मिथिला के राजा एक नहि बल्कि अनेक!
एक जनक – एक दरभंगा महाराजा! जनकजी के समयक बहुत बात नहि अछि पता – बस कथामें चर्चा-परिचर्चा पढैत-सुनैत किछु-किछु बुझैत छी… जेना काल्हिये श्रीमद्देवीभागवतकेर स्वाध्यायमें व्यासदेव अपन पुत्र शुकदेवजी सँ कहैत देखेलाह जे मिथिलाके राजा जनकजी केर राज बिना दंड विधान के चलैत छैक। ओहिठाम दंड-व्यवस्था केर प्रयोजन नहि छैक। गृहस्थाश्रममें रहितो लोक कोना वैराग्यचित्त छैक से ज्ञान राजा जनकजी सँ मिथिलापुरी में प्राप्त करैक लेल अपन चिन्तित आ विवाह करय सऽ नकारयवाला पुत्र शुकदेवजीके व्यासदेव बुझेलाह। पहिले स्वयं उपदेश कयलाह – परञ्च ताहि उपदेश सँ शुकदेवजीके चित्त स्थिर नहि भेलापर कहला – “अहाँ मनके ग्लानि छोड़ू; यथेष्टरूपसँ सुखोपभोग करू, शास्त्रोक्त ज्ञानके चिन्तन करू आ आत्मचिन्तनमें मन लगाउ। हे सुव्रत! यदि हमर उपदेशसँ अहाँके शान्ति नहि भेटि रहल अछि तऽ अहाँ राजा जनक द्वारा पालित मिथिलापुरी चैल जाउ। हे महाभाग! ओ विदेह राजा जनक अहाँके मोहके नाश कय देता; कियैक तऽ ओ सत्यसिन्धु आ धर्मात्मा छथि। हुनका लग जाके अहाँ अपन सन्देह दूर करू आ वर्णाश्रम-धर्मके रहस्य हुनका सँ यथार्थ रूपमें पुछू।” कनेक ध्यान दियौक एहिठाम – वर्णाश्रम धर्ममें कतहु जातिवादिता के चर्चा तक नहि आयल छैक समूचा उपदेशमें। कतहु उँच-नीचके घृणास्पद आ आपत्तिजनक कोनो गप तक नहि कयल गेल छैक। तखन कालान्तरमें मिथिलाके राजा हरसिंह देव के समयमें अबैत छी आ जानकारी भेटैछ जे ताहि समय पंजी व्यवस्था के प्रविष्टि भेलैक – लोक संस्कार आ गुण अनुरूपे सम्बन्ध कायम करैत छैक। यदि हमर कोनो बात अहाँके वा पाठकके अनसोहँतगर लागत तऽ अवश्यम्भावी स्वाभाविक प्रतिक्रिया होयत। पंजी व्यवस्थामें कुल-मूल-गोत्र-पाँजि-खानदान-व्यवहार आदि अनेक बात के संक्षेपमें समेटैत केवल खूनके सम्बन्धसँ अधिकार निर्णय आ समस्त जातिके पाछू केवल एक मूल जाति ‘मैथिल’ के प्रयोग पुरखा के समृद्ध शक्तिशाली आ दूरदृष्टीक स्वामी प्रमाणित करैत अछि। तदोपरान्त आचार-विचार-व्यवहारमें परिवर्तन आयब कोनो अप्राकृतिक बात नहि छैक। आइ हमर विचारमें जे शुद्धता वा अशुद्धता अछि ओ सदावर्त रहत से बात संभव नहि छैक। परिवर्तन आयब हमरा लोकनिक स्वभाव थीक।
