सुन्दरकाण्ड मैथिली मे – तुलसीकृत रामचरितमानस केर मैथिली स्वरूप

सुंदरकाण्ड

सुंदरकाण्ड मे हनुमानजी लंका लेल प्रस्थान, लंका दहन सँ लंका सँ वापसी तक केर घटनाक्रम अबैत अछि। नीचाँ सुंदरकाण्ड सँ जुड़ल घटनाक्रम केर विषय सूची देल गेल अछि। अहाँ जाहि घटनाक्रमक सम्बन्ध मे पढ़य चाहैत छी ओकर लिंक पर क्लिक करू।

पंचम सोपान-मंगलाचरण

श्लोक :
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥
भावार्थ : शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणहुँ सँ परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति दयवला, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी सँ निरंतर सेवित, वेदान्त द्वारा जानय योग्य, सर्वव्यापक, देवता लोकनि मे सबसँ पैघ, माया सँ मनुष्य रूप मे देखायवला, समस्त पाप केँ हरयवला, करुणा केर खान, रघुकुल मे श्रेष्ठ तथा राजा लोकनिक शिरोमणि राम कहेनिहार जगदीश्वर केर हम वंदना करैत छी॥1॥
शान्त शाश्वत अप्रमेय निष्पाप निर्वाण शान्तिप्रदायक
ब्रह्मा शम्भु फणीन्द्र मनीश वेदान्तवेद्य सर्वव्यापक।
जगदीश्वर सुरगुरु स्वयं हरिक माया मनुष्यरूप राम
करुणाकर रघुवर भूपालहु केर चुडामणि केँ प्रणाम॥१॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥
भावार्थ : हे रघुनाथजी! हम सत्य कहैत छी आर फेर अहाँ तँ सभक अंतरात्मे थिकहुँ (सब किछु जनैत छी) जे हमर हृदय मे दोसर कोनो इच्छा नहि अछि। हे रघुकुलश्रेष्ठ! हमरा अपन निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दिअ और हमर मन केँ काम आदि दोष सँ रहित कय दिअ॥2॥
हे रघुपति! हमर हृदय मे आन कोनो इच्छा नहि
सत्य कहैछी स्वयं अहाँसँ सभक अन्तरात्मा छी अपने। 
हे रघुकुलश्रेष्ठ! दिअ मात्र अपन निर्भरा भक्ति
करू मन हमर कामादि दोष रहित शक्ति॥२॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥
भावार्थ : अतुल बल केर धाम, सोनाक पर्वत (सुमेरु) समान कान्तियुक्त शरीरवाला, दैत्य रूपी वन (केँ ध्वंस करयवला) केर लेल अग्नि रूप, ज्ञानियो मे अग्रगण्य, संपूर्ण गुण केर निधान, वानर केर स्वामी, श्री रघुनाथजी केर प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी केँ हम प्रणाम करैत छी॥3॥
अतुलितबल केर धाम छी स्वर्णपर्वत के समान
दनुजवन केर नाशक अग्नि ज्ञानी मे अग्रगण्य
सर्वगुणक छी अहाँ निधान हे वानराणामधीश
रघुपति केर प्रियभक्त पवनपुत्र केँ प्रणाम॥३॥
चौपाई :
जामवंत के वचन सोहेलनि। सुनि हनुमंतक चित्त रमेलनि॥
ता धरि तूँ सब रुकिहें भाइ। रहिहें दुःखे कंद मूल फल खाइ॥१॥
भावार्थ : जाम्बवान्‌ केर सुंदर वचन सुनिकय हनुमान्‌जी केर हृदय केँ बहुत नीक लगलनि। (ओ कहलखिन-) हे भाइ! तूँ सब दुःख सहिकय, कन्द-मूल-फल खाकय ताबत धरि हमर बाट देखिहें॥१॥
जा धरि आयब सियाजी देखि। होयत काज होइछ हरख बिसेखि॥
से कहि झुकेलनि सब केँ माथ। चलल हरखि हिय धय रघुनाथ॥२॥
भावार्थ : जा धरि हम सियाजी केँ देखिकय (वापस) नहि आबी। काज अवश्य होयत, कियैक तँ हमरा बहुते हर्ष भऽ रहल अछि। ई कहिकय आर सब केँ माथ झुकाकय तथा हृदय मे श्री रघुनाथजी केँ धारण कय केँ हनुमान्‌जी हर्षित भऽ कय विदाह भेलाह॥२॥
सिंधु किनार एक पर्वत सुन्दर। खेल-खेल मे चढला ओहि पर॥
बेर-बेर रघुबीर सुमिरला। बली पवनसुत फानि केँ उड़ला॥३॥
भावार्थ : समुद्र केर तीर पर एक सुंदर पर्वत छल। हनुमान्‌जी खेलहि-खेल मे (अचानके) कूदिकय ओहिपर जा चढ़ला और बेर-बेर श्री रघुवीर केँ स्मरण कय केँ अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी ओहि पर सँ बड़ा वेग सँ फानि उड़ला॥३॥
जेहि गिरि चरण देलनि हनुमन्त। चलि गेल से पताल तुरन्त॥
जे अमोघ गति रघुपति बाण। तहिना चललथि श्रीहनुमान॥४॥
भावार्थ : जाहि पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर राखिकय चललथि (जाहि पर सँ फनलथि), ओ तुरन्ते पाताल मे धँसि गेल। जेना श्री रघुनाथजीक अमोघ बाण चलैत अछि, तहिना हनुमान्‌जी चललाह॥४॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारि। तैं मैनाक कहथि श्रम हारि॥५॥
भावार्थ : समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत विचारिकय मैनाक पर्वत सँ कहलथि जे हे मैनाक! तूँ हिनकर थकावट दूर करयवला हो (अर्थात्‌ अपना ऊपर हिनका विश्राम दे)॥५॥
दोहा :
हनूमान बस छूबि देला चलला कय प्रणाम।
राम काज कएने बिना हमरा नय विश्राम॥१॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी ओकरा हाथ सँ छू देलनि, फेर प्रणाम कयकेँ कहलनि – भाइ! श्री रामचंद्रजी केर काज कएने बिना हमरा विश्राम कहाँ?॥१॥
चौपाई :
जाइत पवनसुत देवगण देखलथि। कते विशेष बल बुद्धि से जँचलथि।
सुरसा नामक साँपकेर माय। पठाकय ओकरा बात कहाय॥१॥
भावार्थ : देवता लोकनि पवनपुत्र हनुमान्‌जी केँ जाइत देखलथि। हुनक विशेष बल-बुद्धि केँ जनबाक लेल (परीक्षार्थ) ओ सब सुरसा नामक साँपक माय केँ पठेलाह, ओ आबिकय हनुमान्‌जी सँ ई बात कहली – ॥१॥
आइ सुर सब मोरा देलनि अहार। सुनिते बात कह पवनकुमार॥
राम काज कय वापस आयब। सीता केर सुधि प्रभुजी सुनायब॥२॥
भावार्थ : आइ देवता लोकनि हमरा लेल अहार पठेलनि अछि। ई बात सुनिते पवनकुमार हनुमान्‌जी कहलखिन – श्री रामजी केर कार्य कय केँ हम वापस आयब आर सीताजीक खबरि प्रभुजी केँ सुना देब,॥२॥
फेर तोर मुंह मे पैसय आयब। सत्य कही माय जाय दे आब॥
कोनो यत्न सँ जाय न देलक। खा ले तखन से हनुमन कहलक॥३॥
भावार्थ : तखन आबिकय हम तोहर मुंह मे पैसि जायब (तूँ हमरा खा लिहें)। हे माय! हम सत्य कहैत छियौक, एखन हमरा जाय दे। जखन कोनो उपाय सँ ओ नहि जाय देलक तखन हनुमानजी कहलखिन – तखन फेर हमरा खा न ले॥३॥
योजन भरि ओ देह पसारलक। कपि अपन देह दोब्बर पारलक॥
सोलह योजन मुख ओ बनेलक। तुरत पवनसुत बत्तीस केलक॥४॥
भावार्थ : ओ योजन भरिक (चारि कोसक) मुँह पसारलक। तखन हनुमान्‌जी अपन शरीर केँ ओकरा सँ दूना बढ़ा लेलक। ओ सोलह योजन केर मुख केलक। हनुमान्‌जी तुरंते बत्तीस योजन केर भऽ गेल॥४॥
जेना जेना सुरसा देह बढौलक। तेकर दून कपि रूप देखौलक॥
सत योजन केर मुंह बनेलक। अति लघु रूप पवनसुत लेलक॥
भावार्थ : जेना-जेना सुरसा मुंहक विस्तार बढबैत छल, हनुमानजी ओकर दोब्बर रूप देखबति छलाह। ओ सौ योजन (चारि सौ कोस) केर मुंह बनौलक। तखन हनुमानजी अत्यन्त छोट रूप धारण कय लेलाह॥५॥
बदन पइसि फेर बाहर एला। मांगय विदा माथ नवेला॥
सुर हमरा जेहि लेल पठेला। बुद्धि बल मर्म सैहटा भेटला॥६॥
भावार्थ : आर ओकर मुंह मे पैसिकय (तुरंते) फेर बाहर निकलि एलाह, आर ओकरा माथ झुका प्रणाम करैत विदाई मंगलाह। (ओ कहलकनि) – हम अहाँक बल-बुद्धि केर मर्म बुझि गेलहुँ, जाहि लेल देवता हमरा पठौने रहथि॥६॥
दोहा :
राम काज सब करब जरूर अहाँ बल बुद्धि निधान।
आशीष दय कय गेल ओ हरखि चलला हनुमान॥२॥
भावार्थ :  अहाँ श्रीरामचंद्रजीक सब कार्य करब, कियैक तँ अहाँ बल-बुद्धि केर भंडार छी। यैह आशीर्वाद दय कय ओ चलि गेल, तखन हनुमान्‌जी हर्षित भऽ कय आगू चललाह॥२॥
चौपाई :
निशिचरि एक सिंधु मे रहय। कय माया नभ केर खग पकड़य॥
जीव जंतु जे गगन मे उड़य। जल मे ओकर छाया देखिकय॥
भावार्थ : समुद्र मे एकटा राक्षसी रहैत छल। ओ माया कयकेँ आकाश मे उड़ैत चिड़ै-चुनमुन केँ पकड़ लैत छल। आकाश मे जे जीव-जंतु उड़ल करैत छल, ओकर जल मे परछाई देखिकय॥१॥
पकड़य छाँह सकय से न उड़य। एहि विधि सदा गगनचर ठूसय॥
वैह छल ओ हनुमान सँ केलक। तेकर कपट कपि तुरते चिन्हलक॥
भावार्थ : ताहि परछाई केँ पकड़ि लैत छल, जाहि सँ ओ उड़ि नहि सकैत छल (आर जल मे खसि पड़ैत छल) एहि तरहें ओ सदा आकाश मे उड़यवला जीव केँ खायल करैत छल। ओ वैह छल हनुमान्‌जी सँ सेहो कयलक। हनुमान्‌जी तुरंते ओकर ओहि कपट केँ बुझि गेलाह॥२॥
तेकरा मारि मारुतसुत वीर। बारिधि पार गेला मतिधीर॥
ओतय जाय देखलनि बन शोभा। भँवरा गुंजय मधु के लोभा॥
भावार्थ : पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्‌जी ओकरा मारिकय समुद्रक पार गेलाह। ओतय जाय केँ ओ वनक शोभा देखलनि। मधु (पुष्प रस) केर लोभ सँ भँवरा सब गुंजार कय रहल छल॥३॥

लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका मे प्रवेश

नाना वृक्ष फल फूल सोहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल विशाल देखि एक आगू। ओहिपर दौड़ि चढल भय त्यागू॥४॥
भावार्थ : अनेकों प्रकारक वृक्ष फल-फूल सँ शोभित अछि। पक्षी आर पशु सभक समूह केँ देखिकय ओ मनहिमन (खूब) प्रसन्न भेलाह। आगू मे एक विशाल पर्वत देखिकय हनुमान्‌जी भय त्यागिकय ओहिपर दौड़िकय जा चढ़लाह॥४॥
उमा नय कनिको कपि के बड़ाइ। प्रभु प्रताप जे कालहि खाइ॥
गिरि पर चढ़ि लंका ओ देखला। कहल न जाइ अति दुर्ग विशेषा॥५॥
भावार्थ : (शिवजी कहैत छथि-) हे उमा! एहि मे वानर हनुमान्‌ केर कोनो बड़ाई नहि छैक। ई प्रभु केर प्रताप थिक जे कालहु केँ खा जाइत अछि। पर्वत पर चढ़िकय ओ लंका देखलथि। अत्यन्त पैघ किला छल जेकर सम्बन्ध मे कहब कठिन अछि॥५॥
अति ऊँचगर जलनिधि चहुँ पास। कनक कोट करे परम प्रकाश॥६॥
भावार्थ : ओ अत्यंत ऊँच अछि, ओकर चारू दिश समुद्र छैक। सोनाक परकोटा (चहारदीवारी) केर परम प्रकाश भऽ रहल अछि॥६॥
छंद :
कनक कोटि विचित्र मणि कृत सौम्य सुन्दर घर घना।
चौक हाट सुबाट गली सब चारू पुर बहु विधि बना॥
हाथी घोड़ा गाधा पैदल रथ समूह केँ के गनय।
बहुरूप निशिचर झूंड अतिबल सैन्य वर्णत नहि बनय॥१॥
भावार्थ : विचित्र मणि सँ जड़ल सोनाक परकोटा अछि, तेकर अंदर बहुते सौम्य-सुंदर घर अछि। चौक-चौराहा, हाट, सुंदर बाट आर गली सब अछि, सुन्दर नगर बहुतो प्रकार सँ सजायल अछि। हाथी, घोड़ा, गदहाक समूह तथा पैदल और रथ केर समूह केँ के गानि सकैता अछि! अनेकों रूप केर राक्षस सभक दल छैक, ओकर अत्यंत बलवती सेना वर्णन करैत नहि बनैत अछि॥१॥
वन बाग बगिया इनार पोखरि झील सब सोभइ य।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहइ य॥
कहुँ मल्ल देह विशाल शैल समान अतिबल गर्जइ य।
नाना अखारा भिड़य बहुविधि एक एक ललकारइ य॥२॥
भावार्थ : वन, बाग, बगीचा, पोखरि, इनार और झील सब सुशोभित अछि। मनुष्य, नाग, देवता और गंधर्वक कन्या सब अपन सौंदर्य सँ मुनियो लोकनिक मन केँ मोहि लैत अछि। कतहु पर्वत केर समान विशाल शरीर वाला बड़ा हि बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरैज रहल अछि। ओ सब अनेकों अखाड़ा मे बहुतो प्रकार सँ भिड़ैत अछि और एक-दोसर केँ ललकारैत अछि॥२॥
कय जतन भट कोटी विकट तन नगर चहुँ दिशि रक्षय अछि।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भक्षय अछि॥
एहि लेल तुलसीदास एकर कथा किछु जे कहलनि अछि।
रघुवीर सर तीरथ शरीर केँ त्यागि गति पाओत सही॥3॥
भावार्थ : भयंकर शरीर वाला करोड़ों योद्धा यत्नपूर्वक (बड़ी सावधानी सँ) नगर केर चारू दिशा मे (सब दिश सँ) रखवाली करैत अछि। कतहु दुष्ट राक्षस महींस, मनुष्य, गाय, गदहा और बकरा केँ खा रहल अछि। तुलसीदास द्वारा एकर सभक कथा एहि वास्ते मात्र थोड़बे कहल गेल अछि जे ई सब निश्चय टा श्री रामचंद्रजी केर बाणरूपी तीर्थ मे शरीर केँ त्यागिकय परमगति पाओत॥३॥
दोहा :
पुर रखवाला देखि बहुत कपि मन केलनि विचार।
अति लघु रूप धरब रात्रि नगर करब पइसार॥३॥
भावार्थ : नगर केर बहुसंख्यक रखवार केँ देखिकय हनुमान्‌जी मन मे विचार कयलनि जे अत्यंत छोट रूप धरब और रातिक समय नगर मे प्रवेश करब॥३॥
चौपाई :
मसक समान रूप कपि धेला। लंका चलथि नरहरि केँ सुमिरला॥
नाम लंकिनी एक निशाचरि। से कहय जाय कतय बिनु पुछारि॥२॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी मच्छड़ केर समान (छोट सन) रूप धारण कय नर रूप सँ लीला करनिहार भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी केँ स्मरण कय केँ लंका लेल चललाह। (लंका केर द्वारि पर) लंकिनी नाम केर एक राक्षसी रहैत छल। ओ कहलक- हमर पुछारि (बिना हमरा सँ पूछने) कतय चलि जा रहल छेँ?॥१॥
जानें नहि तूँ मर्म सठ मोर। मोर अहार जहाँ केर चोर॥
मुक्का एक महा कपि हनलनि। खून बोकरैत ओकरा ओंघरेलनि॥२॥
भावार्थ : हे मूर्ख! तोरा हमर भेद नहि पता छौक, जतय धरि चोर सब अछि ओ सब हमर आहार थिक। महाकपि हनुमान्‌जी ओकरा एक मुक्का मारलनि, जाहि सँ ओ खूनक उल्टी करैत ओतहि ओंघरा गेल॥२॥
पुनि सम्भारि उठल ओ लंका। जोड़ि हाथ करय विनय सशंका॥
जखन रावण केँ ब्रह्मा वर देला। जाइत काल मोरा नाश बतेला॥३॥
भावार्थ : ओ लंकिनी फेर अपना केँ संभारिकय उठेलक आर डरक मारे हाथ जोड़िकय विनती करय लागल। (ओ बाजल-) रावण केँ जखन ब्रह्माजी वर देने छलाह, तखन जाइत समय हमरा ओ राक्षस केर विनाश केर यैह पहिचान बता देने छलाह जे -॥३॥
बिकल हुएं तूँ कपि केर मारे। तखन जान निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुण्य बहूते। देखेउँ नयन राम केर दूते॥4॥
भावार्थ : जखन तूँ बंदर केर मारला सँ व्याकुल भऽ जाएं, तखन तूँ राक्षस सभक संहार भेल बुझि लिहें। हे तात! हमर बहुते पुण्य अछि जे हम श्री रामचंद्रजी केर दूत (अहाँ) केँ नेत्र सँ देखि पेलहुँ॥४॥
दोहा :
तात स्वर्ग आ मोक्ष सुख धरू तुला एक अंग।
तूल्य न से दुनू मिलि जे सुख क्षण सतसंग॥४॥
भावार्थ : हे तात! स्वर्ग और मोक्ष केर सब सुख केँ तराजू केर एक पलड़ा पर राखल जाय, तैयो ओ दुनू मिलिकय (दोसर पलड़ा पर राखल गेल) ओहि सुख केर बराबर नहि भऽ सकैत छैक जे क्षण मात्र केर सत्संग सँ होइत छैक ॥४॥
चौपाई :
प्रबिसि नगर करू सब काजा। हृदय मे राखू कोसलके राजा॥
गरल सुधा रिपु करत मित्रता। गोखुर सिंधु अग्नि भेटत शितलता॥१॥
भावार्थ : अयोध्यापुरी केर राजा श्री रघुनाथजी केँ हृदय मे राखने नगर मे प्रवेश कय केँ सब काज करू। ओकरा लेल विष अमृत भऽ जाइत छैक, शत्रु मित्रता करय लगैत छैक, समुद्र गायक खुर बराबर भऽ जाइत छैक आर अग्नि मे शीतलता आबि जाइत छैक॥१॥
गरुड़ सुमेरु धूलकण भाँति। राम कृपा कय देखथि जाँहि॥
अति लघु रूप धेलनि हनुमान। पैसल नगर सुमिरि भगवान॥२॥
भावार्थ : और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत ओकरा लेल धूरा समान बनि जाइत छैक, जेकरा श्री रामचंद्रजी एक बेर कृपा कय केँ देखि लैत छथिन। तखन हनुमान्‌जी सेहो बहुते छोट रूप धारण कयलनि आर भगवान्‌ केर स्मरण कय केँ नगर मे प्रवेश कयलनि॥२॥
मंदिर मंदिर प्रति कय सोधल। देखलनि जहँ तहँ अगनित जोधक॥
गेला दसानन मंदिर फेरो। अति विचित्र कहाय न अनेरो॥३॥
भावार्थ : ओ एक-एक (प्रत्येक) महल केर खोज कयलनि। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखलनि। फेर ओ रावण केर महल मे गेलाह। ओ अत्यंत विचित्र छल, जेकर वर्णन अनेरो संभव नहि॥३॥
सयन कयल देखलनि कपि ओकरा। मंदिर मे नहि बैदेही केँ देखला॥
भवन एक फेर देखलनि सुहाओन। हरि मंदिर ओतय अलग बनाओल॥४॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी फेर ओहि (रावण) केँ शयन कयने देखलनि, परंतु महल मे जानकीजी नहि देखाइ देलीह। फेर एक सुंदर महल देखाय देलकनि। ओतय (ओहिठाम) भगवान्‌ केर एक अलग मंदिर बनायल गेल छल॥४॥

