अर्जुन दृष्टि मे मिथिला राज्य एकमात्र लक्ष्य

ई त सब जानैत आ मानैत होयब जे –
 
  • हम मैथिलीभाषीक जन्म किछु विशेष कारण सँ मिथिला पुण्यक्षेत्र मे भेल अछि। पूर्वजन्म के किछु विशेष कर्म आ प्रारब्ध के चलते एहि धर्मक्षेत्र मे मनुष्य रूप मे पदार्पण कय सकल छी।
  • जन्म भेटब प्रकृति आ ईश्वर केर ब्रह्माण्डीय संरचनाक एकटा विलक्षण आ विचित्र घटना होइत छैक। जीवलोक मे जीवन प्राप्ति केँ जन्म आ पुनः जीवनक अन्त केँ मृत्यु कहल जाइत छैक।
  • मृत्योपरान्त पुनः जन्म के परिकल्पना शास्त्र व पुराण मे चर्चित अछि, एहि पर अहाँ-हम अपन-अपन मानसिकता आ बौद्धिकता सँ विश्वास करैत छी। किछु लोक विश्वास नहियो कय सकैत छथि, ताहि लेल सब जीव (खासकय मनुष्य स्वतंत्र) होइत अछि।
  • जन्म-मृत्यु के चक्र ओहिना चलैत छैक जेना समय के दिन आ राति एकटा सुनिश्चित समय-आकार मे चलैत रहैत छैक। नित्य सूर्य के उदय जन्म के द्योतक थिकैक त सूर्य के अस्त मृत्यु के…. लेकिन राति बितिते पुनः सूर्य के जन्म आ दिन भरि जिवन्त रहि रातिक प्रवेश ई नित्य-शाश्वत सत्य थिकैक। ठीक तहिना जन्म-मृत्यु के चक्र नित्य-शाश्वत सत्य बुझू।
हमरा विश्वास अछि जे एहि ‘दर्शन’ (philosophy) केँ सब कियो अपन स्थूल ज्ञानेन्द्रिय सँ बुझि सकैत छी, आर विशिष्ट दृष्टि – अन्तर्दृष्टि – मन आ बुद्धि केर दृष्टि व गति सँ त आर गहींर-गहींर ‘दर्शन’ केँ बुझबाक उपलब्धि अपन-अपन योगबल सँ लोक लेल सम्भव होइत छैक।
 
आइ जे हमरा कहबाक अछि से एतबे जे हम मैथिलीभाषी (मैथिल) स्वयं के मैथिल होयबाक विषय पर गर्वान्वित होइ। “कृतौ सन्तिष्ठतेऽयं जनकवंशः, इत्येते मैथिलाः, प्रायेणैते आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति।” (विष्णुपुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय – ५, श्लोक ३२-३४) – एहि सिद्धान्त के मुताबिक हम सब एहि ‘मैथिल भूपाल’ (राजा) के प्रजा ‘मैथिल’ छी जे आत्मविद्या केर आश्रयदाता छथि आ हमहुँ सब अपन-अपन जीवनक मूल उपलब्धि आत्माक विद्या अर्जन लेल मुख्यतया बुझैत छी, बुझी। तदनुसार परमपिता परमेश्वर जिनका सँ अलग भेला बहुतो समय भ’ गेल अछि आ मर्त्यभूमि मे विचरण करैत-करैत जन्म-मृत्युक चक्कर मे पड़ल छी से एहि विद्याक ज्ञाता बनि ‘मुक्ति’ (मोक्ष) जेहेन पुरुषार्थ कमाबी/पाबी। चलू मुक्त बनी। श्रीकृष्ण ओहिना नहि कहने छथिन जे –
 
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥गीता ३-२० ॥
 
जनकादि श्रेष्ठजन सेहो कर्महि द्वारा परम सिद्धि केँ प्राप्त भेल छथि। लोकसंग्रह केँ ध्यान मे रखितो अहाँ कर्महि टा करबाक लेल योग्य छी। अर्थात् – हे अर्जुन! अहाँ युद्ध के मैदान मे ठाढ़ शास्त्र, पुराण, नीति, अनीति, संन्यास, योग, आदि-इत्यादि पर असमय चर्चा कय केँ युद्ध जेहेन कर्म सँ पलायन लेल नहि सोचू। आब त ई युद्ध करब अहाँक एकमात्र कर्तव्य अछि। बाकी बात सब रिक्त समय मे करब। ॐ तत्सत्!
 
हे मैथिल! अहाँक पहिचान पर विद्वेषी सभक कुदृष्टि पड़ि गेल अछि। विद्वेषी बहरिया टा नहि, घरक भितरे बहुतो रास अछि। अकर्मल-अपाटक आ कुतर्की सब असमय नीति, शास्त्र, पुराण आ किदैन-कहाँदैन चर्चा कय केँ ‘मिथिला राज्य’ केर आत्मसम्मान सँ भटकाबय लेल चाहि रहल अछि। सावधान!!
 
हरिः हरः!!