अपन मूल्य-मान्यताक समीक्षा कएने बिना दोसरक देक्शी सुरक्षित नहि

ई मृत्युभोज शब्द आइ-काल्हि मिथिलाक कतेको लोक केँ माथा डिस्टर्ब कएने छन्हि। वास्तव मे ई शब्द मिथिलावासीक विधान मे कतहु नहि छैक। लेकिन मिथिलाक लोक आइ अपन बहुमूल्य परम्परा केँ ‘बारीक पटुआ तीत’ बुझि ‘दूरक ढोल सोहाओन’ वाली तर्ज पर अक्सर आन-आन संस्कृतिक बात केँ अपन मिथिला संस्कृति सँ तुलना करैत फ्रस्ट्रेटेड (हताश) होइत रहैत छथि। ई बीमारी बड़-बड़ लोक मे हम देखलहुँ। ओ कहियो अपन परम्परा पर कोनो तरहक शोध अथवा विचार नहि कय अपन प्रवास स्थल मे दोसरक संस्कृति सँ आकर्षित भऽ ओहि तरहक अवधारणा सँ मिथिलाक हित हेबाक बात बरबराइत रहैत छथि। पैघ-पैघ मंच पर, पैघ-पैघ विमर्श मे आ विषय मे पैघ-पैघ वक्ता केँ सेहो अधिकतर यैह उदाहरण दैत देखैत छी। कहता पंजाबी सब मे जे फल्लाँ परम्परा छैक तहिना मिथिला मे सेहो हेबाक चाही। कियो कहता बंगाली सब मे जे भाषा प्रति मोह छैक से मिथिला मे हेबाक चाही। अमेरिका मे एना होइत छैक, तेना जँ मिथिला मे होयत तखनहि मिथिलाक कल्याण होयत। गुजरात मे औद्योगिक क्रान्ति आ व्यवसायिक गतिविधि हरेक परिवार मे होइत छैक, जा धरि मिथिला मे एहि तरहक सोच विकसित नहि होयत, मिथिलाक कल्याण नहि होयत। मद्रासी सब बड अनुशासित होइत अछि, ट्रेन मे अपन जगह छोड़ि आनक जगह पर कदापि नजरियो तक नहि दैत छैक, भले ओ सीटवला आबय वा नहि, दोसर कियो ओकर सीट पर नहि बैसत। दिल्ली सरकारक शिशोदियाजी मैथिलीक पढाई करेबाक मंजूरी दय देलखिन, बिहार नहि जानि कहिया देत। जाट सभक बेटा-बेटीक विवाह मे एना होइत छैक से अपनो ओतय ई एनाही हेबाक चाही। आदि-आदि।

मृत्युभोज सेहो एहने बाहरी संस्कृति केर नकल करैत आबि गेल मिथिला मे। आइ एक मुकुन्द झा हमरा सँ कहला जे दहेज मुक्त मिथिला आ अहाँ लोकनिक योगदान दहेज प्रथा प्रति लोक केँ साकांक्ष करय मे नीक भूमिका निभेलक, आब आगू मृत्युभोज वाली प्रथा केँ सेहो दूर करय लेल अहाँ सब प्रयास करू। आरो बहुत रास कूरीति सब सँ मिथिला पाटल अछि एकरा दूर करबाक दिशा मे अपने सब काज करय जाउ। हम कतेको बेर पहिने सेहो कहने छी जे ‘मृत्युभोज’ मिथिलाक परम्परा नहि थिकैक, हँ लोक श्राद्ध केँ जँ मृत्युभोज बुझि ओहि के विरोध करबाक बात करैत छथि त ई हुनकर गलत सोच या समझ थिकन्हि। श्राद्ध एक अनिवार्य आ महत्वपूर्ण परम्परा थिकैक जेकर वैज्ञानिक प्रभावकारिता सेहो सिद्ध छैक। हमर अध्ययन मे मृत्युभोज केर अर्थ होइत छैक जे केकरो घर मे मरनी भेल आ ओ समाजक लोक केँ दाह संस्कार मे सहभागिता देबय लेल हकारलक, फेर दाह संस्कार लेल दूर यात्रा करैत कतहु गंगा तट या एहेन स्थान धरि जाय केँ अन्त्येष्टि कयलक जाहि मे घन्टों धरिक समय लागि गेलैक। स्वाभाविक तौर पर ओहेन संस्कार मे सहभागी कठियारी (बरियाती) लेल भोजक इन्तजाम कयल जाइछ, ई अक्सर राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, आदि किछु निहित क्षेत्र मे पारम्परिक तौर पर अपनायल गेल परम्परा थिक। लेकिन बाद मे ई मृत्यु उपरान्त भोज केर परम्परा कतेको परिवार लेल बहुत पैघ समस्याक रूप मे मुंह बाबिकय ठाढ भेल आ केकरो पास ओकादि सँ बेसी भोज करबाक दबाव ओहि कठियारी गेनिहार समाज द्वारा करब उचित नहि से आवाज उठल। मिथिला मे एहि तरहक परम्परा सिमरिया घाट वा गंगा कात केर अन्त्येष्टि पर्यन्त मे नहि अपनायल गेल अछि। हँ, जखन दाह संस्कार आदि सँ निवृत्ति भेल त सब कियो सात्विक भोजन यथासाध्य साधन मे मृतक परिवारहि केर व्यवस्था मे करैत छथि, लेकिन एकरा भोज केर संज्ञा नहि, आवश्यक भोजनक संज्ञा देल गेल छैक।

रहलय बात श्राद्ध के – त श्राद्ध मृतक परिवारक निज श्रद्धा आ समाजक सहमतिक आधार पर कयल जाइत छैक। समाजक लोक मृतकक आत्माक चिर शान्ति लेल मृतकक परिवारक कर्तव्य केँ तय करैत छैक, कियो पिण्डक्रिया आ श्राद्ध सँ उन्मुक्त भऽ मृतक प्रति अवहेलनाक भाव नहि आनय, ताहि लेल समाज द्वारा एकटा अनुशासित सिद्धान्त अपनेबाक नीति छैक। समाज केकरो जबरदस्ती जमीन बेचिकय श्राद्ध करय लेल नहि कहतैक। हँ, यदि मृतक स्वयं ओतेक अरजि कय गेल छैक आ ओकर परिवार कंजूसी करैत ओकर श्राद्धादिक आयोजन मे हाथ खींचबाक काज करैत छैक त ओहि ठाम समाज वैह अनुशासित सिद्धान्तक आधार पर मृतकक नाम पर दान करबाक दबाव ओहि परिवार पर दैत छैक। आब जँ कियो सच मे गरीब छैक, ओकरा पास अर्थक अभाव छैक, त ओकरा कियो कहय जे आब तूँ कर्जा कय केँ वा जतय सँ होउ ओतय सँ लेकिन श्राद्ध करे, तखन सोचनीय विषय भेलैक। ओहेन समाज कतय छैक? हम ई प्रश्न कतेको बेर कतेको लोक सँ पुछलहुँ। फेर पूछि रहल छी। जबरदस्ती असमर्थ पर दबाव देबाक नियम कोन समाज मे छैक? ओतय समाधान जरूरी छैक। अहाँ तैयार होउ आ हमहूँ तैयार छी, करैत छी विमर्श आ २४ घन्टा मे बनबैत छी नियम। सब कियो सहर्ष स्वीकार करत।

हरिः हरः!!