हनुमान्‌-विभीषण संवाद

दोहा :
रामायुध अंकित गृह शोभा बरन न जाय।
नव तुलसीक बृंद ओतय देखि हरख कपिराय॥५॥
भावार्थ : ओ महल श्री रामजी केर आयुध (धनुष-बाण) केर चिह्न सँ अंकित छल, ओकर शोभा वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। ओतय नव-नव तुलसी गाछक समूह केँ देखिकय कपिराज श्री हनुमान्‌जी हर्षित भेलाह॥५॥
चौपाई :
लंका निशिचर निकर निवास। एतय कतय सज्जन केर बास॥
मन मन तर्क करय कपि लगला। ताहि समय विभीषण जगला॥१॥
भावार्थ : लंका तँ राक्षसक समूह केर निवास स्थान छी। एतय सज्जन (साधु पुरुष) केर निवास कतय? हनुमान्‌जी मने-मन एहि तरहक तर्क करयल लगलाह। ताहि समय विभीषणजी जगलाह॥१॥
राम राम कहि सुमिरन कयला। हृदय हरखि कपि सज्जन चिन्हला॥
एकरा सँ हठे करब चिन्ह जानि। साधु सँ होइ न कारज हानि॥२॥
भावार्थ : ओ (विभीषण) राम नाम केर स्मरण (उच्चारण) कयलनि। हनुमान्‌जी हुनका सज्जन जानि आरो बेसी हृदय मे हर्षित भेलाह। (हनुमान्‌जी आब विचार कयलनि जे) हिनका सँ हठ कय केँ (अपना दिश सँ) परिचय करब, कियैक तँ साधु सँ कार्य केर हानि नहि होइत छैक। (प्रत्युत लाभ टा होइत छैक)॥२॥
विप्र रूप धय वचन सुनेला। सुनिकय विभीषन उठि ओतय एला॥
कय प्रणाम पूछलथि कुशलमय। विप्र कहू निज कथा बुझा कय॥3॥
भावार्थ : ब्राह्मण केर रूप धय हनुमान्‌जी हुनका सँ अपन बात कहलनि (आवाज लगौलनि)। सुनितहि विभीषणजी उठिकय ओतय एलाह। प्रणाम कय केँ कुशल-क्षेम पूछलथि (आर कहलथि) – हे ब्राह्मणदेव! अहाँ अपन सब बात (कथा) बुझाकय कहू॥३॥
कि अहाँ हरि दास सँ कियो। हमर हृदय मे प्रीति अति हो॥
कि अहाँ रामु दीन अनुरागी। एलहुँ मोरा करय बड़भागी॥४॥
भावार्थ : कि अहाँ हरिभक्त मे सँ कियो छी की? कियैक तँ अहाँ केँ देखिकय हमर हृदय मे अत्यंत प्रेम उमड़ि रहल अछि। आ कि, अहाँ दीन (दुःखी) सँ प्रेम करनिहार स्वयं श्री रामजी छी जे हमरा बड़भागी बनाबय (घरे-बैसल दर्शन दय कृतार्थ करय) आयल छी? ॥४॥
दोहा :
तखन हनुमान कहलनि राम कथा निज नाम।
सूनि दुइके तन पुलकित सुमिरि मगन गुण गाम॥६॥
भावार्थ : तखन हनुमान्‌जी द्वारा श्री रामचंद्रजीक सब कथा कहिकय अपन नाम बतेलनि। सुनिते दुनूक शरीर पुलकित भऽ गेलनि आर एना श्री रामजीक गुण समूह केँ स्मरण कय केँ दुनूक मन (प्रेम और आनंद मे) मगन भऽ गेलनि॥६॥
चौपाई :
सुनू पवनसुत रहब हमर ई। जेना दसनन्हि मे जीभ बेचारी॥
तात किमपि मोरा जानि अनाथ। करता कृपा भानुकुल नाथ॥१॥
भावार्थ : (विभीषणजी कहलखिन-) हे पवनपुत्र! हमर रहनाय सुनू। हम एतय ओहिना रहैत छी जेना दाँतक बीच मे बेचारी जीभ रहैत अछि। हे तात! हमरा अनाथ जानिकय सूर्यकुल केर नाथ श्री रामचंद्रजी कि कहियो हमरा पर कृपा करता?॥१॥
तामस तन किछु साधन नहि य। प्रीति न पद सरोज मन मे य॥
आब मोरा ई भरोस हनुमंत। बिनु हरिकृपा मिलथि नहि संत॥२॥
भावार्थ : हमर तामसी (राक्षस) शरीर भेलाक कारण साधन तँ किछु बनैत नहि अछि आर नहिये मोन मे श्री रामचंद्रजी केर चरणकमल मे प्रेमहि अछि, तैयो हे हनुमान्‌! आब हमरा विश्वास भऽ गेल जे श्री रामजीक हमरा पर कृपा छन्हि, कियैक तँ हरि केर कृपा बिना संत नहि भेटैत छथि॥२॥
जेँ रघुबीर अनुग्रह कयल। तेँ अहाँ मोर दरस हठ देल॥
सुनू विभीषण प्रभु केर रीति। करथि सदा सेवक पर प्रीति॥३॥
भावार्थ : जखन श्री रघुवीर कृपा कयला अछि तखनहि तऽ अपने हमरा हठ कय केँ (अपनहि दिश सँ) दर्शन देल अछि। (हनुमान्‌जी कहलखिन-) हे विभीषणजी! सुनू, प्रभु केर यैह रीति छन्हि जे ओ सेवक पर सदैव स्नेह रखैत छथि॥३॥
कहू कोन हम परम कुलीन। कपि चंचल सबटा विधि हीन॥
प्रात लैछ जे नाम हमार। तेहि दिन ओकरा नै भेटय अहार॥४॥
भावार्थ : भला कहू, हमहीं कोन बड़का कुलीन छी? (जाति केर) चंचल बानर छी आर सब प्रकार सँ नीच छी, प्रातःकाल जे कियो हमरा सभक (बंदर) केर नाम लय लैत अछि ताहि दिन ओकरा आहारो नहि भेटैछ॥४॥
दोहा :
एहेन अधम हम सखा सुनू हमरहु पर रघुवीर।
कयला कृपा सुमिरि गुण भरल विलोचन नीर॥७॥
भावार्थ : हे सखा! सुनू, हम एहेन अधम छी, तथापि श्री रामचंद्रजी तँ हमरा ऊपर कृपा कयलनि अछि। भगवान्‌ केर गुणक स्मरण कय केँ हनुमान्‌जी केर दुनू आँखि मे (प्रेमाश्रु केर) जल भरि एलनि॥७॥
चौपाई :
जनितहुँ एहेन स्वामी जे बिसरत। दुःखी रहत जहिं-तहिं से भटकत॥
एहि विधि कहथि राम गुन ग्राम। पाबथि अनिर्बाच्य विश्राम॥१॥
भावार्थ : जे जनितो-बुझितो जे एहेन स्वामी (श्री रघुनाथजी) केँ बिसरिकय (विषय केर पाछाँ) भटकैत फिरैत अछि, से दुःखी कियैक नहि हो! एहि तरहें श्री रामजी केर गुण समूह केँ कहैत ओ अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त कयलथि॥१॥
पुनि सब कथा विभीषण कहलथि। जेहि विधि जनकसुता ओतय रहथि॥
तखन हनुमंत कहल सुनु भ्राता। देखय चाहब जानकी माता॥२॥
भावार्थ : फेर विभीषणजी द्वारा श्री जानकीजी जाहि ढंग सँ ओतय (लंका मे) रहैत छलीह, से सब बात कहलनि। तखन हनुमान्‌जी कहलखिन – हे भाइ सुनू, हम जानकी माता केँ देखय चाहैत छी॥२॥

हनुमान्‌जी केर अशोक वाटिका मे सीताजी केँ देखिकय दुःखी होयब आर रावण केर सीताजी केँ भय देखायब

युक्ति विभीषन सब सुनेलनि। चलथि पवनसुत विदाई लेलनि॥
कय वैह रूप गेला फेर ओहिठाँ। वन अशोक सीता रहथि जहाँ॥३॥
भावार्थ : विभीषणजी द्वारा (माता केर दर्शनक) सब युक्ति (उपाय) कहल गेल। तखन हनुमान्‌जी विदाई लय केँ चललथि। फेर ओ (पहिने केर मच्छड़ समान छोट) रूप धय केँ ओतय गेलाह, जाहि अशोक वन (वन केर जाहि भाग मे) सीताजी रहथि॥३॥
देखि मनहि मे कयल प्रणाम। बैसलि बीति जाय निशि याम॥
दुब्बर देह सिर केस जटा सन। जपथि हृदय रघुपति गुण सदिखन॥४॥
भावार्थ : सीताजी केँ देखिकय हनुमान्‌जी ने हुनका मनहि सँ प्रणाम कयलनि। हुनका बैसले-बैसल रात्रिक चारि पहर बीति जाइत छल। शरीर दुब्बर भऽ गेल छल, माथ पर केस जटा समान भऽ गेल छल। हृदय मे ओ सदिखन श्री रघुनाथ जीक गुण समूह केर जाप (स्मरण) करैत रहैत छलीह॥4॥
दोहा :
निज पद नयन धेने मन राम पद कमल लीन।
परम दुःखी भेला पवनसुत देखि जानकी दीन॥८॥
भावार्थ : श्री जानकीजी अपन आँखि अपनहि पैर मे लगौने छलीह (नीचाँ दिशि ताकि रहल छलीह) और मन श्री रामजी केर चरणकमल मे लीन छल। जानकीजी केँ दीन (दुःखी) देखिकय पवनपुत्र हनुमान्‌जी बहुते दुःखी भेलाह॥८॥
चौपाई :
तरु पल्लव मे रहला नुकायल। करैत विचार जाय कि कायल॥
तखनहि रावण ओतय आयल। संग ओकर कते स्त्री सजायल॥१॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी गाछक पात मे नुकायल रहला आर विचार करैत रहला कि आबि कि करू (जाहि सँ हिनकर दुःख दूर करी)।  ताहि समय बहुते रास स्त्रि लोकनिक संग सजि-धजिकय रावण ओतय आयल॥१॥
बहु विधि दुष्ट सीता समझाय। साम दान भय भेद देखाय॥
कह रावण सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥२॥
भावार्थ : ओ दुष्ट सीताजी केँ बहुतो प्रकार सँ बुझेलक। साम, दान, भय और भेद देखेलक। रावण कहलक – हे सुमुखि! हे सयानी! सुनू! मंदोदरी आदि सब रानी केँ -॥२॥
अहाँक अनुचरीं ई प्रण थिक मोर। एक बेर बिलोकु मोरा ओर॥
तृन धय ओट कहथि बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥३॥
भावार्थ : हम अहाँक दासी बना देब, ई हम प्रण थिक। अहाँ एक बेर हमरा देश देखू त सही! अपन परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्र जी केँ स्मरण करैत जानकीजी तिनका ओट (परदा) कय केँ कहयल लगलीह – ॥३॥
सुन दसमुख भगजोगनी प्रकाश। किन्नहु होइ कमलिनी विकास॥
यैह मन बुझे कहथि जानकी। दुष्ट न जान रघुवीर बाण की॥४॥
भावार्थ : हे दशमुख! सुन, भगजोगनीक (भुकभुकिया) प्रकाश सँ कहियो कमलिनी (फूल) फुला सकैत अछि? जानकीजी फेर कहैत छथिन – तूँ (अपना लेल सेहो) एहिना मन मे बुझि ले। रे दुष्ट! तोरा श्री रघुवीरजीक बाण केर खबरि नहि छौक॥४॥
रे पापी हरि अनलें तूँ सून मे। अधम निर्लज्ज लाज नहि मन मे॥५॥
भावार्थ : रे पापी! तू हमरा सूनसान मे हरि अनलें हँ। रे अधम! निर्लज्ज! तोरा लाज नहि अबैत छौक?॥५॥
दोहा :
अपना सुनि भगजोगनी सम राम केँ सूर्य समान।
कड़ा बोल खिसियाय कय तरुआरि केँ तान॥९॥
भावार्थ : अपना केँ भगजोगनी केर समान और रामचंद्रजी केँ सूर्य केर समान सुनिकय आ सीताजी केर कठोर वचन केँ सुनिकय रावण तलवार निकालिकय बड़ा तामस मे आबिकय बाजल -॥९॥
चौपाई :
सीता तूँ मोर केलें अपमान। काटब तोहर मूरी कृपान॥
नहि त चट द मान मोर बात। सुमुखि न हेतहु जीवन घात॥१॥
भावार्थ : सीता! तूँ हमर अपनाम केलें हँ। हम तोहर मुन्ड एहि कठोर कृपाण सँ काटि देबौक। नहि तँ (आबो) जल्दी हमर बात मानि ले। हे सुमुखि! नहि तँ जीवन सँ हाथ धोयए पड़तौक॥१॥
श्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
से भुज कंठ कि तोर तलवारा। सुन सठ यैह थिन सत्य प्रण मोरा॥२॥
भावार्थ : (सीताजी कहलखिन-) रे दशमुख! प्रभु केर भुजा जे श्याम कमल केर मालाक समान सुंदर और हाथीक सूँड केर समान (पुष्ट तथा विशाल) अछि, या तऽ ओ भुजा हमर कंठ मे पड़त या तोहर भयानक तलवारे। रे शठ! सुन, यैह हमर सच्चा प्रण अछि॥२॥
चंद्रहास हरु मोर परिताप। रघुपति बिरह आगि सँ जात॥
शितल तेज बहति बड़ धार। कह सीता हरु मोरे दुख भार॥3॥
भावार्थ : सीताजी कहैत छथिन – हे चंद्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी केर विरहक आगि सँ उत्पन्न हमर बड़ा भारी जलन केँ तूँ हरि ले, हे तलवार! तूँ शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहबैत छँ (अर्थात्‌ तोहर धारा ठंढा और तेज छौक), तूँ हमर दुःख केर बोझ केँ हरि ले॥३॥
सुनिते वचन फेरो मारय दौड़लक। मयपुत्री तखन नीति बुझेलक॥
कहय सब राक्षसनी बजाय। सीता बहु विधि त्रासल जाय॥४॥
भावार्थ : सीताजी केर से वचन सुनिते ओ हुनका मारय दौड़ि गेल। तखन मय दानव केर पुत्री (मन्दोदरी) नीति कहिकय ओकरा बुझेलीह। तखन रावण सब दासी (राक्षसनी) सब केँ बजाकय कहलक जे जाकय सीता केँ बहुतो तरहक डर (त्रास) देखाउ॥४॥
मास दिवस मोरे कहल न मानत। तँ तलवार खींचिकय काटत॥५॥
भावार्थ : यदि महीना भरि मे ई हमर कहल नहि मानत तऽ हम ई तलवार निकालिकय काटि देबैक॥५॥
दोहा :
भवन गेल दसकंधर एतय पिसाचिनि बृंद।
सीता त्रास देखा रहल धरय रूप बहु मंद॥१०॥
भावार्थ : (से कहिकय) रावण घर चलि गेल। एम्हर राक्षसनी सभक समूह बहुतो तरहक खराब रूप धय केँ सीताजी केँ डर देखबय लागल॥१०॥
चौपाई :
त्रिजटा नामक राक्षसी एक। राम चरण रति निपुण विवेक॥
सब केँ बजाय सुनेलक सपना। सीते सँ सब कर हित अपना॥१॥
भावार्थ : ओहि मे एकटा त्रिजटा नामक राक्षसी छल। ओकरा श्री रामचंद्रजीक चरण मे प्रीति छलैक और ओ विवेक (ज्ञान) मे निपुण छल। ओ सब केँ बजाकय अपन स्वप्न सुनेलक आ कहलक – सीताजी केर सेवा कय केँ अपन कल्याण कय ले॥१॥
सपना मे बानर लंका जारल। राक्षसक सेना सब मारल॥
गदहा चढल नग्न दसशीश। मुंडित सिर खंडित भुज बीस॥२॥
भावार्थ : सपना मे (हम देखलहुँ जे) एकटा बंदर लंका जरा देलक। राक्षसक सब सेना मारि देल गेल। रावण नग्न अछि आर गदहा पर सवार अछि। ओकर केश कटायल छैक, बीसो हाथ कटल छैक॥२॥
एहि तरहें ओ दक्षिण दिशि जाय। लंका मानू विभीषन पाय॥
नगर भरि रघुबीर दोहाय। पुनः राम सीता केँ बजाय॥३॥
भावार्थ : एहि तरहें सँ ओ दक्षिण (यमपुरी केर) दिशा केँ जा रहल अछि आर मानू लंका विभीषण पाबि गेल अछि। नगर मे श्री रामचंद्रजीक दोहाय देल जा रहल अछि। तखन श्रीराम सीताजी केँ बजावा पठौलनि अछि॥३॥
ई सपना हम कही पुकारी। होयत सत्य जाइत दिन चारी॥
ओकर वचन सुनि केँ सब डरल। जनकसुता केर चरणन्हि पड़ल॥४॥
भावार्थ : हम पुकारिकय (निश्चय केर साथ) कहैत छी कि ई स्वप्न चारि (किछुए) दिन बाद सत्य भऽ कय रहत। ओकर वचन सुनिकय ओ सब राक्षसी सब डरा गेल और जानकीजी केर चरण मे खसि पड़ल॥४॥

श्री सीता-त्रिजटा संवाद

दोहा :
जहिं तहिं गेल तखन सबटा सीता मन मे सोच।
मास दिन केर बितिते मारत निशिचर पोच॥११॥
भावार्थ : तखन (ओकर बाद) ओ सब जहाँ-तहाँ चलि गेल। सीताजी मन मे सोच करय लगलीह जे एक महीना बीत गेलापर नीच राक्षस रावण हमरा मारत॥११॥
चौपाई :
त्रिजटा सँ कहली कर जोड़ि। मातु विपत्ति संगी अहीं मोरि॥
तजी देह करु जल्द उपाय। दुसह विरह आब सहल नहि जाय॥१॥
भावार्थ : सीताजी हाथ जोड़िकय त्रिजटा सँ कहली – हे माता! अहाँ हमर विपत्तिक संगिनी छी। जल्दी कोनो एहेन उपाय करू जाहि सँ हम शरीर छोड़ि सकी। विरह असह्म भऽ गेल अछि, आब ई सहल नहि जाइत अछि॥१॥
आनि काठ रचु चिता बनाउ। मातु अनल पुनि देह लगाउ॥
सत्य करू मम प्रीति सयानी। सुनय के श्रवन सूल सन वाणी॥२॥
भावार्थ : काठ आनि चिता बनाकय सजा दिअ। हे माता! फेर ओहि मे आग लगा दिअ। हे सयानी! अहाँ हमर प्रीति केँ सत्य कय दिअ। रावण केर शूल समान दुःख दयवाली बोल-वचन (वाणी) कान सँ के सुनय?॥२॥
सुनैत वचन पैर पकड़ि समझाबय। प्रभु प्रताप बल सुयश सुनाबय॥
राति अग्नि कतय सुनु सुकुमारी। से कहि ओ निज भवन सिधारी॥३॥
भावार्थ : सीताजीक वचन सुनिकय त्रिजटा हुनकर चरण पकड़िकय हुनका बुझेलक आर प्रभुक प्रताप, बल और सुयश सुनेलक। (ओ कहलक -) हे सुकुमारी! सुनू, रात्रि केर समय आगि नहि भेटत। एतेक कहिकय ओ अपन घर चलि गेल॥३॥
कहय सीता विधि भेल प्रतिकूल। भेटय न आगि मिटय नहि सूल॥
देखाय प्रकट आकाश अंगारा। मुदा न आबय एकहु तारा॥४॥
भावार्थ : सीताजी (मनहि मन) कहय लगलीह – (कि करू) विधाते विपरीत भऽ गेला अछि। नहि आग भेटत, नहि पीड़ा मिटत। आकाश मे अंगार (आगि) प्रकट देखाय दय रहल अछि, धरि पृथ्वी पर एकहु टा तारा नहि अबैत अछि॥४॥
अग्नि समान चन्दो नहि बरसय। मानू मोरा हतभागी बुझय॥
सुनू विनय मोर वृक्ष अशोक। सत्य नाम करु हरु मम शोक॥५॥
भावार्थ : चंद्रमा अग्निमय अछि, मुदा ओहो मानू हमरा हतभागी बुझिकय आगि नहि बरसबैत अछि। हे अशोक वृक्ष! अहाँ हमर विनती सुनू। हमर शोक केँ हरिकय अपन नाम ‘अशोक’ केँ सत्य करू॥५॥
नूतन किसलय अनल समान। दय अगिन नहि करय निदान॥
देखि परम विरहाकुल सीता। से क्षण कपिक कलप सन बिता॥६॥
भावार्थ : अहाँक नव-नव कोमल पत्ता अग्नि केर समान अछि। अग्नि दैत विरह रोग केर अंत नहि कय रहल छी। सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखिकय ओ क्षण हनुमान्‌जी केँ कल्प केर समान बितल॥६॥