आश्चर्य नहि लागल जे आखिर जनकजीके समयमें बिना दण्ड-विधान के राज होइत रहल छल? यैह विस्मयकारी बात सँ अत्यन्त प्रभावित भऽ के शुकदेवजी तैयार भऽ गेला आ सुमेरु पर्वत सँ चलैत मिथिलापुरी पहुँचि गेलाह – आजुक परिस्थिति उल्टा छैक। आब मिथिलापुरीके लोक शिक्षा ग्रहण करैक लेल कोटा – पिलानी – बंगलौर – मंगलौर जाइत अछि। कारण मूल-तत्त्व जे छलैक से शुद्ध आचरण आ वर्णाश्रम-धर्मके निर्वाह ओ कलुषि-प्रदुषित भऽ गेल छैक। शुद्ध आचार-व्यवहार के प्रचलन बन्द भऽ गेल छैक। तखन शिक्षा के तंत्र पर तऽ राज्य द्वारा एना प्रहार भेलैक अछि से हम कि वर्णन करू – अहाँ स्वयं जनैत छी। दोषी के – एहि लेल सेहो हमरा केकरो पर आँगूर नहि उठेबाक अछि। आत्मचिन्तन केवल एहि लेल होइक जे एतेक समृद्ध साहित्य रहितो – व्याकरण आ सागर सऽ बेसी गहिंर शब्दावलीके रहैत कोना मिथिला-शत्रु एहि साहित्यके जैड़ सऽ काटय लेल आतुर छैक से विगत किछु वर्षक इतिहासमें पता चलैत छैक आ केवल जातिवादिताके हवाबाजी नारा देनिहार नेतागण सभ एहि तरहक क्रियाकलापमें संलग्न देखैत छथि। घरमें सेहो शत्रुके कमी नहि छैक। अपना के ढेर होशियार आ विशाल जाल संजाल के स्वामी देखेनिहार बहुतो लोक अपन राज के दिवास्वप्न देखयमें अधिकांशतः व्यस्त छथि। हुनका सभके साहित्यमें सेहो जातिके प्रभाव – ब्राह्मणवादिताके प्रदर्शन केनिहार लोकसँ नहि केवल शिकायत छन्हि बल्कि घृणा सेहो छन्हि आ आपसी कटौझ सार्वजनिक मंचपर सरेआम देखयमें अबैछ। लोक एक-दोसरके फट्ठा-फराठीसँ फटकारैत कतहु देखा जाइत छथि। विडंबना जे एहि तरहक कार्यमें देखल जाइत छैक जे ब्राह्मण स्वयं ब्राह्मणके गरियाबैत अपन अलग छवि देखाबयमें आतुर रहैत छथि। दस गोट चमचा सऽ घिरल ओ स्वयं के राजा बुझैत छथि आ मिथिलाके निर्माण लेल सोचैत छथि। हस्ताक्षर अभियानमें गाम-गाम प्रचार-प्रसार होइत छैक। दस गो चमचा-बेलचा अपन बुधियारी सऽ नहि कि ईमानदारी सऽ अभियानके कछुवा सऽ बदतर गतिमें हाँकैत रहैत छथि लेकिन सरेआम मंच आ मिडियामें ओ राजा घोषणा करैत छथि जे हम एना आ हम ओना – हम केना – हम… हम… हम…! हाय रे मिथिला के राजा! कर्म शून्ना! बाजब दून्ना!
