हम मैथिल छी, अहाँक आत्मपरिचयक लेल अहाँ स्वयं जिम्मेदार छी

सन्दर्भः मिथिलाक्षेत्रक ओ लोक जे स्वयं केँ मैथिल नहि मानथि ई हुनकर स्वविवेक थिकन्हि

 
गये दिन कियो न कियो चर्चा मे भेटि गेल करैत छथि जे कहैत छथि जे हम मैथिल नहि छी, हमर भाषा मैथिली नहि अछि, हम भोजपुरीभाषी छी, भोजपुरा सँ छी, आदि। हम हुनका मिथिलाक परिभाषा आ पुराणचर्चित इतिहास सँ लय मध्यकालीन इतिहास मे सिमरौनगढ़ राजधानी धरिक बात मोन पाड़ैत ऐतिहासिकताक आधार पर मिथिला थिक ई कथित ‘भोजपुरा’ नेपाल मे से कहैत छियनि। ओ एहि बात सँ काफी बिदकैत छथि, ओ आरोप लगबैत छथि जे मैथिलीभाषी हमरा सब केँ अपन उपनिवेशक हिस्सा बनबय लेल ई मिथिला-मिथिला करैत अछि, से केवल मैथिलीभाषी क्षेत्र लेल करय, आदि। हम हुनका सब केँ यैह कहैत छियनि जे अहाँक भाषिक पहिचान आ आत्मसम्मान जाहि तरहें भेटय अहाँ वैह पहचान स्वीकार करू, हमहुँ अहाँक वैह पहिचान केर सम्मान देब, लेकिन मिथिलाक ऐतिहासिकताक आधार पर हमरा त अहाँक रहवासी क्षेत्र धरि मिथिले कहय पड़त, हम त वैह कहब, अहाँ भले विरोध करी, विद्रोह करी, जे करी।
 
कियो मानय नहि मानय, लेकिन हम जे मानैत छी से बात कहि रहल छी। एहि धराधाम मे हमर जन्म एहि लेल नहि भेल जे बन्धनकारी काज करी आ जन्म-मरण के चक्कर मे ओझरायल रही। जतेक तक भ’ सकत, गीता उपदेश अनुसार – श्रीकृष्ण जी द्वारा फरिछायल ज्ञान देल गेल युक्ति अनुसार निरपेक्ष भाव सँ द्वंद्व सँ मुक्त भ’ अपन नैष्ठिक कर्म करैत रहबाक अछि। श्रीकृष्ण सेहो एहि मिथिला भूमि केर संस्थापक राजा जनक केँ जीवन मे रहितो मुक्त जीव (Liberated Man) कहने छथि, से एहि तरहक बन्धनमुक्त कर्म करैत रहनिहार ‘विदेह’ हेबाक कारण।
 
ई आख्यान सभक लेल अनुकरणीय अछि जे गीताक उपदेश करैत समय श्रीकृष्ण अर्जुन सँ सब बात ठोकल-ठठायल कहलनि आ सिर्फ अपन कर्म करैत रहबाक लेल प्रेरणा देलनि। अर्जुन रणक्षेत्र मे पहुँचि अन्त समय मे हिया हारि देने छलाह…. ओ अपन क्षत्रिय कर्म (धर्मक रक्षार्थ शास्त्र केर प्रयोग करब) छोड़िकय अनेकों प्रकारक धर्माचरण आ संन्यास आदिक बात करब शुरू कय देने छलाह। गांडीव राखि देने छलाह आ अपन मित्रवत् सारथि श्रीकृष्णक सोझाँ नतमस्तक होइत आगू कि करबाक चाही से बताउ कहितो एक्के बेर मे सब बात नहि बुझने रहथि। ७०० श्लोक केर अर्जुन-कृष्ण संवाद के रूप मे ई गीता हमरा सभक लेल सम्पूर्ण सैद्धान्तिक मार्गदर्शन छी।
 
एहि गीताक तेसर अध्याय मे कर्म सिद्धान्तक विवेचना करैत श्रीकृष्ण २०म् श्लोक मे कहने छथि –
 
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३.२०॥
 
अर्थात् राजा जनक जेहेन अनेकों महापुरुष लोकनि कर्महि द्वारा सिद्धि केँ प्राप्त कयलनि। तेँ लोकसंग्रह केँ देखितो अहाँ (निष्कामभाव सँ) कर्महि करबाक योग्य छी।
 
(हमर विशेष आग्रह जे एहि प्रसंग केँ पूरा अध्ययन करू।)
 
मिथिलाक सब सँ बेसी आकर्षक परिभाषा हमरा यैह बुझाइत अछि, बेर-बेर लिखैत रहलहुँ अछिः
 
“मिथिलेति त्रिवर्णीयं श्रुतितोऽपि गरीयसी।
मकारो विश्वकर्त्ता च थकार: स्थितिपालक:॥
लकारो लयकर्त्ता वै त्रिमात्रा शक्तयोऽभवत्।
प्रणवेन समंविद्धि सर्वाधौध निवारणम्॥”
 
अर्थात् “मिथिला शब्द मे जे तीन वर्ण अछि, ओहि मे म’कारक अर्थ ब्रह्मा, थ’कार श्रीविष्णु तथा ल’कार लयकर्त्ता रुद्र मानल गेल छथि। आर, एहि तीन ‘म’ ‘थ’ ‘ल’ संग जे ‘त्रिमात्रा’ ‘इ’ ‘इ’ ‘आ’ लागल य ओ ‘शक्ति’ यानि सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती थिकीह। ई शब्द वेदक ॐ-कार बोधक हेबाक कारण सम्पूर्ण पाप-ताप केर संहारकर्त्ता थिक।”
 
“इमे वै मिथिलाराज आत्मविद्या विशारद:।
योगेश्वर प्रसादेन द्वन्द्वर्मुक्ता गृहेष्वपि॥”
 
श्रीमद्भागवत केर ई वाक्यांश केँ शिरोधार्य कय पराम्बा जानकीक ध्यान धरैत, वृहद् विष्णुपुराण केर वचन मुताबिक, आत्मविद्याश्रयी हम मैथिल राजा जनकक प्रजा छी। राजारूप प्रजा – हम सब मैथिल छी। जे एहि भाव सँ सहमत नहि छी तिनका जबरदस्ती हम कहू जे अहाँ सेहो मैथिल छी या मैथिल बनू, ई अहींक विवेक पर छोड़ि रहल छी।
 
हरिः हरः!!