श्री सीता-हनुमान्‌ संवाद

सोरठा :
कपि कय हृदय विचार देलनि मुद्रिका सोझाँ खसा।
जेना अशोक अंगार देला हरखि उठि हाथ लेली॥१२॥
भावार्थ:- तखन हनुमान्‌जी हदय मे विचारिकय (सीताजीक सामने) अँगूठी खसा देलनि, मानू अशोक अंगार दय देला (से बुझिकय) सीताजी हर्षित होइत उठिकय ओ हाथ मे लय लेलनि॥१२॥
चौपाई :
फेर देखली मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चित्त मुद्रिका केँ चिन्हली। हर्ष विषाद हृदय अकुलेली॥१॥
भावार्थ:- तखन ओ राम-नाम सँ अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर औंठी देखली। औंठी केँ चिन्हिकय सीताजी आश्चर्यचकित होइत ओकरा देखय लगलीह। हर्ष तथा विषाद सँ हृदय अकुला उठली॥१॥
जीति के सकय अजय रघुराइ। माया सँ ई रचल नहि जाइ॥
सीता मन बिचार करि नाना। मधुर वचन बजला हनुमाना॥२॥
भावार्थ:- (ओ सोचय लगलीह – ) श्री रघुनाथजी तँ सर्वथा अजेय छथि, हुनका के जीति सकैत अछि? आर माया सँ एहि (माया केर उपादान सँ सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) औंठी केँ बनाइलो नहि जा सकैत अछि। सीताजी मन मे अनेक प्रकार केर विचार कय रहल छलीह, ताहि समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बजलाह – ॥२॥
रामचंद्र गुण बर्णय लगला। सुनितहि सीता केर दुख भगला॥
लगली सुनय श्रवन मन तानि। शुरू-एखन तक कथा बखानि॥3॥
भावार्थ:- ओ श्री रामचंद्रजी केर गुणक वर्णन करय लगलाह, (जेकरा) सुनिते सीताजीक दुःख भागि गेलनि। ओ कान और मन (वैह कथा प्रति) तानिकय सुनय लगलीह। हनुमान्‌जी शुरू सँ लैत एखन धरि के सब कथा कहि सुनेलनि॥३॥
श्रवनामृत जे ई कथा सुनेलहुँ। कहू से प्रगट कियै नहि भेलहुँ॥
तयपर हनुमंत लऽग मे एलनि। विस्मित सिया मुंह फेरि लेलनि॥४॥
भावार्थ:- (सीताजी बजलीह – ) जे कानक लेल अमृत रूप ई सुंदर कथा कहलहुँ, से हे भाइ! प्रकट कियैक नहि होइत छी? तखन हनुमान्‌जी लऽग आबि गेलाह। हुनका देखिकय सीताजी विस्मय सँ मुंह फेरि बैसि गेलीह (हुनकर मन मे आश्चर्य भेलनि)॥४॥
रामदूत हम मातु जानकी। सत्य शपथ करुणानिधान की॥
ई मुद्रिका मातु हम आनल। देला राम जे अहीं ल निशानी॥५॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी कहलखिन – ) हे माता जानकी! हम श्री रामजी केर दूत थिकहुँ। करुणानिधान केर सच शपथ लैत कहि रहल छी, हे माता! ई औंठी हमहीं अनलहुँ अछि। श्री रामजी हमरा अहींक वास्ते ई निशानी देलनि अछि॥५॥
नर बानर केर संग कहु केना। कहल कथा भेल संगति जेना॥६॥
भावार्थ:- (सीताजी पूछलखिन – ) नर और वानर केर संग कहू केना भेल? तखन हनुमानजी जेना-जेना संग भेल से सब कथा कहलखिन॥६॥
दोहा :
कपिक वचन सप्रेम सुनी उपजल मन विश्वास॥
जानल मन क्रम वचन ई कृपासिंधु केर दास॥१३॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केर प्रेमयुक्त वचन सुनिकय सीताजीक मन मे विश्वास उत्पन्न भऽ गेलनि, ओ जानि लेली जे ई मन, वचन और कर्म सँ कृपासागर श्री रघुनाथजी केर दास छथि॥१३॥
चौपाई :
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़। सजल नयन पुलकावलि बाढ़॥
विरह समुद्र डूबैत हनुमान। भेलहुँ मोरा जहाज समान॥१॥
भावार्थ:- भगवान केर जन (सेवक) जानिकय अत्यंत गाढ़ा प्रीति भऽ गेलनि। आँखि मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि गेलनि और शरीर अत्यंत पुलकित भऽ गेलनि। (सीताजी कहलखिन – ) हे तात हनुमान्‌! विरहसागर मे डूबैत हमरा लेल अहाँ जहाज समान भेलहुँ॥१॥
कहू कुशल आब जाय बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराइ। कपि केहि हेतु धेलनि निठुराइ॥२॥
भावार्थ:- हम बलिहारी जाइत छी, आब छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित खर (दुष्ट) केर शत्रु सुखधाम प्रभु केर कुशल-मंगल कहू। श्री रघुनाथजी तऽ कोमल हृदय और कृपालु छथि। फेर हे हनुमान्‌! ओ कोन कारणे एना निष्ठुरता धारण कय लेलनि अछि?॥२॥
सहज बाइन सेवक सुखदायक। कहियो कि यादि करथि रघुनायक॥
कहियो नयन मोरा शीतल तात। होयत दरस श्याम मृदु गात॥३॥
भावार्थ:- सेवक केँ सुख देनाय हुनकर स्वाभाविक बाइन छन्हि। से श्री रघुनाथजी कि कहियो हमरा यादो करैत छथि कि? हे तात! कि कहियो हुनकर कोमल साँवला अंग देखिकय हमर नेत्र शीतल होयत?॥३॥
बजलो न जाय नैन भरि गेलनि। आह नाथ मोरा साफ बिसरलनि॥
देखि परम विरहाकुल सीता। बजला कपि मृदु वचन विनीता॥४॥
भावार्थ:- (मुँह सँ) वचन नहि निकलैत छन्हि, नेत्र मे (विरह केर नोरक) जल भरि एलनि। (बड़ा दुःख सँ ओ बजलीह – ) हा नाथ! अहाँ हमरा साफे बिसरा देलहुँ! सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखिकय हनुमान्‌जी कोमल और विनीत वचन बजलाह – ॥४॥
मातु कुशल प्रभु अनुज समेत। अहींक दुखे दुखी कृपानिकेत॥
जुनि जननी मन छोट करू एना। अहाँ सँ प्रेम राम केँ दूना॥५॥
भावार्थ:-हे माता! सुंदर कृपा केर धाम प्रभु भाइ लक्ष्मणजी सहित (शरीर सँ) कुशल छथि, मुदा अहींक दुःख सँ दुःखी छथि। हे माता! मन छोट नहि करू। श्री रामचंद्र जी केर हृदय मे अहाँ दुगुना प्रेम छन्हि॥५॥
दोहा :
रघुपति केर संदेश अब सुनु जननी धरि धीर।
से कहि कपि गदगद भेला भरल विलोचन नीर॥१४॥
भावार्थ:- हे माता! आब धीरज धय कय श्री रघुनाथजीक संदेश सुनू। से कहिकय हनुमान्‌जी प्रेम सँ गद्गद भऽ गेलाह। हुनकर नेत्र मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि एलनि॥१४॥
चौपाई :
कहलनि राम वियोग फेर सीता। हमरा भेल सकल विपरीता॥
नव तरु किसलय मानू कृसानू। कालनिशा सम निशि शशि भानू॥१॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी बजलाह – ) श्री रामचंद्रजी कहलनि जे हे सीते! अहाँक वियोग मे हमरा लेल सब पदार्थ प्रतिकूल भऽ गेल अछि। वृक्षक नव-नव कोमल पत्ता मानू अग्नि केर समान, रात्रि कालरात्रि केर समान, चंद्रमा सूर्य केर समान॥१॥
कमल वन लागय भाल वन जेहेन। मेघ तपत तेल बरखा तेहेन॥
जे हित रहथि करथि से पीड़ा। साँप फोंफ सन त्रिविध समीरा॥२॥
भावार्थ:- आर कमलक वन भालक वन केर समान भऽ गेल अछि। मेघ मानू खौलैत तेल बरखा रहल अछि। जे करयवला रहथि, वैह सब आब पीड़ा देनिहार लगैत छथि। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप केर फोंफ समान (जहरीला और गरम) भऽ गेल अछि॥२॥
कहि देला सँ दुख किछु घटत। कहि केकरा कियो नहि बुझत॥
तत्व प्रेमक मोरा आ तोरा। जानय प्रिये एक मन मोरा॥३॥
भावार्थ:- मन केर दुःख कहि देला सँ सेहो किछु घटि जाइत छैक। मुदा कहू केकरा? ई दुःख कियो बुझिते नहि अछि। हे प्रिये! हमर-अहाँक प्रेम केर तत्त्व (रहस्य) एकटा हमरहि मन टा जनैत अछि॥३॥
से मन सदा रहत अहाँ पास। जानु प्रीति रसु एतबहि रास॥
प्रभु संदेश सुनथि वैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहि केही॥४॥
भावार्थ:- आर ओ मन सदिखन अहाँक पास रहैत अछि। बस, हमर प्रेम केर सार एतबे रास बात मे बुझि जाउ। प्रभु केर संदेश सुनिते जानकीजी प्रेम मे मग्न भऽ गेलीह। हुनका शरीर केर कोनो सुधि नहि रहलनि॥४॥
कहय कपि कनि धीर धरू माता। सुमिरू राम सेवक सुखदाता॥
बस सोचू रघुपति प्रभुताइ। सुनि मोरा वचन तजू कतराइ॥५॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी कहलखिन – हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू और सेवक सबकेँ सुख देनिहार श्री रामजी केर स्मरण करू। श्री रघुनाथजी केर प्रभुता केर बारे मात्र मन मे सोचू और हमर वचन सुनिकय एहि कतरेबाक (डरेबाक) काज छोड़ि दियौक॥५॥
दोहा :
निशिचर सबटा पतंग जेना रघुपति बाण कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरू जरल निशाचर जानु॥१५॥
भावार्थ:- राक्षस सभक समूह पतंग (गुड्डी) केर समान और श्री रघुनाथजी केर बाण अग्नि केर समान अछि। हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू और राक्षस सभ केँ जरले बुझू॥१५॥
चौपाई :
यदि रघुवीर अहाँक सुधि बुझितथि। ओ कनियो देरी नहि करितथि॥
राम बाण रवि उदय जानकी। राक्षस शक्ति अन्हार रहत की॥१॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी जँ अहाँक समाचार पहिने पाबि गेल रहितथि त ओ कनिकबो देरी नहि करितथि। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य केर उदय भेला पर राक्षस लोकनिक शक्ति (सेना) केर अन्हार कतहु टिकि सकत?॥१॥
एखनहि मातु हम लय चलि जाय। प्रभु आज्ञा नहि राम दोहाय॥
किछुए दिन जननी धरू धीर। कपिन्ह सहित औता रघुवीर॥२॥
भावार्थ:- हे माता! हम त एखनहिं अहाँ केँ एतय सँ लय चलि जायब, मुदा श्री रामचंद्रजी केर शपथ, हमरा प्रभु (हुनकर) आज्ञा नहि अछि। (अतः) हे माता! किछु दिन आरो धीरज धरू। श्री रामचंद्रजी वानरसेना सहित एतय औता॥२॥
निशिचर मारि अहाँ केँ लय जेता। तिन लोक नारदादि यश गेता॥
छथि सुत कपि सब अहींक समान। राक्षसगण अति भट बलवान॥३॥
भावार्थ:- और राक्षस सभकेँ मारिकय अहाँ केँ लय जेता। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनू लोक मे हुनकर यश गेता। (सीताजी कहलखिन -) हे पुत्र! सब वानर अहींक समान (छोट-छोट) हेता, राक्षस सब त बड़ा बलवान आ योद्धा सब अछि॥३॥
मोरा हृदय परम संदेह। सुनि कपि प्रगट केलनि निज देह॥
कनक भूधराकार शरीर। समर भयंकर अतिबल वीर॥४॥
भावार्थ:- अतः हमरा हृदय मे बड़ा भारी संदेह होइत अछि (जे अहीं जेहेन वानर राक्षस सबकेँ कोना जीतत!)। ई सुनिकय हनुमान्‌जी अपन शरीर प्रकट कयलाह। सोनाक पर्वत (सुमेरु) केर आकारक (अत्यंत विशाल) शरीर छल, जे युद्ध मे शत्रु सभक हृदय मे भय उत्पन्न करयवला, अत्यंत बलवान्‌ और वीर छल॥४॥
सीता मन भरोस तखन भेलनि। पुनि लघु रूप पवनसुत धेलनि॥५॥
भावार्थ:- तखन (हुनका देखिकय) सीताजीक मन मे विश्वास भेलनि। हनुमान्‌जी फेरो छोट रूप धारण कय लेलाह॥५॥
दोहा :
सुनु माता शाखामृग नहि बल बुद्धि विशाल।
प्रभु प्रताप सँ गरुड़ो केँ खाय परम लघु ब्याल॥१६॥
भावार्थ:- हे माता! सुनू, वानर (शाखामृग) मे बहुत बल-बुद्धि नहि होइछ, मुदा प्रभु केर प्रताप सँ बहुते छोट साँप सेहो गरुड़ केँ खा सकैत अछि। (अत्यंत निर्बल सेहो महान्‌ बलवान्‌ केँ मारि सकैत अछि)॥१६॥
चौपाई :
मन संतोष सुनथि कपि वाणी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आशीष देली राम प्रिय जानि। होउ तात बल शील निधान॥१॥
भावार्थ:- भक्ति, प्रताप, तेज और बल सँ सानल हनुमान्‌जीक वाणी सुनिकय सीताजीक मोन मे संतोष भेलनि। ओ श्री रामजीक प्रिय जानिकय हनुमान्‌जी केँ आशीर्वाद देली जे हे तात! अहाँ बल और शील केर निधान होउ॥१॥
अजर अमर गुणनिधि सुत होउ। करहु बहुत रघुनायक छोहु॥
करहु कृपा प्रभु से सुनि कान। निर्भर प्रेम मगन हनुमान॥२॥
भावार्थ:- हे पुत्र! अहाँ अजर (बुढ़ापा सँ रहित), अमर और गुण केर खजाना होउ। श्री रघुनाथजी अहाँ पर बहुत कृपा करथि। ‘प्रभु कृपा करथि’ एना कान सँ सुनिते हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम मे मग्न भऽ गेलाह॥२॥
बेर बेर पद माथ नवेलनि। जोड़ि हाथ ई वचन ओ बजलनि॥
आब कृतकृत्य भेलउँ हम माता। आशीष अहाँक अमोघ विख्याता॥३॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी बेर-बेर सीताजीक चरण मे माथ नवेलनि आर फेर हाथ जोड़िकय कहलखिन – हे माता! आब हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। अहाँक आशीर्वाद अमोघ (अचूक) अछि, ई बात प्रसिद्ध छैक॥३॥
सुनू मातु मोरा लागल बड भूख। लागल देखि सुंदर फल रूख॥
सुनु सुत करय विपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥४॥
भावार्थ:- हे माता! सुनू, सुंदर फल लागल गाछ केँ देखिकय हमरा बड़ी जोर भूख लागि गेल अछि। (सीताजी कहलखिन -) हे बेटा! सुनू, बड़ा भारी योद्धा राक्षस एहि वन केर रखवारी करैत अछि॥४॥
तिनिकर भय माता मोरा नाहिं। जौं अहाँ सुख मानहु मन माहिं॥५॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी कहलखिन -) हे माता! यदि अहाँ मन मे सुख मानब (प्रसन्न भऽ) आज्ञा दी तऽ हमरा ओकर भय तऽ बिल्कुले नहि अछि॥५॥

हनुमान्‌जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनादक हनुमान्‌जी केँ नागपाश मे बान्हिकय सभा मे लऽ गेनाय