दरभंगा महाराजके कीर्तिमें सेहो अमरता छन्हि। लेकिन कतहु तऽ त्रूटि छलैक जे ओ अमर कीर्ति आइ धराशायी भऽ रहल छैक आ देखनिहार केओ नहि। राजा हारि गेलाह। संतति रहितो सामर्थ्य या इच्छाशक्ति नहि छन्हि। राज खत्म भऽ गेल छैक। कारण मिथिलामें आब सभटा राजा भऽ गेलैक आ अपन कोठरीरूपी राज्यक रानी के इशारापर नाचनिहार इ नटुवा-राजा कोठरी सऽ बाहर ओसारा-अंगना-दरबज्जा तक पहुँचैत कतेको राजा सऽ भेटैत अछि आ राज्यक लड़ाई लड़ैत अछि। यौ जी! लड़य सऽ फुर्सत हेतैक तखन ने राज-काज देखतैक। एम्हर राजा में यदि एकता बनैत गामरूपी राज्यके कल्याणके बात हेतैक तऽ रानी सभके द्वंद्वरूपी लड़ाईमें कतेको कैकेयी आ मंथरा के भूमिका होइत छैक आ फेर योजना बरमूडा त्रिकोणमें तेना कऽ रहस्यपूर्ण ढंग सऽ गायब भऽ जाइत छैक जेना बुझू जे केओ कोनो योजना बनेनहिये नहि छलैक।
आउ, अन्त करी औझका एहि लेख के संसारके ‘प्रथम संविधान सृजक – मनु’ द्वारा मनुस्मृतिके अष्टम अध्यायमें उल्लेख कैल गेल – राज्यके सीमा तथा कोषके सुरक्षा, विवाद सँ निपटारा के लेल समुचित विधि अपनायब, धर्म विरुद्ध गवाही देबयवाला, झूठ बाजयवाला या धोखा देबयवाला आ अपराध करयवाला के दण्ड देनैय आ दण्ड दैत समय व्यक्तिके सामाजिक स्तर आ अपराध के मात्रापर विचार करब आदि के चर्चा छैक। एहिमें सँ किछु महत्त्वपूर्ण विन्दुके हम एतहु उल्लेख करैक लेल चाहब।
प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः।
अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्-पृथक्॥मनु.८-३॥
तेषामाद्यामृणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः।
सम्भूय च समुत्थानं दत्तस्यानप कर्म च॥
वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः।
क्रयविक्रयानुशयोविवादः स्वामिपालयोः॥
सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके।
स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणमेव च॥
स्त्रीपुन्धर्मो विभागश्च द्युतमाह्वय एव च।
पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥मनु. ८ – ४, ५, ६, ७॥
राजाके प्रतिदिन अठारह तरह के अलग-अलग विभागमें बाँटल कार्यके प्रत्येक दिन शास्त्रीय दृष्टि सँ स्थानीय परिस्थिति के अनुसार समीक्षा करबाक चाही:
१. उधार लऽ के नहि देनाय या फेर बिन उधार देने मंगनाइ
२. धरोहर सम्बन्धित विवाद
३. कोनो वस्तु, भूमि आदि के स्वामी नहि रहला उपरान्तो ओकरा बेच देनाइ
४. साझेदारीके व्यापार सँ संबंधित विवाद
५. दान में देल वस्तुके वापस लऽ लेनाइ
६. कर्मचारीके वेतन नहि देनाइ
७. प्रतिज्ञापत्रमें लिखल बातके पालन नहि करब
८. विक्रय या क्रय संबंधी विवाद
९. पशु पालयवाला तथा पशुके स्वामीके मध्य विवाद
१०. सीमा सम्बन्धी विवाद
११. गाली-गलौज करनाइ
१२. माइर-पीट सँ सम्बन्धित विवाद
१३. चोरी करय सऽ सम्बन्धित विवाद
१४. बलात् केकरहु सऽ ओकर कोनो वस्तु छीन लेनाइ
१५. दोसरक स्त्रीके हरण कऽ लेनाइ
१६. स्त्री एवं पुरुष के अलग-अलग धर्म-आचार
१७. धनके विभाजन सम्बन्धी विवाद
१८. जुआ खेलब व पशु-युद्धमें बाजी लगायब सम्बन्धी विवाद
राजाके एहि अठारह प्रकारके विषयपर विचार करय पड़ैत छैक। – मनु।
ई मनुस्मृति सँ उद्धृत आ ताहि जमाना के अनुसार निर्मित अछि। आइ-काल्हि विवाद अनेक छैक। १८ गो विषय मात्र नहि रहि गेल छैक। अतः राजा के अपन विषय में वैशिष्टीकरण करय पड़ैत छैक। राज्य निर्धारण सेहो अपन-अपन शैली आ रुचि अनुरूपे होइत छैक। सामर्थ्यके बात सेहो महत्त्वपूर्ण छैक। केवल राजा आ राज्यके इच्छा रखला सऽ कि हेतैक?
हरिः हरः!