय हृदय मे बहुत दुःख होइत अछि।

हे रघुवंश के तिलक! वन बड़ा भाग्यवान अछि आर ई अवध अभागा अछि जे अहाँ त्यागि देलहुँ। हे पुत्र! जँ हम कही कि हमरो संग लेने चलू त अहाँक हृदय मे सन्देह होयत जे माता एहि बहाने हमरा रोकय चाहैत छथि। हे पुत्र! अहाँ सभक परम प्रिय छी। प्राणहुँ केर प्राण आ हृदय केर जीवन छी। वैह प्राणाधार अहाँ कहैत छी जे माय हम वन केँ जाय आ हम अहाँक वचन केँ सुनिकय बैसल पछताइत छी। ई सोचिकय झूठ स्नेह बढ़ाकय हम हठ नहि करैत छी। बेटा! हम बलैया लैत छी! माताक नाता मानि हमर सुइध कथमपि बिसरि नहि जायब। हे गोसाईं! सब देव आर पितर अहाँक ओहिना रक्षा करथि, जेना पलक आँखि केर रक्षा कयल करैत अछि।

अहाँक वनवास केर अवधि (चौदह वर्ष) जल थिक, प्रियजन और कुटुम्बी ताहि मे मछरी छथि, अहाँ दयाक खान आ धर्मक धुरी केँ धारण करयवला होइ। एना विचारिकय वैह उपाय करब जाहि मे सभक जिबैत-जी अहाँ आबिकय पुनः सब सँ भेटी। हम बलिहारी जाइत छी, अहाँ सेवक, परिवारक लोक आर नगर भरि केँ अनाथ कयकेँ सुखपूर्वक वन जाउ। आइ सभक पुण्यक फल पूरा भ’ गेल। कठिन काल हमरा लोकनिक विपरीत भ’ गेल।”

१०. एहि तरहें बहुतो विलाप कयकेँ आर अपना केँ परम अभागिनी जानि माता श्री रामचन्द्रजीक चरण सँ लिपटि गेलीह। हृदय मे भयानक दुःसह सन्ताप छन्हि। ताहि समयक बहुविध विलाप केर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। श्री रामचन्द्रजी माता केँ उठाकय हृदय सँ लगा लेलनि आर फेर कोमल वचन कहिकय हुनका बुझेबाक कोशिश कयलनि।

११. ताहिये समय ई समाचार सुनिकय सीताजी अकुला उठली। सासु लग जाय हुनकर दुनू चरणकमल केर वन्दना करैत माथ झुकौने बैसि गेलीह। सासु कोमल वाणी सँ आशीर्वाद देलखिन। ओ सीताजी केँ अत्यन्त सुकुमारि देखि आर व्याकुल भ’ गेलीह।

१२. रूप केर राशि और पति सँ पवित्र प्रेम करयवाली सीताजी नीचा मुख कएने बैसल सोचि रहली अछि। जीवननाथ (प्राणनाथ) वन जाय चाहैत छथि। देखी जे कोन पुण्यवान हुनकर संग रहत – शरीर आ प्राण दुनू संगे जायत या केवल प्राण टा हिनका संग जायत? विधाताक करनी किछु बुझय मे नहि अबैत अछि।

१३. सीताजी अपन सुन्दर चरणक नह सँ धरती कोरि रहली अछि। एना करैत समय नूपुरक जे मधुर शब्द भ’ रहल अछि, कवि ओकर एहि तरहें वर्णन करैत छथि मानू प्रेमक वश भ’ नूपुर ई विनती कय रहल अछि जे सीताजीक चरण कहियो हमर त्याग नहि करय।

१४. सीताजी सुन्दर नेत्र सँ जल बहा रहली अछि। हुनकर ई दशा देखिकय श्री रामजीक माता कौसल्याजी कहली –

“हे तात! सुनू, सीता अत्यन्त सुकुमारि छथि। सासु, ससुर व कुटुम्बी सभक प्यारी छथि। हिनकर पिता जनकजी राजा सभक शिरोमणि छथि। ससुर सूर्यकुल केर सूर्य छथि। आर, पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन केँ फूलेनिहार चन्द्रमा तथा गुण ओ रूप केर भंडार छथि। फेर हम रूप केर राशि, सुन्दर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पेलहुँ। हम एहि जानकी केँ आँखिक पुतली बनाकय हिनका संग प्रेम बढ़ेलहुँ अछि। अपन प्राण हिनके मे लगाकय रखने छी। हिनका कल्पलता जेकाँ हम बहुतो तरहें बड़ा लाड़-प्यार संग स्नेहरूपी जल सँ सींचिकय पोसलहुँ अछि। आब एहि लताक फूलेबाक-फरबाक समय विधाता वाम भ’ गेलाह। किछु जानि नहि पड़ैत अछि जे एकर परिणाम की होयत!

सीता पर्यंकपृष्ठ (पलंग उपर), कोरा आ हिड़ोला छोड़ि कठोर पृथ्वी पर कहियो पैरो नहि रखलनि। हम सदा संजीवनी जड़ी जेकाँ सावधानीपूर्वक हिनकर रखबारि करैत रहैत छी। कहियो दीपक केर बत्ती पर्यन्त हंटाबय लेल हिनका नहि कहैत छी। वैह सीता आब अहाँक संग वन जाय चाहैत छथि। हे रघुनाथ! हुनका लेल कि आज्ञा करैत छी?

चन्द्रमाक किरण केर रस (अमृत) चाहयवाली चकोरी सूर्य सँ आँखि कोना मिला सकैत छथि? हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेकों दुष्ट जीव-जन्तु वन मे विचरैत रहैत अछि। हे पुत्र! की विष केर वाटिका मे सुन्दर संजीवनी बूटी शोभा पाबि सकैत अछि?

वन लेल त ब्रह्माजी विषय सुख केँ नहि बुझयवला कोल आ भील केर बेटी लोकनिक रचना कयलनि अछि। जिनका सभक ओहने कठोर स्वभाव होइत छन्हि जेना पाथरक कीड़ाक होइछ। हुनका सब केँ वन मे कहियो कोनो क्लेश नहि होइत छन्हि। या फेर तपस्वी लोकनिक स्त्रिगण वन मे रहय योग्य छथि। ओ सब तपस्याक लेल सबटा भोग तजि दैत छथि।

हे पुत्र! जे तस्वीर मे बानर देखि डरा जाइत छथि, से सीता वन मे कोना रहि सकती? देवसरोवर केर कमल वन मे विचरण करयवाली हंसिनी की गड़ैया (तलैया) मे रहय योग्य छथि? एना विचारिकय जेहेन अहाँक आज्ञा हुए, हम जानकी केँ वैह शिक्षा (आदेश) दी।

यदि सीता घर मे रहथि त हमरो लेल बड पैघ सहारा हेती।”

१५. श्री रामचन्द्रजी माताक प्रिय वाणी, जे मानू शील आर स्नेहरूपी अमृत सँ सनल छल, सुनिकय विवेकमय प्रिय वचन कहिकय माता केँ संतुष्ट कयलनि। फेर वन केर गुण-दोष प्रकट कयकेँ ओ जानकीजी केँ बुझाबय लगलाह।

हरिः हरः!!