दोहा :
देखि बुद्धि बल निपुण कपि कहली जानकी जाउ।
रघुपति चरण हृदय धरू तात मधुर फल खाउ॥१७॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केँ बुद्धि और बल मे निपुण देखिकय जानकीजी कहली – जाउ। हे तात! श्री रघुनाथजी केर चरण केँ हृदय मे धारण कय केँ मीठ फल खाउ॥१७॥
चौपाई :
चलला नवा सिर पैसला बारी। फल खाथि गाछ तोड़थि भारी॥
रहय ओतय बहु भट रखवारी। किछु मारल किछु भागि बपहारी॥१॥
भावार्थ:- ओ सीताजी केँ माथ झुका प्रणाम कय केँ फूलबाड़ी मे पैसि गेला। फल खेलनि आ गाछ सब तोड़ल लगलाह। ओतय बहुत रास योद्धा रखवार सब छल। ओहि मे सँ किछु केँ मारि देलनि आ किछु बपहारि कटैत भागिकय रावण केँ आवाज देलक – ॥१॥
नाथ एक आयल कपि भारी। सैह अशोक वाटिका उजारी॥
खाय फल अरु गाछ उपाड़े। रक्षक मर्दि मर्दि कय मारे॥२॥
भावार्थ:- (और कहलक -) हे नाथ! एकटा बड़ा भारी बंदर आबि गेल अछि। ओ अशोक वाटिका उजाड़ि देलक। फल खेलक, गाछ सब उपाड़ि देलक आ रखवार सब केँ मसैल-मसैलकय मारि देलक॥२॥
सुनि रावण पठबे भट नाना। ताहि देखि गर्जथि हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संहारल। गेल पुकारैत किछु अधमारल॥३॥
भावार्थ:- ई सुनिकय रावण बहुते रास योद्धा पठेलक। ओकरा सब केँ देखिकय हनुमान्‌जी गर्जना कयलनि। हनुमान्‌जी सब राक्षस केँ मारि देलनि, किछु जे अधमरा छल, शोर करैते ओ वापस गेल॥३॥
पुनि पठेलक ओ अच्छकुमारा। चलल संग लय सुभट अपारा॥
आबत देखि गाछ धरि लड़ला। ओकरहु मारि महाधुनि गरजला॥४॥
भावार्थ:- फेर रावण अक्षयकुमार केँ पठेलक। ओ असंख्य श्रेष्ठ योद्धा सभ केँ संग लय केँ चलल। ओकरा अबैत देखिकय हनुमान्‌जी एकटा गाछ हाथ मे लैत ललकारलनि (लड़लनि) आर ओकरो मारिकय महाध्वनि (बड़ी जोर) सँ गर्जना कयलनि॥४॥
दोहा :
किछु मारल किछु मरदि देला किछु मिलेला धरि धूरि।
किछु पुनि जाय पुकार करय प्रभु बानर बल भूरि॥१८॥
भावार्थ:- ओ सेना मे सँ किछु केँ मारि देला, किछु केँ मसैल देला आर किछु केँ पकड़ि-पकड़िकय धूरा मे मिला देलाह। किछु तैयो वापस जाय केँ पुकार कयलक जे हे प्रभु! बानर बहुते बलवान् अछि॥१८॥
चौपाई :
सुनि पुत्र वध लंकेश रिसायल। मेघनाद बलवान पठायल॥
मारिहें जुनि बेटा बान्हे ओकरा। देखी कहाँक छी कपि तेकरा॥१॥
भावार्थ:- पुत्र केर वध सुनिकय रावण क्रोधित भऽ उठल आर ओ (अपन जेठ पुत्र) बलवान्‌ मेघनाद केँ पठेलक। (ओ कहलक जे -) हे पुत्र! मारिहें नहि, ओकरा बान्हिकय अनिहें। ओहि बंदर केँ देखल जाय जे कहाँ के छी॥१॥
चलल इंद्रजीत अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि ओकरो क्रोधा॥
कपि देखल दारुण भट आबैत। कटकटाइत गर्जैत ओ धावैत॥२॥
भावार्थ:- इंद्र केँ जीतनिहार अतुलनीय योद्धा मेघनाद चलल। भाई केर मारल जेनाय सुनि ओकरो क्रोध आबि गेल छलैक। हनुमान्‌जी देखला जे एहि बेर भयान योद्धा आयल अछि। तखन ओ कटकटाकय गर्जला आर दौड़ला॥३॥
अति विशाल तरु एक उपाड़े। बेरथ कयल लंकेश कुमारे॥
रहल महाभट ओकरा संगे। धरि धरि कपि मर्दथि निज अंगे॥३॥
भावार्थ:- ओ एक बहुत पैघ गाछ उखाड़ि लेलनि आर (ओकर प्रहार सँ) लंकेश्वर रावणक पुत्र मेघनाद केँ बिना रथ केँ कय देलनि। (रथ केँ तोड़िकय ओकरा बेरथ कय देलनि।) ओकरा संग जे बड़का-बड़का योद्धा छल ओकरो पकड़ि-पकड़िकय हनुमान्‌जी अपन शरीर सँ मसलय लगलाह॥३॥
सबकेँ ढालि ओकरा पर छुटला। मानू भिड़ल गजराज ओ युगला॥
मुक्का मारि चढ़े तरु जाय। ताहि एक क्षण मुरुछा आय॥४॥
भावार्थ:- ओकरा सबकेँ मारिकय फेर मेघनाद सँ लड़य लगलाह। (लड़ैत ओ एहेन बुझाइत छलाह)मानू दू गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गेल हो। हनुमान्‌जी ओकरा एक मुक्का मारिकय वृक्ष पर जा चढ़लाह। ओकरा क्षणभरिक लेल मूर्च्छा आबि गेलैक॥४॥
उठि बहुरि कयल बहु माया। जीति न सकय प्रभंजन जाया॥५॥
भावार्थ:- फेर उठिकय ओ बहुते माया रचौलक, परंतु पवन केर पुत्र ओकरा सँ जीतल नहि जाइत छथि॥५॥
दोहा :
ब्रह्म अस्त्र ओ साधलक कपि मन कयल विचार।
जौँ ने ब्रह्मसर मानैछी महिमा मिटत अपार॥१९॥
भावार्थ:- अंत मे ओ ब्रह्मास्त्र केर संधान (प्रयोग) कयलक, तखन हनुमान्‌जी मन मे विचार कयलथि जे यदि ब्रह्मास्त्र केँ नहि मानैत छी तऽ एकर अपार महिमा मेटा जायत॥१९॥
चौपाई :
ब्रह्मबाण कपि केँ ओ मारलक। खसितो स्वयं कपि कते संहारलक॥
ओ देखलक कपि मुरुछित भऽगेल। नागपाश सँ बान्हिकय लऽगेल॥१॥
भावार्थ:- ओ हनुमान्‌जी केँ ब्रह्मबाण मारलक, (जेकरा लगिते ओ गाछ सँ नीचाँ खसि पड़लाह), मुदा खसितो समय सेहो ओ बहुते रास सेना केँ मारि देलनि। जखन ओ देखलक जे हनुमान्‌जी मूर्छित भऽ गेला अछि, तखन ओ हुनका नागपाश सँ बान्हिकय लय गेल॥१॥
जिनक नाम जपि सुनू भवानी। भव बंधन काटय नर ज्ञानी॥
तिनक दूत कि बंध तर आबथि। प्रभु काज लेल कपि बन्हाबथि॥२॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथिन -) हे भवानी सुनू, जिनकर नाम जपिकय ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) केर बंधन केँ काटि दैत छथि, हुनकर दूत कहूँ बंधन मे आबि सकैत छथि? मुदा प्रभु केर कार्य वास्ते हनुमान्‌जी स्वयं अपना केँ बन्हबा लेलनि॥२॥
कपि बंधन सुनि निशिचर दौड़ल। कौतुक लेल सभा सब आयल॥
दसमुख सभा देखय कपि जाइ। कहि न जाइ किछु अति प्रभुताइ॥३॥
भावार्थ:- बंदर केर बान्हल जेबाक बात सुनिकय राक्षस सब दौड़ल आर कौतुक लेल (तमाशा देखबाक लेल) सब सभा मे आयल। हनुमान्‌जी जाय केँ रावणक सभा देखलथि। ओकर अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) किछु कहल नहि जाइत अछि॥३॥
कर जोड़ल सुर दिसिप विनीता। भृकुटि विलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन शंका। जेना सर्प बीच गरुड़ अशंका॥४॥
भावार्थ:- देवता और दिक्पाल हाथ जोड़ि बड़ा नम्रताक संग भयभीत भेल सब रावणक भौं ताकि रहल छलाह। (ओकर रुख देखि रहल छथि) ओकर एहेन प्रताप देखिकय पर्यन्त हनुमान्‌जीक मन मे कनिकबो डर नहि भेलनि। ओ एहेन निःशंक ठाढ़ रहला जेना साँपक समूह मे गरुड़ निःशंक-निर्भय रहैत अछि॥४॥

हनुमान्‌-रावण संवाद

दोहा :
कपि देखि के दसानन हँसल कहल दुर्बाद।
सुत वध सुरति कयल पुनि उपजल हृदय बिषाद॥२०॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केँ देखिकय रावण दुर्वचन कहैते खूबे हँसल। फेर पुत्र वध केर स्मरण करिते ओकर हृदय मे विषाद उत्पन्न भऽ गेल॥२०॥
चौपाई :
कहे लंकेश के तोँ बानर। उजाड़लें वन से बल छौ केकर॥
कि तोँ कान सुनल नाम मोरा। देखी बड़े अशंक शठ तोरा॥१॥
भावार्थ:- लंकापति रावण बाजल – रे वानर! तूँ के थिकेँ? केकर बल पर तूँ वन केँ उजाड़िकय नष्ट कय देलें? कि तूँ कहियो हमर नाम (यश) कान सँ नहि सुनलें? रे शठ! हम तोरा अत्यंत निःशंक देखि रहल छी॥१॥
मारलें निशिचर कुन अपराधा। कह शठ तोर न प्राण के बाधा॥
सुनू रावण ब्रह्मांड निकाया। पाय जिनक बल रचलक माया॥२॥
भावार्थ:- तूँ कोन अपराध सँ राक्षस सब केँ मारलें? रे मूर्ख! बता, कि तोरा प्राण जेबाक भय नहि छौक? (हनुमान्‌जी कहलखिन -) हे रावण! सुन, जिनकर बल पाबिकय माया संपूर्ण ब्रह्मांडों केर समूहक रचना करैत अछि,॥२॥
जिनके बल विरंचि हरि ईशा। पालथि सृजथि हरथि दसशीशा॥
जे बल शीश धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥३॥
भावार्थ:- जिनकर बल सँ हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि केर सृजन, पालन और संहार करैत छथि, जिनकर बल सँ सहस्रमुख (फण) वला शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड केँ सिर पर धारण करैत छथि,॥३॥
धरय जे विविध देह सुरत्राता। तोरहि सन शठ सिखवथि दाता॥
हर केर दंड कठिन से भंजन। सेहो समेत नृप दल मद गंजन॥4॥
भावार्थ:- जे देवता लोकनिक रक्षा लेल नाना प्रकारक देह धारण करैत छथि आर जे तोरा जेहेन मूर्ख सब केँ शिक्षा दयवला छथि, जे शिवजीक कठोर धनुष केँ तोड़ि देलनि आर ताहि के संग राजा सभक समूह केर गर्व सेहो चूर्ण कय देलनि॥४॥
खर दूषण त्रिसिरा आर बाली। वधे सकल अतुलित बलसाली॥५॥
भावार्थ:- जे खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि केँ मारि देलनि, जे सब के सब अतुलनीय बलवान्‌ छल,॥५॥
दोहा :
जिनके बल लवलेश सँ जितलें चराचर झारि।
तिनके दूत हम जा करी हरि अनलें प्रिये नारि॥२१॥
भावार्थ:- जिनकर लेशमात्र बल सँ तूँ समस्त चराचर जगत्‌ केँ जीत लेलें आर जिनकर प्रिय पत्नी केँ तूँ (चोरी सऽ) हरण कय केँ आनि लेलें, हम हुनकहि दूत छी॥२१॥
चौपाई :
जानी हम तोहर प्रभुताइ। सहसबाहु सँ पड़ल लड़ाइ॥
समर बालि सन कय जस पावा। सुनि कपि वचन बिहँसि बिहरावा॥१॥
भावार्थ:- हम तोहर प्रभुता केँ खूब जनैत छी, सहस्रबाहु सँ तोहर लड़ाई भेल छलौक आर बालि सँ युद्ध कयकेँ तूँ यश प्राप्त कएने छलें। हनुमान्‌जी केर (मार्मिक) वचन सुनिकय रावण हँसिकय बात टारि देलक॥१॥
खेलउँ फल प्रभु लागल भूख। कपि स्वभाव तेँ तोड़लउँ रूख॥
सभक देह परम प्रिय स्वामी। मारलक मोरा कुमारग गामी॥२॥
भावार्थ:- हे (राक्षसगणक) स्वामी, हमरा भूख लागल छल, (ताहि लेल) हम फल खेलहुँ और वानर स्वभाव केर कारण गाछ तोड़लहुँ। हे (निशाचरक) मालिक! देह सभक परम प्रिय छैक। कुमार्ग पर चलयवला (दुष्ट) राक्षस सब हमरा मारय लागल॥२॥
जे मोरा मारलक तेकरा हम मारल। ताहि पर तोहर पुत्र मोरा बान्हल॥
मोरा न किछु बान्हय के लाज। करय चाहि निज प्रभु केर काज॥३॥
भावार्थ:- तखन जे सब हमरा मारलक, हमहुँ ओकरे सब केँ मारलहुँ। ओहिपर तोहर बेटा हमरा बान्हि अनलक, (मुदा) हमरा बन्हाय जेबाक कोनो लाज नहि अचि। हम त अपन प्रभुक कार्य करय चाहैत छी॥३॥
विनती करी जोड़ि कर रावण। सुने मान तजि मोर सिखावन॥
देख तूँ अपन कुल के विचारि। भ्रम तजि भजे भगत भय हारि॥४॥
भावार्थ:- हे रावण! हम हाथ जोड़िकय तोरा सँ विनती करैत छी, तूँ अभिमान छोड़िकय हमर सीख सुने। तूँ अपन पवित्र कुल केर विचार कयकेँ देखे आर भ्रम केँ छोड़िकय भक्त भयहारी भगवान्‌ केँ भजे॥४॥
जिनकर डरे कालो य डराय। जे सुर असुर चराचर खाय॥
तिनकर वैर किन्नहुँ नहि करे। हमरा कहने जानकी दे रे॥५॥
भावार्थ:- जे देवता, राक्षस और समस्त चराचर केँ खा जाइत अछि, से काल पर्यन्त जिनकर डर सँ अत्यन्त डरायल रहैछ, हुनका सँ कदापि वैर नहि करे आर हमर कहला सँ जानकीजी केँ दय दे॥५॥
दोहा :
प्रनतपाल रघुनायक करुणा सिंधु खरारि।
जेमें शरण प्रभु राखथुन तोर अपराध बिसारि॥२२॥
भावार्थ:- खर केर शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागत केर रक्षक और दया केर समुद्र थिकाह। शरण गेलापर प्रभु तोहर अपराध बिसरिकय तोरा अपन शरण मे राखि लेथुन॥२२॥
चौपाई :
राम चरण पंकज हिय धरे। लंका अचल राज तूँ करे॥
ऋषि पुलस्ति यश विमल मयंक। ताहि शशि मे जुनि बने कलंक॥१॥
भावार्थ:- तूँ श्री रामजी केर चरण कमल केँ हृदय मे धारण करे और लंका केर अचल राज्य करे। ऋषि पुलस्त्यजी केर यश निर्मल चंद्रमा केर समान अछि। ओहि चंद्रमा मे तूँ कलंक नहि बने॥१॥
राम नाम बिनु बोल न सोहे। देख विचारि त्यागि मद मोहे॥
वस्त्र बिना नहि सोहे सुरारी। सब भूषन भूषित बड़ नारी॥२॥
भावार्थ:- राम नाम केर बिना वाणी शोभा नहि पबैत अछि, मद-मोह केँ छोड़, विचारिकय देख। हे देवता लोकनिक शत्रु! सब गहना सँ सजल रहितो सुन्दरी स्त्री पर्यन्त कपड़ा बिना (नंगटे) शोभा नहि पबैत अछि॥२॥
राम विमुख संपति प्रभुताइ। चलि गेल पाइ बिनु पाइ॥
सजल मूल जँ सरिता नाहीं। बरखा गेल तुरत सुखाहीं॥३॥
भावार्थ:- रामविमुख पुरुष केर संपत्ति और प्रभुता रहितो चलि जाइत अछि और ओकर पेनाय नहि पेनाय के समान अछि। जाहि नदीक मूल मे कोनो जलस्रोत नहि अछि (अर्थात् जेकरा केवल बरखा टा के आसरा अछि) ओ बरखा गेला पर तुरत सुझा जाइत अछि॥३॥
सुनु दसकंठ कही पैर रोपी। विमुख राम त्राता नहि कोपी॥
शंकर सहस विष्णु अज तोही। सकथि न राखि राम केर द्रोही॥४॥
भावार्थ:- हे रावण! सुने, हम प्रतिज्ञा कयकेँ कहैत छियौक जे रामविमुख केर रक्षा करयवला कियो नहि अछि। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा सेहो श्री रामजी के संग द्रोह करयवला तोरा नहि बचा सकता॥४॥
दोहा :
मोहमूल बहु शूल प्रद त्यागे तम अभिमान।
भजे राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥२३॥
भावार्थ:- मोहे जेकर मूल छैक एहेन (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देयवला, तमरूप अभिमान केर त्याग कय दे आर रघुकुल केर स्वामी, कृपा केर समुद्र भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी केर भजन करे॥२३॥
चौपाई :
यद्यपि कहे कपि अति हित वाणी। भगति विवेक विरति नीति सानी॥
बाजल विहँसि महा अभिमानी। भेटल मोरा कपि गुरु बड़ ज्ञानी॥१॥
भावार्थ:- यद्यपि हनुमान्‌जी भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति सँ सानल अत्यन्ते हित केर वाणी कहलखिन, तैयो ओ महान्‌ अभिमानी रावण बहुते हँसिकय (व्यंग्य सँ) बाजल जे हमरा ई बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु भेटल!॥१॥
मृत्यु निकट आयल दुष्ट तोरा। लगलें अधम सिखाबय मोरा॥
उलटा हेतहु कहथि हनुमान। मतिभ्रम तोर प्रकट हम जान॥२॥
भावार्थ:- रे दुष्ट! तोहर मृत्यु निकट आबि गेलौक अछि। अधम! हमरा शिक्षा देबय चललें हँ। हनुमान्‌जी कहलखिन – एकर उलटे हेतउ (अर्थात्‌ मृत्यु तोहर निकट आबि गेलौक अछि, हमर नहि)। ई तोहर मतिभ्रम (बुद्धि केर फेर) छी, हम प्रत्यक्ष जानि लेलहुँ अछि॥२॥
सुनि कपि वचन बहुत खिसियान। बेग ने हरे एहि मूढ़ केर प्राण॥
सुनैत निशाचर मारय दौड़ल। सचिव सहित विभीषण आयल॥३॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केर वचन सुनिकय ओ बहुते कुपित भऽ गेल। (और बाजल -) अरे! एहि मूर्ख केर प्राण तुरन्ते कियैक नहि हरि लैत छँ? सुनिते देरी राक्षस सब मारय दौड़ल आर ओहि समय मंत्री-सचिवक संग विभीषणजी ओतय पहुँचि गेलाह॥३॥
नवा शीश कय विनय बहुते। नीति विरोध न मारू दूते॥
आन दंड किछु करू गोसाँइ। सब कहलक मंत्र भल भाँइ॥४॥
भावार्थ:- ओ शीश झुका प्रणाम करैत बहुत विनय कयकेँ रावण सँ कहालनि जे दूत केँ मारबाक नहि चाही, ई नीति केर विरुद्ध अछि। हे गोसाँइ। कोनो दोसर दंड देल जाय। सब कियो कहलक – भाइ! ई सलाह उत्तम अछि॥४॥
सुनैत बिहँसि बाजल दसकंधर। अंग भंग कय पठा ई बंदर॥५॥
भावार्थ:- ई सुनिते रावण हँसिकय बाजल – ठीक छैक, बंदर केँ अंग-भंग कयकेँ वापस पठा देल जाय॥५॥
लंकादहन
दोहा :
कपि केर ममता पूँछ पर सबकेँ कही बुझाय।
तेल बोरि पट बान्हिकय पावक दिहीन लगाय॥२४॥
भावार्थ:- हम सबकेँ बुझाकय कहैत छी जे बानरक ममता पूँछ पर होइत छैक। तेँ तेल मे कपड़ा बोरिकय ओ एकर पूँछ मे बान्हिकय फेर आगि लगा दे॥२४॥
चौपाई :
पूँछहीन बानर तहन जायत। फेरो शठ निज नाथकेँ लायत॥
जिनकर कयलक बहुत बड़ाइ। देखी हमहुँ तिनक प्रभुताइ॥१॥
भावार्थ:- जखन बिना पूँछ के ई बानर ओतय (अपन स्वामीक पास) जायत, तखन ई मूर्ख अपन मालिक केँ संगे लय आयत। जिनकर ई बहुते बड़ाइ कयलक अछि, हमहुँ कनी हुनकर प्रभुता (सामर्थ्य) तऽ देखी!॥१॥
वचन सुनैत कपि मन मुसुकेला। भेली सहाय शारद से बुझला॥
राक्षसगण सुनि रावण वचना। लागल रचय मूढ़ वैह रचना॥२॥
भावार्थ:- ई वचन सुनिते हनुमान्‌जी मन मे मुस्कुरेलाह (और मनहि मन बजला) हम बुझि गेलहुँ, सरस्वतीजी (एकरा एहेन बुद्धि दय मे) सहायक भेली अछि। रावण केर वचन सुनिकय मूर्ख राक्षस सब वैह (पूँछ मे आगि लगेबाक) तैयारी करय लागल॥२॥
बचल नगर नहि कपड़ा घी-तेल। बढल पूँछ तेहेन कपि के खेल॥
देखि तमाशा नग्रभरीक लोक। मारय लात हँसय बिना रोक॥३॥
भावार्थ:- (पूँछ केँ लपेटय मे एतेक कपड़ा और घी-तेल लागल जे) नगर मे कपड़ा, घी और तेल नहि रहि गेल। हनुमान्‌जी एहेन खेल कयलनि कि पूँछ बढ़ि गेल (लंबा भऽ गेल)। नगरवासी लोक तमाशा देखय एलाह। ओ हनुमान्‌जी केँ पैर सँ ठोकर मारैत छल आर बिना रुकने हुनकर हँसी करैत छल॥३॥
बजबय ढोल आ दैत थपाड़ी। नगर घुमाय फेर पूँछ पजाड़ी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। धेला परम लघुरूप तुरंता॥४॥
भावार्थ:- ढोल बजबैत अछि, सब थोपड़ी पीटैत अछि। हनुमान्‌जी केँ नगर भरि घुमाकय, फेर पूँछ मे आगि लगा देलक। अग्नि केँ जरैत देखिकय हनुमान्‌जी तुरंते अत्यन्त छोट रूप धय लेलनि॥४॥
कूदि चढ़ल कपि कनक अटारी। भेली सभीत निशाचर नारी॥५॥
भावार्थ:- (बंधन सँ निकलिते) ओ कूदिकय सोनाक अटारी सब पर जा चढ़ला। हुनका देखिकय राक्षसगणक स्त्रि लोकनि भयभीत भऽ उठल॥५॥
दोहा :
हरि प्रेरित ताहि अवसर चलल मरुत उनचास।
अट्टहास गर्जला कपि बाढ़ि लगल आकाश॥२५॥
भावार्थ:- ओहि समय भगवान्‌ केर प्रेरणा सँ उनचास पवन चलय लागल। हनुमान्‌जी अट्टहास कय केँ गर्जला और बढ़िकय आकाश सँ जा लगलाह॥२५॥
चौपाई :
देह विशाल हलुक फुर्तीला। महले महल कुदैत सजीला॥
जरइ नगर भरि लोक बेहाल। झपट लपट बहु कोटि कराल॥१॥
भावार्थ:- देह बड़ी विशाल छन्हि लेकिन अत्यन्त हल्का आ फुर्तीला छथि। ओ दौड़ि-दौड़िकय एक महल सँ दोसर महल पर चढि जाइत छथि। नगर जरि रहल अछि। लोक बेहाल अछि। आगिक करोड़ों लपट झपटा मारि रहल अछि॥१॥
बाप माय सब करे पुकार। एहि घड़ी के करत उबार॥
पहिने कहल कपि नहि छी ओ। बानर रूप धरल सुर कियो॥२॥
भावार्थ:- बाप रे! माय रे! एहि अवसर पर हमरा सब केँ के बचायत? (चारू दिश) यैह पुकार सुनाय पड़ि रहल अछि। हम तऽ पहिनहि कहने रही जे ई वानर नहि थिक, वानर रूप धएने कोनो देवता थिक!॥२॥
साधु अवग्या केर फल एहेन। जरय नगर अनाथक जेहेन॥
जारल नगर ओ पलक झपकिते। एक विभीषण घर बचबिते॥३॥
भावार्थ:- साधु केर अपमानक यैह फल छैक जे नगर अनाथ केर नगर जेकाँ जरि रहल अछि। हनुमान्‌जी क्षणहि भरि मे सम्पूर्ण नगर जरा देलनि। एकटा विभीषण घर टा बचि गेल॥३॥
तिनकर दूत अनल जे सिरिजा। जरल न से तेहि कारण गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारि। कूदि गेला पुनि सिंधु मझारि॥४॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथि -) हे पार्वती! जे अग्नि केँ बनौलनि, हनुमान्‌जी हुनकहि दूत छथि। यैह कारण ओ अग्नि सँ नहि जरला। हनुमान्‌जी उलटि-पलटिकय (एक दिश सँ दोसर दिश धरि) सारा लंका जरा देलनि। फेर ओ समुद्र मे कूदि गेलाह॥४॥

लंका जरेलाक बाद हनुमान्‌जी केर सीताजी सँ विदाई माँगब और चूड़ामणि पायब

दोहा :
पूँछ मिझाय विश्राम कय धय छोट रूप बहोरि।
जनकसुता केर आगू ठाढ़ भेला कर जोड़ि॥२६॥
भावार्थ:- पूँछ मिझाकय, थकावट दूर कयकेँ और फेर छोट सन रूप धारण कय हनुमान्‌जी श्री जानकीजी केर सामने हाथ जोड़िकय आबि ठाढ भऽ गेलाह॥२६॥
चौपाई :
मातु मोरे दिअ किछु चिन्ह। जेना रघुनायक मोरा दिन्ह॥
चूड़ामनि उतारि फेर देलनि। हरषि समेत पवनसुत लेलनि॥१॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी कहलखिन -) हे माता! हमरा कोनो चिह्न (पहिचान) दिअ, जेना श्री रघुनाथजी हमरा देने छलाह। तखन सीताजी अपन चूड़ामणि उतारिकय देलीह। हनुमान्‌जी ओ हर्षपूर्वक लय लेलनि॥१॥
कहब तात एना मोर प्रणाम। सब प्रकार प्रभु पूरणकाम॥
दीन दयालु कीर्ति बड़ भारी। हरब नाथ मोरा संकट भारी॥२॥
भावार्थ:- (जानकीजी कहलखिन -) हे तात! प्रभु सँ हमर प्रणाम निवेदन करब आर एना कहब – हे प्रभु!  यद्यपि अहाँ सब प्रकार सँ पूर्ण काम छी (अहाँ केँ कोनो प्रकारक कामना नहि अछि), तथापि दीन (दुःखी) पर दया करब अहाँक बहुत प्रसिद्ध कीर्ति (यश) अछि, तेँ हमर भारी संकट केँ दूर करब॥२॥
तात सक्रसुत कथा सुनायब। बाण प्रताप प्रभु सुमियाब॥
मास दिवस धरि नाथ नहि आयब। तौँ फेर मोरे जिअत नहि पायब॥३॥
भावार्थ:- हे तात! इंद्रपुत्र जयंत केर कथा (घटना) सुनायब और प्रभु केँ हुनकर बाण केर प्रताप स्मरण करायब। यदि महीना भरि मे नाथ नहि औता त फेर हमरा जियैत नहि पेता॥३॥
कहु कपि कोन विधि राखब प्राणा। अहुँ कहय छी आब अछि जाना॥
अहाँक देखि शीतल भेल छाती। पुनि हो धैन वैह दिन वैह राती॥४॥
भावार्थ:- हे हनुमान्‌! कहू, हम कोन तरहें प्राण राखू! हे तात! अहाँ सेहो आब जेबाक बात कहि रहल छी। अहाँ केँ देखिकय छाती ठंढा भेल छल। फेर हमरा लेल वैह दिन आ वैह राति!॥४॥
दोहा :
जनकसुता समझाय कय बहु विधि धीरज देल।
चरण कमल सिर नाइ कपि गमन राम मिलय लेल॥२७॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी जानकीजी केँ बुझाकय, बहुतो प्रकार सँ धीरज दय और हुनकर चरणकमल मे सिर नमाकय श्री रामजी केर पास गमन कयलनि॥२७॥

समुद्र केर एहि पार आयब, सभक लौटब, मधुवन प्रवेश, सुग्रीव मिलन, श्री राम-हनुमान्‌ संवाद

चौपाई :
चलैत महाध्वनि गर्जेथि भारी। गर्भ खसय सुनि निशिचर नारी॥
नाँघि सिंधु एहि पार मे एला। शब्द किलिकिला कपि केँ सुनेला॥१॥
भावार्थ:- चलैत काल ओ महाध्वनि सँ भारी गर्जना कयलनि, जे सुनिकय राक्षस सभक स्त्रि लोकनिक गर्भ खसय लागल। समुद्र नाँघिकय ओ एहि पार एला और ओ वानर सब केँ किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनेलनि॥१॥
हर्खित सब कियो देखि हनुमान। नूतन जन्म कपि अप्पन जान॥
मुख प्रसन्न तन तेज विराजे। कयलनि रामचंद्र कर काजे॥२॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केँ देखिकय सब हर्षित भऽ गेल और तखन बानर सभ अपन नया जन्म बुझलक। हनुमान्‌जी केर मुख प्रसन्न छन्हि आर शरीर मे तेज विराजमान छन्हि, (जाहि सँ ओ सब बुझि लेला जे) ई श्री रामचंद्रजी केर कार्य कय एला अछि॥२॥
मिलय सब भय खूब खुशी जे। तड़पैत माछ मानू पानि पाबि के।
चलय हरखि रघुनायक पास। पूछैत कहैत नव इतिहास॥३॥
भावार्थ:- सब हनुमान्‌जी सँ मिलि बहुत खुशी भऽ रहल छथि, जेना तड़पैत माछ केँ जल भेट गेल हो। सब हर्षित होइत नव-नव इतिहास (कथा वृत्तान्त पूछैत-कहैत श्री रघुनाथजीक पास चलला॥३॥
फेर मधुबन भीतर सब एला। अंगद संमत मधु फल खेला॥
रखबाला जे बरजय लागल। मुष्टि प्रहार भाँजि सब भागल॥४॥
भावार्थ:- फेर सब कियो मधुवन केर भीतर एला आर अंगद केर सम्मति सँ सब कियो मधुर फल (या मधु और फल) खेला। जखन रखवाला रोकय लगलनि, तखन मुक्का खाइते ओ सब भागल॥४॥
दोहा :
गेल बाजिते से सब वन उजाड़ल युवराज।
सुनि सुग्रीव हरखे कपि कय आयल प्रभु काज॥२८॥
भावार्थ:- ओ सब हल्ला करिते गेल जे युवराज अंगद वन उजाड़ि रहल छथि। ई सुनिकय सुग्रीव हर्षित भेलाह जे निश्चित वानर सब प्रभु केर काज कय आयल अछि॥२८॥
चौपाई :
यदि न होइत सीता सुधि जनने। मधुवन फल न खइतय एहने॥
यैह सब बात विचारथि राजा। आबि गेला कपि सहित समाजा॥१॥
भावार्थ:- यदि सीताजी केर खबरि नहि बुझने रहितय त कि ओ मधुवन केर फल एना खा सकितय? ई सब बात राजा सुग्रीव मन मे विचारिते छलाह कि समाज सहित वानर आबि गेलाह॥१॥
आबि सब कियो माथ झुकेला। प्रेम मे भरि कपि सब कियो मिलला॥
पूछल कुशल कुशल पद देखी। राम कृपा भेल काज विशेषी॥२॥
भावार्थ:- (सब कियो आबिकय सुग्रीव केर चरण मे माथ झुकौलनि (प्रणाम कयलनि)। कपिराज सुग्रीव सब सँ बड़ा प्रेम केर संग मिलला। ओ कुशल पुछलनि, (तखन वानर सब उत्तर देलखिन-) अहाँक चरणक दर्शन सँ सब कुशल अछि। श्री रामजी केर कृपा सँ विशेष कार्य भेल (कार्य मे विशेष सफलता भेटल अछि)॥२॥
नाथ काज कयला हनुमान। राखल सकल कपिन्ह के प्राण॥
सुनि सुग्रीव फेरो जे मिलला। कपि समेत रघुपति लग चलला॥३॥
भावार्थ:- हे नाथ! हनुमान सब कार्य कयलनि आर सब वानर सभक प्राण बचा लेलनि। ई सुनिकय सुग्रीवजी हनुमान्‌जी सँ फेरो गला मिलला आर सब वानर समेत श्री रघुनाथजी लग चलला॥३॥
राम कपि सब अबैत देखला। कयलक काज सोचि हर्षित भेला॥
फटिक शिला बैसल दुनू भाइ। पड़े सकल कपि चरणन जाय॥४॥
भावार्थ:- श्री रामजी जखन वानर सभ केँ कार्य कय केँ अबैत देखला तखन हुनका काज कयलक सोचि काफी खुशी भेटलनि। दुनू भाइ स्फटिक शिला पर बैसल छलाह, सब वानर लोकनि जाय केँ हुनकर चरण पर खसला॥४॥
दोहा :
प्रीति सहित सब भेटला रघुपति करुणा पुंज॥
पूछल कुशल नाथ तखन कुशल देखि पद कंज॥२९॥
भावार्थ:- दयाक राशि श्री रघुनाथजी सभक संग प्रेम सहित गला लागिकय मिलला और कुशल पुछलनि। (वानर लोकनि बजलाह -) हे नाथ! अहाँक चरण कमल केर दर्शन पेला सँ आब कुशल अछि॥२९॥
चौपाई :
जामवंत कहे सुनु रघुराया। जाहि पर नाथ करी अहाँ दाया॥
ताहि सदा शुभ कुशल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ओकरा पर॥१॥
भावार्थ:- जाम्बवान्‌ कहलखिन – हे रघुनाथजी! सुनू। हे नाथ! जेकरा पर अहाँ दया करैत छी, ओकरा सदिखन कल्याण और निरंतर कुशल छैक। देवता, मनुष्य और मुनि सेहो ओकरा पर प्रसन्न रहैत छथि॥१॥
वैह विजयी विनयी गुण सागर। ओकर सुयश तिनू लोक उजागर॥
प्रभु केर कृपा भेल सब काजु। जन्म हमार सुफल भेल आजु॥२॥
भावार्थ:- वैह विजयी अछि, वैह विनयी अछि और वैह सब गुणक समुद्र बनि जाइत अछि। ओकरे सुंदर यश तीनू लोक मे प्रकाशित होइत छैक। प्रभु केर कृपा सँ सब कार्य भेल। आइ हमर जन्म सफल भऽ गेल॥२॥
नाथ पवनसुत कयल जे काज। सहसों मुख नहिं जाइ से बाज॥
पवनतनय केर चरित सुहाय। जामवंत रघुपति केँ सुनाय॥3॥
भावार्थ:- हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान्‌ जे काज कयलनि, से हजारों मुख सँ पर्यन्त वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। तखन जाम्बवान् जी हनुमान्‌जीक सुन्दर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथ जी सँ सुनेलनि॥३॥
सुनथि कृपानिधि मन अति लागल। हरखि फेर हनु हृदय लगायल॥
कहू तात कोना छथि जानकी। रहथि करथि रच्छा स्वप्रान की॥४॥
भावार्थ:- (ओ चरित्र) सुनला पर कृपानिधि श्री रामचंदजी केर मन केँ बहुते नीक लगलनि। ओ हर्षित भऽ कय हनुमान्‌जी केँ फेरो हृदय सँ लगा लेलनि आर कहला – हे तात! कहू, सीता केना रहैत छथि आर अपन प्राणक रक्षा कोना करैत छथि?॥४॥
दोहा :
नामक पहरा दिन-राति ध्यान अहींके कपाट।
नयन स्वयंपद थिरकय प्राण जाय कुन बाट॥३०॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी कहलखिन -) अहाँक नाम राति-दिन पहरा दयवला अछि, अहाँक ध्यानहि केर केवाड़ अछि। नेत्र केँ अपनहि चरण मे लगौने रहैत छथि, फेर प्राण जाय त कोन बाट सँ?॥३०॥
चौपाई :
चलैतकाल चूड़ामणि देलनि। रघुपति तेकरा हृदय लगेलनि॥
नाथ युगल लोचन भरि नोर। बात कहलि मोरा जानकी थोड़॥१॥
भावार्थ:- चलैत समय ओ हमरा चूड़ामणि (उतारिकय) देली। श्री रघुनाथजी ओ (चूड़ामणि) लय केँ हृदय सँ लगा लेलनि। (हनुमान्‌जी फेर कहलखिन -) हे नाथ! दुनू आँखि मे नोर भरिकय जानकीजी हमरा सँ किछु बात कहली -॥१॥
अनुज समेत गहब प्रभु चरणा। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम वचन चरण अनुरागी। कुन अपराध नाथ मोरे त्यागी॥२॥
भावार्थ:- छोट भाइ समेत प्रभु केर चरण पकड़ब (आर कहब जे) अहाँ दीनबंधु छी, शरणागत केर दुःख केँ हरयवला छी आर हम मन, वचन और कर्म सँ अहाँक चरणक अनुरागिणी छी। फेर स्वामी (अहाँ) हमरा कोन अपराध सँ त्यागि देलहुँ?॥२॥
अवगुण एक मोर हम मानल। प्राण छुटल नहि साथिये छूटल॥
नाथ से नयनन्हि केर अपराधा। निकलत प्राण करय हठ बाधा॥३॥
भावार्थ:- (हाँ) एकटा दोष हम अपन (अवश्य) मानैत छी जे अहाँक वियोग होइते हमर प्राण नहि गेल, मुदा हे नाथ! ई त नेत्रक अपराध छी जे प्राण केँ निकलय मे हठपूर्वक बाधा दैत अछि॥३॥
विरह अगिन तन तूर समीर। साँस जरय क्षणहि मे शरीर॥
नयन स्राव जल निज हित लागी। जरय न पाबय देह बिरहागी॥४॥
भावार्थ:- विरह अग्नि थिक, शरीर रूई थिक आर श्वास पवन थिक, एहि तरहें (अग्नि और पवन केर संयोग भेला सँ) ई शरीर क्षणमात्र मे जरि सकैत अछि, मुदा नेत्र अपना हितक लेल प्रभु केर स्वरूप देखिकय (सुखी होयबाक लेल) जल (नोर) बरसाबैत अछि, जाहि सँ विरह केर आगि सँ सेहो देह जरि नहि पबैत अछि॥४॥
सीता के अति विपत्ति विशाला। बिनु कहले भला दीनदयाला॥५॥
भावार्थ:- सीताजीक विपत्ति बहुत भारी अछि। हे दीनदयालु! ओ बिना कहने ठीक अछि (कहला सँ अहाँ केँ बहुत क्लेश होयत)॥५॥
दोहा :
निमिष निमिष करुणानिधि जाय कल्प सम बीति।
वेगि चली प्रभु आनय ल भुज बल खलु दल जीति॥३१॥
भावार्थ:- हे करुणानिधान! हुनकर एक-एक पल कल्प केर समान बीति रहल छन्हि। अतः हे प्रभु! तुरंत चलू और अपन भुजाक बल सँ दुष्टक दल केँ जीतिकय सीताजी केँ लऽ आउ॥३१॥
चौपाई :
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अंगना। भरि आयल जल राजिव नयना॥
वचन काया मन मोर गति जेकरा। सपनेहु बूझु विपत्ति कि तेकरा॥१॥
भावार्थ:- सीताजी केर दुःख सुनिकय सुखक धाम प्रभु केर कमल नेत्र मे जल भरि अयलनि (और ओ बजलाह -) मन, वचन और शरीर सँ जेकरा हमरे गति (हमरहि आश्रय) छैक, ओकरा कि सपनो मे विपत्ति आबि सकैत छैक?॥१॥
कहे हनुमंत विपत्ति प्रभु ओतय। अहाँक सुमिरन भजन नहि जतय॥
कतेक बात प्रभु राक्षस सब की। शत्रु जीति आनब जे जानकी॥२॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी कहलखिन – हे प्रभु! विपत्ति तऽ ओतय (तखने) अछि जखन अहाँक भजन-सुमिरन नहि होयत। हे प्रभो! राक्षस सभक बाते कतेक अछि? अहाँ शत्रु केँ जीतिकय जानकीजी केँ लय आयब॥२॥
सुनु कपि तोरे समान उपकारी। नहिं कियो सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करू कि तोरा। सनमुख होय न सकय मन मोरा॥३॥
भावार्थ:- (भगवान्‌ कहय लगलाह -) हे हनुमान्‌! सुने, तोहर समान हमर उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोनो शरीरधारी नहि अछि। हम तोहर प्रत्युपकार (बदला मे उपकार) त कि करू, हमर मन सेहो तोहर सामने नहि भऽ सकैत अछि॥३॥
सुनु सुत तोर उऋण हम नाहि। देखल कय विचार मन माहि॥
पुनि पुनि कपि चितवथि सुरत्राता। नयन नीर पुलकित भय गाता॥४॥
भावार्थ:- हे पुत्र! सुनह, हम मन मे (खूब) विचारिकय देख लेलहुँ जे हम तोरा सँ उऋण नहि भऽ सकैत छी। देवताक रक्षक प्रभु बेर-बेर हनुमान्‌जी दिश ताकि रहला अछि। आँखि सँ प्रेमाश्रुक जल भरल छन्हि आर शरीर अत्यन्त पुलकित छन्हि॥४॥
दोहा :
सुनि प्रभु वचन अवलोकि मुख गात हरख हनुमंत।
चरण पड़ेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥३२॥
भावार्थ:- प्रभु केर वचन सुनिकय आर हुनकर (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंग केँ देखिकय हनुमान्‌जी हर्षित भऽ गेलाह आर प्रेम मे विकल भऽ कय ‘हे भगवन्‌! हमर रक्षा करू, रक्षा करू’ कहैत श्री रामजी केर चरण पर खसि पड़लाह॥३२॥
चौपाई :
बेर बेर प्रभु चाहि उठाबथि। प्रेम मगन ओ उठय न भावथि॥
प्रभु कर पंकज कपि केर सीशा। सुमिरि से दशा मगन गौरीशा॥१॥
भावार्थ:- प्रभु हुनका बेर-बेर उठाबय चाहथि, लेकिन प्रेम मे डूबल हनुमान्‌जी केँ चरण सँ उठेनाय नहि भाबैत छलन्हि। प्रभु केर करकमल हनुमान्‌जीक माथ पर छन्हि, एहि स्थिति केँ स्मरण कय केँ शिवजी प्रेममग्न भऽ गेलाह॥१॥
सावधान मन कय पुनि शंकर। लगला कहय कथा अति सुंदर॥
कपि उठाय प्रभु हृदय लगौलनि। कर गहि परम निकट बैसौलनि॥२॥
भावार्थ:- फेर मन केँ सावधान कयकेँ शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहय लगलाह – हनुमान्‌जी केँ उठाकय प्रभु हृदय सँ लगौलनि आर हाथ पकड़िकय एकदम नजदिक बैसौलनि॥२॥
कहु कपि रावण पालित लंका। कुन विधि दाहल दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जानल हनुमान। बाजल वचन विगत अभिमान॥३॥
भावार्थ:- हे हनुमान्‌! बताउ त, रावण केर द्वारा सुरक्षित लंका और ओकर बड़ा बाँका किला केँ अहाँ कोन तरहे जरेलहुँ? हनुमान्‌जी प्रभु केँ प्रसन्न जनला और ओ अभिमानरहित वचन बजलाह – ॥३॥
शाखामृग केर बड़ मनुसाय। शाखा सँ शाखा पर जाय॥
नाँघि सिंधु हाटकपुर जारल। निशिचर गण बधि विपिन उजारल॥४॥
भावार्थ:- बंदर केर बस यैह बड़का पुरुषार्थ छैक जे ओ एक डार्हि सँ दोसर डार्हि पर चलि जाइत अछि। हम जे समुद्र लाँघिकय सोनाक नगर जरेलहुँ आर राक्षसगण केँ मारिकय अशोक वन केँ उजाड़लहुँ, ॥४॥
से सब अहीं के प्रताप रघुराइ। नाथ नहि किछु मोर प्रभुताइ॥५॥
भावार्थ:- से सब त हे श्री रघुनाथजी! अहींक प्रताप थिक। हे नाथ! एहि मे हमर कोनो प्रभुता (बड़ाई) नहि अछि॥५॥
दोहा :
ओकरा ल नहि अगम किछु अपने जै’पर अनुकूल।
अहींक प्रभाव बड़वानलहु जारि सकय अछि तूर॥३३॥
भावार्थ:- हे प्रभु! जेकर पर अहाँ प्रसन्न रहब, ओकरा लेल किछुओ कठिन नहि छैक। अहाँक प्रभाव सँ रूइया (जे स्वयं बहुत जल्दी जरि जाइवाली वस्तु थिक) बड़वानल (जंगलक आगि) केँ निश्चय टा जरा सकैत अछि (अर्थात्‌ असंभव सेहो संभव भऽ सकैत अछि)॥३॥
चौपाई :
नाथ भक्ति अति सुखदायनी। दिअ कृपा कय अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि वाणी। एवमस्तु तखन कहला भवानी॥१॥
भावार्थ:- हे नाथ! हमरा अत्यंत सुख दयवला अपन निश्चल भक्ति कृपा कय केँ दिअ। हनुमान्‌जीक अत्यंत सरल वाणी सुनिकय, हे भवानी! तखन प्रभु श्री रामचंद्रजी ‘एवमस्तु’ (अहिना हो) कहलनि॥१॥
उमा राम स्वभाव जेकरा बुझल। तेकरा भजन छोड़ि आन नै सुझल॥
यैह संवाद जेकर हिय आबय। रघुपति चरण भगति से पाबय॥२॥
भावार्थ:- हे उमा! जेकरा श्री रामजीक स्वभाव बुझल छैक, ओकरा भजन छोड़िकय दोसर कोनो बात नहि सोहाइत छैक। यैह स्वामी-सेवक केर संवाद जेकर हृदय मे आबि गेल, वैह श्री रघुनाथजी केर चरणक भक्ति पाबि गेल॥२॥
सुनि प्रभु वचन कहथि कपि बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
पुनि रघुपति कपिपतिहि हकारि। कहल चलय के करू तैयारि॥३॥
भावार्थ:-प्रभु केर वचन सुनिकय वानरगण कहय लगलाह – कृपालु आनंदकंद श्री रामजीक जय हो, जय हो, जय हो! तखन श्री रघुनाथजी द्वारा कपिराज सुग्रीव केँ बजेलनि आर कहलनि – चलबाक तैयारी करू॥३॥
आब विलम्ब कुन कारण करब। तुरत कपि केँ आज्ञा दिअब॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरसय। नभ सँ भवन चलल सुर हरषल॥४॥
भावार्थ:- आब विलंब कोन कारण कयल जाय। वानर केँ तुरंत आज्ञा दिऔक। (भगवान्‌ केर) ई लीला (रावणवध केर तैयारी) देखिकय, बहुत रास फूल बरसाकय और हर्षित भऽ कय देवता आकाश सँ अपन-अपन लोक लेल चललाह॥४॥

श्री रामजीक वानर सेना संग चलिकय समुद्र तट पर पहुँचब

दोहा :
कपिपति बेगि बजेला आयल मुख्यक झुंड।
नाना वर्ण अतुल बल बानर भालु बहुत॥३४॥
भावार्थ:- वानरराज सुग्रीव शीघ्रहि वानर सभकेँ बजौलनि, सेनापति लोकनिक समूह आ गए। वानर-भालु केर झुंड अनेको रंग केर अछि और सब मे अतुलनीय बल छैक॥३४॥
चौपाई :
प्रभु पद पंकज नावय शीशा। गर्जय भालु महाबल कीसा॥
देखल राम सकल कपि सेना। चितहि कृपा करि राजिव नैना॥१॥
भावार्थ:- ओ सब प्रभु केर चरण कमल मे माथ झुकबैत अछि। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरैज रहल अछि। श्री रामजी वानरक समस्त सेना देखलनि। तखन कमल नेत्र सँ कृपापूर्वक ओकरा सब पर अपन दृष्टि डाललनि॥१॥
राम कृपा बल पाय कपिंदा। भेल पंखयुक्त मानू गिरिंदा॥
हरषि राम फेर कयल प्रस्थाना। सगुन भेल सुंदर शुभ नाना॥२॥
भावार्थ:- राम कृपा केर बल पाबिकय श्रेष्ठ वानर मानू पंखवाला बड़का पर्वत भऽ गेल। तखन श्री रामजी हर्षित होइत प्रस्थान (कूच) कयलनि। अनेको सुंदर और शुभ शकुन होबय लागल॥२॥
जिनक सकल मंगलमय कीर्ति। तिनक प्रस्थान सगुन यैह नीति॥
प्रभु प्रस्थान जनली वैदेही। फरकि बाम अंग जानु कहि देही॥३॥
भावार्थ:- जिनकर कीर्ति सब मंगल सँ पूर्ण अछि, तिनकर प्रस्थानक समय शकुन होयब, यैह नीति छैक (लीला केर मर्यादा छैक)। प्रभु केर प्रस्थान जानकीजी सेहो जानि गेलीह। हुनकर बाम अंग फड़कि-फड़किकय मानू कहि दैत छल (कि श्री रामजी आबि रहल छथि)॥३॥
जैह जैह सगुन जानकी होहि। असगुन भेल रावन केँ सोहि॥
चलल सेना नहि वर्णन पार। गर्जय बानर भालु अपार॥४॥
भावार्थ:- जानकीजी केँ जे-जे शकुन होइत छलन्हि, वैह-वैह रावण केर लेल अपशकुन भेल। सेना चलल, ओकर वर्णन करब केकरा सँ पार लागत! असंख्य वानर और भालू गर्जना कय रहल अछि॥४॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चलय गगन धरि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करही। डगमगाय दिग्गज चिक्करही॥५॥
भावार्थ:- नख (नह) जिनकर शस्त्र छन्हि, जे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलयवला रीछ-वानर पर्वत और वृक्ष सब केँ धारण कएने कियो आकाश मार्ग सँ त कियो पृथ्वी पर चलल जा रहला अछि। ओ सब सिंह केर समान गर्जना कय रहल छथि। (हुनक चलला आ गर्जना सँ) दिशा सभक हाथी विचलित भऽ कय चिकैर रहला अछि॥५॥
छंद :
चिक्करय दिग्गज डोल माटि गिरि कम्प सागर खलबली।
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टली॥
कटकटहि मर्कट विकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोशलनाथ गुण गण गावहीं॥१॥
भावार्थ:- दिशा सभक हाथी चिंग्घाड़य (चिकरय) लागल, पृथ्वी डोलय लगली, पर्वत काँपय लागल और समुद्र खलबला उठल। गंधर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन मे हर्षित भेल जे (आब) हमरा सभक दुःख टलि गेल। कतेको करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहला अछि आर करोड़ों दौड़ि रहला अछि। ‘प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचंद्रजी की जय हो’ एना पुकारैते ओ लोकनि हुनक गुणसमूह सब गाबि रहल छथि॥१॥
सहि सके न भार उदार अहिपति बेर बेर ओ मोहिते।
गहि दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर से केना सोहिते॥
रघुवीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहाओनी।
जेना कमठ खर्पर सर्पराज से लिखथि अविचल पावनी॥२॥
भावार्थ:- उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्‌) सर्पराज शेषजी सेहो सेनाक बोझ नहि सहि सकैथि, ओ बेर-बेर मोहित भऽ जाइथ (घबड़ा जाइथ) आर बेर-बेर कच्छप केर कठोर पीठ केँ दाँत सँ पकड़ैत छलाह। एना करैत (अर्थात्‌ बेर-बेर दाँत गड़ाकय कच्छप केर पीठ पर लकीर सन् खींचैते) ओ केना शोभा दय रहल छल मानू श्री रामचंद्रजी केर सुंदर प्रस्थान यात्रा केँ परम सुहाओन जानिकय ओकर अचल पवित्र कथा केँ सर्पराज शेषजी कच्छप केर पीठ पर लिखि रहल होइथ॥२॥
दोहा :
एहि विधि जाय कृपानिधि पुगला सागर तीर।
जहँ तहँ लागल खाय फल भालु बिपुल कपि वीर॥३५॥
भावार्थ:- एहि प्रकारे कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर पहुँचि गेलाह। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाय लागल॥३५॥

मंदोदरी-रावण संवाद

चौपाई :
ओम्हर निशाचर रहय सशंका। जहिया सँ जरा गेला कपि लंका॥
निज निज गृह सब करय विचारा। नहि निशिचर कुल केर उबारा।१॥
भावार्थ:- ओम्हर (लंका मे) जहिया सँ हनुमान्‌जी लंका केँ जराकय गेलाह, तहिया सँ राक्षस सब भयभीत रहय लागल। अपना-अपना घर मे सब विचार करैत छल जे आब राक्षस कुल केर रक्षा (के कोनो उपाय) नहि अछि॥१॥
जिनक दूत बल वर्णल नहि जाइ। से औता पुर केना भलाइ॥
दूतिन सँ सुनि पुरजन वाणी। मंदोदरी बहुत अकुलानी॥२॥
भावार्थ:- जिनकर दूत केर बलक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि, हुनका स्वयं नगर एलापर केना भलाइ होयत (हमरा सभक बड़ खराब दशा होयत)? दूतिन सँ नगरवासी सभक वचन सुनिकय मंदोदरी बहुते व्याकुल भ गेलीह॥२॥
रहथि जोड़ि कर पति पग लागल। बजली बोल नीति रस सानल॥
कन्त छोड़ु हरि संग विरोध। मोर कहल हित हिया धरु बोध॥३॥
भावार्थ:- ओ एकांत मे हाथ जोड़िकय पति (रावण) केर चरण लागि गेली आर नीतिरस सानल बोल बजली – हे प्रियतम! श्री हरि सँ विरोध छोड़ि दिअ। हमर कहल बात केँ हितकर जानि अपन हृदय आ बुद्धि मे धारण करू॥३॥
बुझी जिनक दूत केर करनी। खसल गर्भ रजनीचर घरनी॥
तिनक नारि निज सचिव बजाइ। पठबू कंत जँ चाहि भलाइ॥४॥
भावार्थ:- जिनकर दूत केर करनीक विचार करिते टा (स्मरण अबिते मात्र सँ) राक्षसगणक स्त्रि लोकनिक गर्भ खसि पड़ैत छैक, हे प्रिय स्वामी! यदि भला चाहैत छी त अपन मंत्री केँ बजाकय ओकरहि संग हुनकर स्त्री केँ पठा दियौन॥४॥
एहि कुल कमल विपिन दुख छायल। सीता शीत निशा सम आयल॥
सुनू नाथ सीता बिनु देने। हित ने अहाँक शम्भु अज केने॥५॥
भावार्थ:- सीता अहाँक कुल रूपी कमल केर वन केँ दुःख दयवाली जाड़क रात्रि केर समान आयल अछि। हे नाथ! सुनू! सीता केँ देने (लौटेने) बिना शम्भु और ब्रह्मा केर कयलो उपरान्त अहाँ भला नहि भऽ सकैत अछि॥५॥
दोहा :
राम बाण साँप समूह जेकाँ बेंग निशाचर सेन।
जा नहि ग्रासल ता धरि मे यत्न करू तजि ऐन॥३६॥
भावार्थ:- श्री रामजी केर बाण साँप केर समूह समान अछि और राक्षस सैन्यबलक समूह बेंग केर समान। जा धरि ओ एकरा सब केँ ग्रास नहि बना लैत अछि (निगैल नहि जाइछ) ता धरि आइन (अहंकार) छोड़िकय उपाय कय लिअ॥३६॥
चौपाई :
श्रवण सुनल शठ हुनकर वाणी। बिहँसल जगत विदित अभिमानी॥
सभय स्वभाव नारि केर साँचे। मंगल मे भय मन अति काँचे॥१॥
भावार्थ:- मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कान सँ हुनकर (मन्दोदरीक) वाणी सुनिकय खूब हँसल (और बाजल -) स्त्रि सभक स्वभाव सचमुच मे बहुत डरपोक होइत छैक। मंगल मे सेहो भय करैत छी। अहाँक मन (हृदय) बहुते कच्चा (कमजोर) अछि॥१॥
जौं आयत बानर केर सेने। जिअत बेचारे निशिचर खेने॥
काँपहि लोकप जाहिक त्रासे। तेकर नारि सभीत बड हासे॥२॥
भावार्थ:- यदि वानर केर सेना आयत त बेचारा राक्षस ओकरा खाकय अपन जीवन निर्वाह करत। लोकपाल तक जेकर डर सँ काँपैत अछि, ओकर स्त्री (अहाँ) डराइत छी, ई बड़ा हँसीक बात थिक॥२॥
एते कहि बिहँसैत गला लगाकय। चलल सभा ममत्व देखाकय॥
मंदोदरी हृदय करि चिन्ता। भेला कन्त पर विध विपरीता॥३॥
भावार्थ:- रावण एतेक कहिकय हँसिकय हुनका हृदय सँ लगा लेलक आर ममता बढल (अधिक स्नेह दर्शाकय) ओ सभा मे चलि गेल। मन्दोदरी हृदय मे चिन्ता करयल लगलीह जे पति पर विधाता प्रतिकूल भऽ गेला अछि॥३॥
बैसल सभा खबरि ई पायल। सिंधु पार सेना सब आयल॥
पुछय सचिव उचित मत कहू। ओ सब हँसय मस्त भय रहू॥४॥
भावार्थ:- जखनहि ओ सभा मे जाकय बैसल, ओ एहेन खबरि पेलक जे शत्रुक सेना समुद्रक ओहि पार आबि गेल अछि, ओ मंत्री लोकनि सँ पुछलक जे उचित सलाह कहू (आब कि करबाक चाही?)। तखन ओ सब हँसल आ बाज जे मस्त (चुपचाप) भ कय रहू (एहि मे सलाहक कोन एहेन बात छैक?)॥४॥
जितल सुरासुर कोनो श्रम नाहिं। नर बानर कुन लेखा माहिं॥५॥
भावार्थ:- अहाँ देवता और राक्षस सब केँ जीत लेलहुँ, तहिया त कोनो श्रमे नहि भेल। फेर मनुष्य आ वानर कोनो गिनती मे अछि?॥५॥

रावण केँ विभीषण केर बुझेनाय और विभीषणक अपमान

दोहा :
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बाजथि भय आश
राज धर्म तन तीनि केर होय बेगिहीं नाश॥३७॥
भावार्थ:- मंत्री, वैद्य और गुरु – ई तीन यदि (अप्रसन्नता केर) भय या (लाभ केर) आशा सँ (हित केर बात नहि कहिकय) प्रिय टा बजैत (मुंह पर नीक लागयवला बोल कहय लगैत छथि), तऽ (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म – एहि तीन केर शीघ्रे नाश भऽ जाइत अछि॥३७॥
चौपाई :
सैह रावण केँ बनल सहाय। स्तुति करय सुनाय सुनाय॥
अवसर जानि विभीषण एला। भ्राता चरण शीश झुकेला॥१॥
भावार्थ:- रावण लेल सेहो ओहने सहायता (संयोग) आबि बनल अछि। मंत्री लोकनि ओकरा सुना-सुनाकय (मुंह पर) स्तुति करैत छथि। (ताहि समय) अवसर बुझिकय विभीषण जी एला। ओ जेठ भाइ केँ चरण मे माथ झुकेलनि॥१॥
पुनि सिर नवा बैसि निज आसन। बजला वचन पाय अनुशासन॥
जौँ कृपाल पूछी मोर बात। मति अनुरूप कही हित तात॥२॥
भावार्थ:- फेर सँ माथ नमाकय अपन आसन पर बैसि गेलाह आर आज्ञा पाबिकय ई वचन बजलाह – हे कृपालु! जँ अपने हमरा सँ बात (राय) पुछलहुँ हँ त हे तात! हम अपन बुद्धिक अनुसार अहाँक हित केर बात कहैत छी – ॥२॥
जे आपन चाहय कल्याणा। सुयश सुमति शुभ गति सुख नाना॥
से परनारि लिलार गोसाईं। तजू चौठ के चान कि नाईं॥३॥
भावार्थ:- जे मनुष्य अपन कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार केर सुख चाहैत हो, से हे स्वामी! परस्त्री केर ललाट केँ चौठक चंद्रमा जेकाँ त्यागि दियए (अर्थात्‌ जेना लोक चौठक चंद्रमा केँ नहि देखैत अछि, ओहिना परस्त्रीक मुंह नहि देखय)॥३॥
चौदह भुवन एक पति होय। भूत द्रोह टिकइ नहि सोय॥
गुण सागर नामी नर सेहो। अल्प लोभ भल कहे न कियो॥४॥
भावार्थ:- चौदहो भुवन केर एकमात्र स्वामियो जे छथि, ओहो जीव सँ वैरी कय केँ नहि टिकि सकैत छथि (नष्ट भऽ जाइत छथि)। जे मनुष्केय गुणक समुद्र आ चतुर हो, ओकरा चाहे कनिकबो लोभ कियैक नहि हुअय, तैयो ओकरा कियो भला नहि कहैत छैक॥४॥
दोहा :
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुवीर भजू भजैत जेना छथि संत॥३८॥
भावार्थ:- हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ – ई सबटा नरक केर रास्ता छी, एहि सबकेँ छोड़िकय श्री रामचंद्रजी केँ भजू, जिनका संत (सत्पुरुष) लोकनि भजैत छथि॥३८॥
चौपाई :
तात राम नहि नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु केर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। व्यापक अजित अनादि अनंता॥१॥
भावार्थ:- हे तात! राम मनुष्य के राजा मात्र नहि छथि। ओ समस्त लोकक स्वामी और काल केर सेहो काल थिकाह। ओ (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान केर भंडार) भगवान्‌ छथि, ओ निरामय (विकाररहित), अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म छथि॥१॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। वेद धर्म रक्षक सुनु भ्राता॥२॥
भावार्थ:- ओहि कृपा के समुद्र भगवान्‌ पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवता लोकनिक हित करबाक लेल मात्र मनुष्य शरीर धारण कयलनि अछि। हे भाइ! सुनू, ओ सेवक सब केँ आनन्द दयवला, दुष्टक समूह केर नाश करयवला आ वेद तथा धर्म केर रक्षा रकयवला छथि॥२॥
तिनक वैरि तजि नमबू माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
दियौन नाथ प्रभु केँ वैदेही। भजू राम बिनु हेतु सनेही॥३॥
भावार्थ:- वैरी (शत्रुता) त्यागिकय हुनका मस्तक नवाउ। ओ श्री रघुनाथजी शरणागत केर दुःख नाश करयवला छथि। हे नाथ! ओहि प्रभु (सर्वेश्वर) केँ जानकीजी दय दियौन आर बिना कोनो कारण सिनेह करयवला श्रीराम जी केँ भजू॥३॥
शरण गेल प्रभु ताहि न त्यागल। विश्व द्रोह कृत पाप यदि लागल॥
जिनक नाम त्रय ताप नशावन। से प्रभु प्रकट बुझू हिय रावण॥४॥
भावार्थ:- जेकरा संपूर्ण जगत्‌ सँ द्रोह करबाक पाप लागल छैक, शरण गेला पर प्रभु ओकरो त्याग नहि करैत छथि। जिनकर नाम तीनू ताप केँ नाश करयवला अछि, वैह प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप मे प्रकट भेला अछि। हे रावण! हृदय मे ई बुझि लिअ॥४॥
दोहा :
बेर बेर पद लागिकय विनय करी दसशीश।
परिहरि मान मोह मद भजू कोसलाधीश॥३९क॥
भावार्थ:- हे दशशीश! हम बेर-बेर अहाँक चरण लगैत छी आर विनती करैत छी जे मान, मोहआर मद केँत्यागिकय अहाँ कोशलपति श्रीरामजीक भजन करू॥३९ (क)॥
मुनि पुलस्ति निज शिष्य सँ कहि पठेला ई बात।
तुरत से हम प्रभु सँ कहल पाय सुअवसर तात॥३९ (ख)॥
भावार्थ:- मुनि पुलस्त्यजी अपना शिष्य केर हाथे ई बात कहा पठेलनि अछि। हे तात! सुंदर अवसर पाबिकय हम तुरंते से बात प्रभु (अहाँ) सँ कहि देलहुँ॥३९ (ख)॥
चौपाई :
माल्यवंत अति सचिव सियान। हुनक वचन सुनि अति सुख मान॥
तात अनुज छथि नीति विभूषन। से हिया धरू जे कहथि विभीषण॥१॥
भावार्थ:- माल्यवान्‌ नाम केर एक बहुते बुद्धिमान मंत्री छल। ओ हुनकर (विभीषणजीक) वचन सुनिकय बहुत सुख मानलनि (और कहलखिन -) हे तात! अहाँक छोट भाइ नीति विभूषण (नीति केँ भूषण रूप मे धारण करयवला अर्थात्‌ नीतिमान्‌) छथि। विभीषण जे किछु कहि रहल छथि ओकरा हृदय मे धारण कयल जाउ॥१॥
रिपु उत्कर्ष कहय शठ दुनू। दूर न करय एतय सँ कुनू॥
माल्यवंत गृह गेला बहुरि। कहथि विभीषण पुनि कर जोड़ि॥२॥
भावार्थ:- (रावण कहलकैक -) ई दुनू मूर्ख शत्रु केर महिमा बखानि रहल अछि। एतय कियो छँ? एकरा सब केँ दूर कर न! तखन माल्यवान् त अपन घर वापस चलि गेलाह मुदा विभीषणजी हाथ जोड़िकय फेरो कहय लगलाह – ॥२॥
सुमति कुमति सभक हिय रहय। नाथ पुराण निगम से कहय॥
जतय सुमति ओतय संपत्ति नाना। जतय कुमति ओतय विपत्ति निदाना॥३॥
भावार्थ:- हे नाथ! पुराण और वेद एना कहैत छैक जे सुबुद्धि (नीक बुद्धि) और कुबुद्धि (खोट बुद्धि) सभक हृदय मे रहैत छैक, जतय सुबुद्धि अछि, ओतय नाना प्रकार केर संपदा (सुख केर स्थिति) रहैत अछि आर जतय कुबुद्धि अछि ओतय परिणाम मे विपत्ति (दुःख) रहैत छैक॥३॥
अहाँ हिय कुमति बसल विपरीता। हित अनहित मानी रिपु प्रीता॥
कालराति निशिचर कुल केरी। ताहि सीता पर प्रीति घनेरी॥४॥
भावार्थ:- अहाँक हृदय मे उल्टा बुद्धि बैसि गेल अछि। एहि सँ अहाँ हित केँ अहित आ शत्रु केँ मित्र मानि रहल छी। जे राक्षस कुल केर लेल कालरात्रि (केर समान) छथि, ताहि सीता पर अहाँक बड़ा प्रीति अछि॥४॥
दोहा :
तात चरण गहि माँग करी राखू मोर दुलार।
सीता दियौन राम केँ अहित न होय तोहार॥४०॥
भावार्थ:- हे तात! हम पैर पकड़िकय अहाँ सँ भीख मंगैत छी (विनती करैत छी)। कि अहाँ हमर दु चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हूँ (विनती करता हूँ) जे अहाँ हमर दुलार राखू (हम बालक केर आग्रह केँ स्नेहपूर्वक स्वीकार करू) श्री रामजी केँ सीताजी दय दियौन, जाहि मे अहाँ अहित नहि होयत॥४०॥
चौपाई :
बुद्ध पुराण श्रुति सन्मत वाणी। कहल विभीषण नीति बखानी॥
सुनैत दसानन उठल रिसाय। खल तोर निकट मृत्यु आब आय॥१॥
भावार्थ:- विभीषण पंडित (बुद्धिमान), पुराण और वेद द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी सँ नीति बखानिकय कहला। लेकिन से सुनिते रावण क्रोधित भऽउठल आर बाज जे रे दुष्ट! आब मृत्यु तोहर नजदीक आबि गेलौक अछि!॥१॥
जियए सदा शठ मोर जियावा। रिपु केर पक्ष मूढ़ तोंहे भावा॥
कहय न खल अछि के जग माहिं। भुज बल जे जीतल हम नाहिं॥२॥
भावार्थ:- अरे मूर्ख! तूँ जियैत त छँ सदिखन हमर जियेला सँ (अर्थात् हमरहि अन्न पर पोसा रहल छँ), मुदा रे मूढऽ पक्ष तोरा शत्रु केर टा नीक लगैत छौक। अरे दुष्ट! बता न, जगत् मे एहेन के अछि जेकरा हम अपन भुजाक बल सँ नहि जीतने होइ?॥३॥
मोरा पुर बसि तपसी सँ प्रीति। शठ मिलय जो हुनके कह नीति॥
से कहि कयलक चरण प्रहार। अनुज गहय पद बारम्बार॥३॥
भावार्थ:- हमर नगर मे रहिकय प्रेम करैत अछि तपस्वी पर। मूर्ख! हुनके सँ जाकय मिल जो आ हुनके नीति बता। एना कहिकय रावण हुनका लात मारलक, मुदा छोट भाइ विभीषण (मारलो के बाद) बेर-बेर ओकर चरण टा पकड़ला॥३॥
उमा संत केर यैह बड़ाइ। मंद करत जे करहि भलाइ॥
अहाँ पिता सम भले मोहे मार। राम भजब हित नाथ तोहार॥४॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथि -) हे उमा! संत केर यैह बड़ाइ (महिमा) थिकैक जे ओ खराबो कयला पर (खराब कयनिहारक) भलाइये करैत छैक। (विभीषणजी कहलखिन -) अहाँ हमर पिता समान छी, हमरा मारलहुँ से त नीके कयलहुँ, परन्तु हे नाथ! अहाँक भला श्री रामजी केँ भजने मे अछि॥४॥
सचिव संग लय नभ पथ गेला। सब केँ सुनाय कहथि ई भेला॥५॥
भावार्थ:- (एतेक कहिकय) विभीषण अपना मंत्रि लोकनि केँ संग लय आकाश मार्ग मे गेला और सबकेँ सुनाकय ओ एना कहय लगलाह -॥५॥

विभीषण केर भगवान्‌ श्री रामजी केर शरण वास्ते प्रस्थान और शरण प्राप्ति

दोहा:
राम सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालवश तोर।
हम रघुवीर शरण चली देब दोष नहि मोर॥४१॥
भावार्थ:- श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु छथि आर (हे रावण) तोहर सभा काल केर वश अछि। अतः हम आब श्री रघुवीर केर शरण जाइत छी, हमरा दोष नहि देब॥४१॥
चौपाई :
से कहि चलल विभीषण जखनहि। आयूहीन भेल सब तखनहि॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। करे कल्याण अखिल के हानी॥१॥
भावार्थ:- एना कहिकय विभीषणजी जहिना चलला, तहिना सब आयुहीन भऽ गेल। (ओकरा सभक मृत्यु निश्चित भऽ गेलैक)। (शिवजी कहैत छथि -) हे भवानी! साधु केर अपमान तुरंतहि संपूर्ण कल्याण केर हानि (नाश) कय दैत अछि॥१॥
रावन जखने विभीषन त्यागल। भेल विभव बिनु तखने अभागल॥
चलल हरषि रघुनायक पाहीं। करैत मनोरथ बहु मन माहीं॥२॥
भावार्थ:- रावण जाहि क्षण विभीषण केँ त्यागलक, वैह क्षण ओ अभागल वैभव (ऐश्वर्य) सँ हीन भऽ गेल। विभीषणजी हर्षित भऽ कय मन मे अनेकों मनोरथ करैते श्री रघुनाथजीक पास चललाह॥२॥
देखब जाय चरण जलजाता। अरुण मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद पड़ैत तरल ऋषिनारी। दंडक कानन पावनकारी॥३॥
भावार्थ:- (ओ सोचैत जाइत छथि -) हम जाकय भगवान्‌ केर कोमल और लाल वर्ण केर सुंदर चरण कमल केर दर्शन करब, जे सेवक सब केँ सुख दयवला छी, जाहि चरण केर स्पर्श पाबिकय ऋषि पत्नी अहल्या तरि गेलीह आर जे दंडकवन केँ पवित्र करयवला अछि॥३॥
जे पद जनकसुता हिय राखथि। कपट कुरंग संग जे धाबथि॥
हर हिय सर सरोज पद जिनका। अहोभाग्य हम देखब तिनका॥४॥
भावार्थ:- जाहि चरण केँ जानकीजी हृदय मे धारण कय रखने छथि, जे कपटमृग केर संग पृथ्वी पर (ओकरा पकड़बाक लेल) दौड़ल छलाह आर जे चरणकमल साक्षात्‌ शिवजी केर हृदय रूपी सरोवर मे विराजैत अछि, हमर अहोभाग्य अछि जे हुनके आइ हम देखब॥४॥
दोहा :
जेहि पैरक ओ पादुका भरत रखति मन लाए।
से पद आइ विलोकबय ई नयना आब जाए॥४२॥
भावार्थ:- जाहि चरण पादुका (खराम) मे भरतजी अपन मन लगा रखने छथि, अहा! आइ हम वैह चरण केँ एखनहि जाय केँ एहि आँखि सँ देखब॥४२॥
चौपाई :
एहि विधि करैत सप्रेम विचार। अयला सपदि सिंधु एहि पार॥
कपि सब हुनका आबैत देखि। बुझे कोनो रिपु दूत विशेष॥१॥
भावार्थ:- एहि तरहें प्रेमसहित विचार करैते ओ शीघ्रहि समुद्रक एहि पार (जेम्हर श्री रामचंद्रजीक सेना छल) आबि गेला। वानर सब विभीषण केँ अबैत देखलक त ओ सब बुझलक जे शत्रु केर कोनो खास दूत छी॥१॥
हुनका रोकि कपीश लग एला। समाचार सब हुनका सुनेला॥
कहला सुग्रीव सुनू रघुराइ। आयल भेटय दसानन भाइ॥२॥
भावार्थ:- हुनका (पहरा पर) रोकिकय ओ सुग्रीव केर पास एला आर हुनका सब समाचार कहि सुनेला। सुग्रीव तखन (श्री रामजी के पास आबिकय) कहला – हे रघुनाथजी! सुनू, रावण केर भाइ (अहाँ सँ) भेटय आयल अछि॥२॥
प्रभु पुछथि कहू केहेन बुझाय। कहत कपीश नरराज सुनाय॥
जानि नै जाय निशाचर माया। कामरूप कुन कारण आया॥३॥
भावार्थ:- प्रभु श्री रामजी कहलखिन – हे मित्र! अहाँ कि बुझि रहल छी (अहाँक राय कि अछि)? वानरराज सुग्रीव कहलखिन – हे महाराज! सुनू, राक्षस सभक माया जानय मे नहि अबैत अछि। ई इच्छानुसार रूप बदलयवला (छली) नहि जानि कोन कारण आयल अछि॥३॥
भेद लेबय जेना ई शठ आयल। राखी बान्हि मोरा से भायल॥
सखा नीति अहाँ नीकि विचारल। हम शरणागतक डर उबारल॥४॥
भावार्थ:- (बुझि पड़ैत अछि) ई मूर्ख हमरा लोकनिक भेद लेबय आयल अछि, ताहि लेल हमरा त यैह नीक लगैत अछि जे एकरा बान्हिकय राखल जाय। (श्री रामजी कहलखिन -) हे मित्र! अहाँ नीति तऽ नीक विचारलहुँ, परंतु हमर प्रण त अछि शरणागत केँ डर सँ उबारि देनाय!॥४॥
सुनि प्रभु वचन हरष हनुमाना। शरणागत वत्सल भगवाना॥५॥
भावार्थ:- प्रभु केर वचन सुनिकय हनुमान्‌जी हर्षित भेलाह (और मनहि मन कहय लगलाह कि) भगवान्‌ केना शरणागतवत्सल (शरण मे आयल रहल पर पिता केर भाँति प्रेम करयवला) छथि॥५॥
दोहा :
शरणागत केँ जे तेजय निज अनहित अनुमानि।
से नर पाँमर पापमय देखितो ओकरा हानि॥४३॥
भावार्थ:- (श्री रामजी फेर बजलाह -) जे मनुष्य अपन अहित के अनुमान कय केँ शरण मे आयल रहल केँ त्याग कय दैत अछि, ओ पामर (क्षुद्र) थिक, पापमय थिक, ओकरा देखनहियो सँ हानि टा (पाप टा लगैत) छैक॥४३॥
चौपाई :
कोटि विप्र वध लागल जेकरो। आयल शरण तेजू नहि तेकरो॥
सन्मुख होय जीव मोरा जखने। जन्म कोटि अघ नाशय तखने॥१॥
भावार्थ:- जेकरा करोड़ों ब्राह्मणहु केर हत्याक पाप लागल हो, शरण मे अयला पर हम ओकरो नहि त्यागैत छी। जीव जखनहि हमर सोझाँ (सम्मुख) होइत अछि, तखनहि ओकर करोड़ों जन्मक पाप नष्ट भऽ जाइत छैक॥१॥
पापवंत केर सहज सुभाउ। भजनु मोर ओहि भाव न काहु॥
जौँ ओ दुष्ट हृदय केर होयत। हमरा सन्मुख आबि कि सकत॥२॥
भावार्थ:- पापी केर यैह सहज स्वभाव होइत छैक जे हमर भजन ओकरा कहियो नहि सोहेतय। यदि ओ (रावण के भाइ) निश्चय सँ दुष्ट हृदय केर होयत त कि ओ हमरा सम्मुख आबि सकैत छल?॥२॥
निर्मल मन जन से मोरा पाबय। मोर कपट छल छिद्र नै भाबय॥
भेद लेबय पठबे दसशीशा। तखनों न किछु भय हानि कपीशा॥३॥
भावार्थ:- जे मनुष्य निर्मल मन केर होइत अछि, वैह टा हमरा प्राप्त करैत अछि। हमरा कपट और छल-छिद्र नहि सोहाइछ। यदि ओकरा रावण भेदे लय लेल पठेलक अछि, तैयो हे सुग्रीव! अपना सब केँ कनिकबो भय या हानि नहि अछि॥३॥
जग भरि सखा निशाचर जतेक। लछुमन हनथि निमिष मे ततेक॥
जौँ सभीत आबय ओ शरण मे। राखब ओकर प्राण आ कि नै॥४॥
भावार्थ:- कियैक त हे सखे! जगत मे जतेको राक्षस सब अछि, लक्ष्मण क्षणहि भरि मे ओकरा सब केँ मारि सकैत छथि और यदि ओ भयभीत भऽ कय हमर शरण आयल अछि त हम त ओकरा प्राणहि जेकाँ राखब॥४॥
दोहा :
दुनू हाल हुनका आनू हँसि कहे कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चलू अंगद हनू समेत॥४४॥
भावार्थ:- कृपा केर धाम श्री रामजी हँसिकय कहलखिन – दुनू स्थिति मे हुनका लय आनू। तखन अंगद आर हनुमान् सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहिते विदाह भेला॥४४॥
चौपाई :
सादर हुनका आगू करि बानर। चलल जतय रघुपति करुणाकर॥
दूरहि से देखला दुओ भ्राता। नयनानंद दान केर दाता॥१॥
भावार्थ:- विभीषणजी केँ आदर सहित आगू कय केँ वानर फेर ओतय चलल, जतय करुणा केर खान श्री रघुनाथजी रहथि। नेत्र केँ आनंद केर दान दयवला (अत्यंत सुखद) दुनू भाइ केँ विभीषणजी दूरहि सँ देखलनि॥१॥
बहुरि राम छविधाम विलोकथि। रहथि ठठा एकटक पल रोकथि॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। श्यामल गात प्रणत भय मोचन॥२॥
भावार्थ:- फेर शोभा केर धाम श्री रामजी केँ देखिकय ओ पलक (झपकनाय) रोकिकय ठठाकय (स्तब्ध होइत) एकटक देखिते रहि गेलाह। भगवान्‌ केर विशाल भुजा छन्हि, लाल कमल केर समान नेत्र छन्हि और शरणागत केर भयक नाश करयवला साँवला शरीर छन्हि॥२॥
सिंह कन्ध विशाल हिया सोहय। आनन अमित मदन मन मोहय॥
नयन नीर पुलकित अति गात। मन धय धीर कहल मृदु बात॥३॥
भावार्थ:- सिंह समान कंधा छन्हि, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ा छाती) अत्यंत शोभा दय रहल अछि। असंख्य कामदेव केर मन केँ मोहित करयवला मुख (अनुहार) छन्हि। भगवान्‌ केर स्वरूप केँ देखिकय विभीषणजी केर आँखि मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि आयल और शरीर अत्यंत पुलकित भऽ गेल। फेर मन मे धीरज धय कय ओ कोमल वचन कहला॥३॥
नाथ दसानन केर हम भ्राता। निशिचर वंश जन्म सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देह। यथा उलूकहि तम पर नेह॥४॥
भावार्थ:- हे नाथ! हम दशमुख रावण केर भाइ छी। हे देवता सभक रक्षक! हमर जन्म राक्षस कुल मे भेल अछि। हमर तामसी शरीर अछि, स्वभावहि सँ हमरा पाप प्रिय अछि, जेना उल्लू केँ अन्हार सँ सहज स्नेह होइत छैक॥४॥
दोहा :
श्रवण सुयश सुनि एलहूँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरण शरण सुखद रघुवीर॥४५॥
भावार्थ:- हम कान सँ अपनेक सुयश सुनिकय आयल छी जे प्रभु भव (जन्म-मरण) केर भय केँ नाश करयवला छथि। हे दुखियाक दुःख दूर करनिहार आर शरणागत केँ सुख देनिहार श्री रघुवीर! हमर रक्षा करू, रक्षा करू॥४५॥
चौपाई :
एते कहि करैत दंडवत देख। तुरत उठथि प्रभु हरखि विशेष॥
दीन वचन सुनि प्रभु मन भायल। भुज विशाल गहि हृदय लगायल॥१॥
भावार्थ:- प्रभु हुनका एना कहिकय दंडवत् करैत देखलथि त ओ अत्यन्त हर्षित भऽ कय तुरन्त उठला। विभीषणजी केर दीन वचन सुनला पर प्रभु केर मन केँ बहुत भावलनि। ओ अपन विशाल भुजा सँ पकड़िकय हुनका हृदय सँ लगा लेलनि॥१॥
अनुज सहित मिलि पास बैसाकय। बजला वचन भक्त भय हरिकय॥
कहु लंकेश सहित परिवार। कुशल कुठाम अछि बास तोहार॥२॥
भावार्थ:- छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित गला मिलिकय हुनका अपना पास बैसाकय श्री रामजी भक्त सभक भय के हरण करयवला वचन बजलाह – हे लंकेश! परिवार सहित अपन कुशल कहू। अहाँक निवास बड खराब जगह पर अछि॥२॥
खल मंडली बसी दिन राति। सखा धर्म निबहइ कुन भाँति॥
हम जानी तोहर सब रीति। अति छी निपुण न भाव अनीति॥३॥
भावार्थ:- दिन-राति दुष्ट सभक मंडली मे रहैत छी। (एहेन दशा मे) हे सखे! अहाँक धर्म कोन तरहें निबहैत अछि? हम अहाँक सब रीति (आचार-व्यवहार) जनैत छी। अहाँ अत्यन्त नीतिनिपुण छी, अहाँ केँ अनीति नहि सोहाइत अछि॥३॥
बरु भले बास नरक केर ताता। दुष्ट संग जनि देथि विधाता॥
आब पद देखि कुशल रघुराया। जौँ अपने करि जानि जन दाया॥४॥
भावार्थ:- हे तात! नरक मे रहनाय बरु नीक छैक, मुदा विधाता दुष्ट केर संग (कदापि) नहि देथि। (विभीषण जी कहलखिन – ) हे रघुनाथजी! आब अहाँ चरणक दर्शन कय कुशल सँ छी, जे अपने अपन सेवक जानिकय हमरा ऊपर दया कयलहुँ अछि॥४॥
दोहा :
ता धरि कुशल न जीव कतहु सपनेहुँ मन विश्राम।
जा धरि भजत न राम कहुँ शोक धाम तजि काम॥४६॥
भावार्थ:- ता धरि जीव केर कुशल नहि और न स्वप्नहुँ मे ओकर मन केँ शांति होइछ, जा धरि ओ शोक केर घर काम (विषय-कामना) केँ छोड़िकय श्री रामजी केँ नहि भजैत अछि॥४६॥
चौपाई :
ता धरि हृदय बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर मद माना॥
जा धरि हिय न बसथि रघुनाथा। धरे चाप सायक कटि भाथा॥१॥
भावार्थ:- लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तखनहि धरि हृदय मे बसैत अछि, जाबत धरि कि धनुष-बाण और डाँर्ह मे तरकस धारण कएने श्री रघुनाथजी हृदय मे नहि बसैत छथि॥१॥
ममता तरुण तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
ता धरि बसत जीव मन माहीं। जा धरि प्रभु प्रताप रवि नाहीं॥२॥
भावार्थ:- ममता पूर्ण अन्हरिया राति छी, जे राग-द्वेष रूपी उल्लू सब केँ सुख दयवाली थिक। वैह (ममता रूपी रात्रि) ता धरि तक जीव केर मन मे बसैत अछि, जा धरि तक प्रभु (अहाँ) केर प्रताप रूपी सूर्य उदय नहि होइत छैक॥२॥
आब हम कुशल मिटल भय भार। देखि राम पद कमल तोहार॥
अहाँके कृपाल जै पर अनुकूल। तेकरा न ब्यापे त्रिविध भव शूल॥३॥
भावार्थ:- हे श्री रामजी! अहाँक चरणारविन्द केर दर्शन कय आब हम कुशल सँ छी, हमर भारी भय मेटा गेल। हे कृपालु! अहाँ जेकरा ऊपर अनुकूल होइत छी, ओकरा तीनू प्रकार केर भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहि व्यापैत छैक॥३॥
हम निशिचर अति अधम सुभाउ। शुभ आचरण कयल नहि काहु॥
जाहि रूप मुनि ध्यान न आबे। से प्रभु हर्षि हृदय मोरे लगाबे॥४॥
भावार्थ:- हम अत्यंत नीच स्वभाव केर राक्षस छी। हम कहियो शुभ आचरण नहि कयलहुँ। जिनकर रूप मुनियो सभक ध्यान मे नहि अबैछ, से प्रभु स्वयं हर्षित भऽ कय हमरा हृदय सँ लगा लेलनि॥४॥
दोहा :
अहोभाग्य मोर अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखल नयन विरंचि शिव सेब्य युगल पद कंज॥४७॥
भावार्थ:- हे कृपा और सुख केर पुंज श्री रामजी! हमर अत्यंत असीम सौभाग्य अछि, जे हम ब्रह्मा और शिवजी केर द्वारा सेवित युगल चरण कमल केँ अपन नेत्र सँ देखलहुँ॥४७॥
चौपाई :
सुनू सखा निज कही सुभाउ। जाने भुसुंडि शंभु गिरिजाउ॥
जौँ नर होय चराचर द्रोही। आबय सभय शरण धरि मोही॥१॥
भावार्थ:- (श्री रामजी कहलखिन -) हे सखा! सुनू, हम अहाँ केँ अपन स्वभाव कहैत छी, जेकरा काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी सेहो जनैत छथि। कोनो मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ केर द्रोही हो, यदि ओहो भयभीत भऽ कय हमर शरण धरि तक आबि जाय,॥१॥
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य ओहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥२॥
भावार्थ:- और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्यागि दिए त हम ओकरा बहुत जल्दी साधु समान कय दैत छी। माता,पिता, भाइ, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र आ परिवार॥२॥
सब केर ममता ताग बटोरी। मोरे पद मने बान्हि बाँटि डोरी॥
समदरसी इच्छा किछु नाहिं। हर्ष शोक भय नहि मन माहिं॥३॥
भावार्थ:- एहि सब के ममत्व रूपी ताग केँ बाँटिकय (बटोरिकय) और ओहि सभटाक डोरी बनाकय ओकरा द्वारा जे अपन मन केँ हमर चरण मे बान्हि दैत अछि, (सारा सांसारिक संबंधक केन्द्र हमरा बना लैत अछि),जे समदर्शी अछि, जेकरा कोनो इच्छा नहि छैक आर जेकरा मन मे हर्ष, शोक आर भय नहि छैक॥३॥
एहेन सजन मोरे हिय बसे केना। लोभी हृदय बसय धन जेना॥
तोहर जेहेन संत प्रिय मोरा। धरी देह नहि आन निहोरा॥४॥
भावार्थ:- एहेन सज्जन हमर हृदय मे केना बसैत छथि, जेना लोभीक हृदय मे धन बसल करैत अछि। अहाँ समान संत टा हमरा प्रिय छथि। हम और केकरो निहोरा सँ (कृतज्ञतावश) देह धारण नहि करैत छी॥४॥
दोहा :
सगुण उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
से नर प्राण समान मोरा जिनका द्विज पद प्रेम॥४८॥
भावार्थ:- जे सगुण (साकार) भगवान्‌ केर उपासक छथि, दोसरक हित मे लागल रहैत छथि, नीति और नियम मे दृढ़ छथि और जिनका ब्राह्मण केर चरण मे प्रेम छन्हि, से मनुष्य हमरा प्राणक समान छथि॥४८॥
चौपाई :
सुनु लंकेश सकल गुण तोरे। तै सँ अहाँ अतिशय प्रिय मोरे॥
राम वचन सुनि बानरी सेना। सकल कहय जय कृपा निधाना॥१॥
भावार्थ:- हे लंकापति! सुनू, अहाँक अंदर उपर्युक्त सब गुण अछि। एहि सँ अहाँ हमरा अत्यन्त प्रिय छी। श्री रामजी के वचन सुनिकय सब वानर केर समूह कहय लागल – कृपा केर समूह श्री रामजी केर जय हो॥१॥
सुनैत विभीषण प्रभु के वाणी। नहि अघाय श्रवणामृत जानी॥
पद अंबुज गहय बेरम्बेरा। हृदय समाय नहि प्रेम अपारा॥२॥
भावार्थ:- प्रभु केर वाणी सुनैत छथि और ओकरा कानक लिए अमृत जानिकय विभीषणजी अघाइत नहि छथि। ओ बेर-बेर श्री रामजीक चरण कमल केँ पकड़ैत छथि, अपार प्रेम अछि, हृदय मे समाएत नहि अछि॥२॥
सुनू देव सचराचर स्वामी। प्रणतपाल हिय अंतर्यामी॥
हिया किछु पहिने वासना रहल। प्रभु पद प्रीति सरित से बहल॥३॥
भावार्थ:- (विभीषणजी कहलखिन -) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सभक हृदय के भीतर के जननिहार! सुनू, हमर हृदय मे पहिने किछु वासना छल। से प्रभु केर चरण केर प्रीति रूपी नदी मे बहि गेल॥३॥
आब कृपाल निज भक्ति पावनी। दिअ सदा शिव मन के भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा। माँगल तुरत सिंधु कर नीरा॥४॥
भावार्थ:- आब त हे कृपालु! शिवजी केर मन केँ सदैव प्रिय लागयवला अपन पवित्र भक्ति हमरा दिअ। ‘एवमस्तु’ (अहिना हो) कहिकय रणधीर प्रभु श्री रामजी तुरंते समुद्रक जल माँगलनि॥४॥
यद्यपि सखा तोर इच्छा नाहीं। मोरे दरशु अमोघ जग माहीं॥
से कहि राम तिलक ओहि ढारा। सुमन वृष्टि नभ भेल अपारा॥५॥
भावार्थ:- (और कहला -) हे सखा! यद्यपि अहाँक इच्छा नहि अछि मुदा जगत्‌ मे हमर दर्शन अमोघ अछि (ओ निष्फल नहि जाइछ)। एना कहिकय श्री रामजी हुनका राजतिलक लगा देलनि। आकाश सँ पुष्प केर अपार वृष्टि भेल॥५॥
दोहा :
रावण क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरैत विभीषण राखलनि देलनि राज अखंड॥४९ (क)॥
भावार्थ:- श्री रामजी द्वारा रावण केर क्रोध रूपी अग्नि मे, जे अपन (विभीषण केर) श्वाँस (वचन) रूपी पवन सँ प्रचंड भऽ रहल छल, से जरैत विभीषण केँ बचा लेल गेल आर हुनका अखंड राज्य देल गेल॥४९ (क)॥
जे संपति शिव रावणे दय देलनि दस माथ।
सैह संपदा विभीषणे सकुचि देलनि रघुनाथ॥४९ (ख)॥
भावार्थ:- शिवजी जे संपत्ति रावण केँ दसो सिर केर बलि देला पर देने रहथि, वैह संपत्ति श्री रघुनाथजी विभीषण केँ बहुते सकुचाइते (लजाइते) देलनि॥४९ (ख)॥
चौपाई :
एहेन प्रभु छोड़ि भजय जे आन। से नर पशु बिनु पूँछ बिषान॥
निज जन जानि हुनका अपनेला। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भयला॥१॥
भावार्थ:- एहेन परम कृपालु प्रभु केँ छोड़िकय जे मनुष्य दोसर केँ भजैत अछि, ओ बिना सींग-पूँछ केर पशु थिक। अपन सेवक जानिकय विभीषण केँ श्री रामजी द्वारा अपना लेल गेल। प्रभु केर स्वभाव वानरकुल केर मन केँ बहुत भायल॥१॥
पुनि सर्वज्ञ सर्व हिया वासी। सर्वरूप सब रहित उदासी॥
बजला वचन नीति प्रतिपालक। कारण मनुज दनुज कुल घालक॥२॥
भावार्थ:- फेर सब किछु जननिहार, सभक हृदय मे बसनिहार, सर्वरूप (सब रूप मे प्रकट), सब सँ रहित, उदासीन, कारण सँ (भक्त सब पर कृपया करबाक लेल) मनुष्य बनल रहि तथा राक्षसक कुल केँ नाश करनिहार श्री रामजी नीति केर रक्षा करयवला वचन बजलाह – ॥२॥

समुद्र पार करबाक लेल विचार, रावणदूत शुक केर एनाय और लक्ष्मणजी केर पत्र केँ लैत वापस जेनाय

सुनु कपीश लंकापति वीर। कुन विधि तरब जलधि गंभीर॥
संकुल मगर साँप मत्स जाति। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥३॥
भावार्थ:- हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनू, एहि गहींर समुद्र केँ कोन ढंग सँ पार कयल जाय? अनेक जाति केर मगरमच्छ, साँप और माछ सब सँ भरल रहल ई अत्यन्त अथाह समुद्र पार करय मे सब प्रकार सँ कठिन अछि॥३॥
कहे लंकेश सुनू रघुनायक। कोटि सिंधु शोषक तोर सायक॥
यद्यपि अहाँक नीति ई नाहिं। विनय करू सागर सँ जाहिं॥४॥
भावार्थ:- विभीषणजी कहलखिन – हे रघुनाथजी! सुनू, यद्यपि अहाँक एक बाण करोड़ों समुद्र केँ सोखयवला अछि (सोखि सकैत अछि), तथापि नीति एना कहल गेल अछि (उचित ई होयत) जे (पहिने) जाकय समुद्र सँ प्रार्थना कयल जाय॥४॥
दोहा :
प्रभु अहाँ के कुलगुरु जलधि कहत उपाय विचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरय सकल भालु कपि धारि॥५०॥
भावार्थ:- हे प्रभु! समुद्र अहाँक कुल मे बड़ (पूर्वज) छथि, ओ विचारिकय उपाय बतला देता। तखन रीछ और वानरों केर सारा सेना बिना कोनो परिश्रम के समुद्रक पार उतरि जायत॥५०॥
चौपाई :
सखा कहल अहाँ नीति उपाय। करब दैव जौँ होथि सहाय॥
मंत्र न ई लछुमन मन भायल। राम वचन सुनि अति दुख पायल॥१॥
भावार्थ:- (श्री रामजी कहलखिन -) हे सखा! अहाँ नीक उपाय बतेलहुँ। यैह कयल जाय, यदि दैव सहाय होइथ त। ई सलाह लक्ष्मणजीक मोन केँ नीक नहि लगलनि। रामजीक वचन सुनिकय त हुनका आरो बड़ दुःख भेलनि॥१॥
नाथ दैव केर कोन भरोसा। सोखू सिंधु करति मन रोसा॥
कायर मन केर एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥२॥
भावार्थ:- (लक्ष्मणजी कहलखिन -) हे नाथ! दैव केर कोन भरोसा! मोन मे क्रोध करू (लऽ आनू) और समुद्र केँ सुखा दियौक। ई दैव तऽ कायर केर मनक एक आधार (तसल्ली देबाक उपाय) छथि। आलसी लोक सब दैव-दैव पुकारल करैत अछि॥२॥
सुनथि बिहुँसि बजला रघुवीर। एहिना करब धरू मन धीर॥
से कहि प्रभु अनुज बुझाबथि। सिंधु समीप स्वयं जा पहुँचथि॥३॥
भावार्थ:- ई सुनिकय श्री रघुवीर हँसिकय बजलाह – तहिना करब, मोन मे धीरज राखू। एना कहिकय छोट भाइ केँ बुझाकय प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्रक नजदीक पहुँचलाह॥३॥
प्रथम प्रणाम कयल सिर नाइ। बैसला पुनि तट कुश बिछाइ॥
जखन विभीषण प्रभु लग एला। पाछू रावण दूत पठेला॥४॥
भावार्थ:- ओ पहिने माथ झुकाकय प्रणाम कयलनि। फेर किनार पर कुश बिछाकय बैसि गेलाह। एम्हर जहिना विभीषणजी प्रभुक पास आयल छलाह, तहिना रावण हुनका पाछाँ दूत पठेने छलय॥४॥
दोहा :
सकल चरित्र ओ देखलक धेने कपटि कपि देह।
प्रभु गुण हृदयँ सराहिते शरणागत पर नेह॥५१॥
भावार्थ:- कपट सँ बानर केर शरीर धारण कय ओ सब सबटा लीला देखलक। ओ अपना हृदय मे प्रभु केर गुण केर और शरणागत पर हुनकर स्नेह केर सराहना करय लागल॥५१॥
चौपाई :
प्रगट बखानय राम सुभाव। अति सप्रेम गबे बिसरि दुराव॥
रिपु केर दूत कपि सब जानल। सकल बाँधि कपीश लग आनल॥१॥
भावार्थ:- फेर ओ प्रकट रूप मे सेहो अत्यंत प्रेम केर संग श्री रामजीक स्वभावक बड़ाई करय लागल, ओ सब दुराव (कपट वेश) बिसरा गेलैक। सब वानर बुझि गेल जे ई शत्रु केर दूत छी और ओ सब ओकरा सबकेँ बाँधिकय सुग्रीवक पास लय अनलक॥१॥
कहे सुग्रीव सुनह सब बानर। अंग भंग कय पठबह निशिचर॥
सुनि सुग्रीव वचन कपि दौड़ल। बाँधि कटक चहुँ दिश फिरायल॥२॥
भावार्थ:- सुग्रीव कहलखिन – सब बानर लोकनि! सुने, राक्षस सब केँ अंग-भंग कय केँ पठा दे। सुग्रीव केर वचन सुनिकय बानर दौड़ल। दूत केँ बाँधिकय ओकरा सेनाक चारू बगल घुमेलक॥२॥
बहु प्रकार मारन कपि लागल। दीन पुकारत तदपि न त्यागल॥
जे हमार काटे नाक कान। शपथ कोसलाधीश न आन॥३॥
भावार्थ:- बानर ओकरा सब केँ अनेकों प्रकार सँ मारय लागल। ओ दीन बनिकय पुकार करय लागल – तैयो बानर सब ओकरा नहि छोड़लक। (तखन दूत आरो बेसी जोर सँ पुकार करैत कहलक – ) जे हमरा सभक नाक-कान काटत ओकरा कोशलाधीश श्रीराम जी केर शप्पत छैक॥३॥
सुनि लछुमन सब लग बजेला। दया लागि हँसि तुरत छोड़ेला॥
रावण केँ दीहनि ई पाँती। लछुमन वचन बाचे कुलघाती॥४॥
भावार्थ:- ई सुनिकय लक्ष्मणजी सब गोटा केँ नजदीक बजौलनि। हुनका बड़ा दया लगलनि, ताहि सँ हँसिकय ओ राक्षस केँ तुरन्ते छोड़ा देलनि। (आर ओकरा सब सँ कहला – ) रावण केर हाथ मे ई चिट्ठी दिहें (आर कहिहें – ) रे कुलघातक! लक्ष्मण केर संदेशा मानि ले॥४॥
दोहा :
कहे मुखागर मूढ़ सँ मोर संदेशु उदार।
सीता दय मिलय नहि त आयल कालु तोहार॥५२॥
भावार्थ:- फेर ओहि मूर्ख सँ मुंहजबानी ई हमर उदार (कृपा सँ भरल) संदेश कहिहें जे सीताजी केँ दय हुनका सँ (श्री रामजी सँ) मिलय, नहि त तोहर काल आबि गेल (बुझे)॥५२॥
चौपाई :
तुरत नाइ लछुमन पद माथा। चलल दूत वरणैत गुण गाथा॥
कहैत राम यश लंका आयल। रावण चरण शीश ओ नवायल॥१॥
भावार्थ:- लक्ष्मणजी केर चरण मे मस्तक नवाकय, श्री रामजी केर गुण सभक कथा वर्णन करैते दूत तुरंते चलि देलक। श्री रामजी केर यश कहैते ओ लंका मे आयल आर ओ रावणक चरण मे सिर नवेलक॥१॥
बिहुँसि दसानन पूछलक बात। कहे न सुक अपन कुशलात॥
पुनि कहे खबरि विभीषन केर। जेकरा मृत्यु आबि अति नेर॥२॥
भावार्थ:- दशमुख रावण हँसैत बात पुछलक – अरे शुक! अपन कुशल कियैक नहि कहैत छँ? फेर ओहि विभीषणक समाचार सुना, मृत्यु जेकर अत्यन्त नजदीक आबि गेल छैक॥२॥
करैत राज लंका शठ त्यागल। होयत जौ केर कीट अभागल॥
पुनि कहु भालु बानरक सेना। कठिन काल प्रेरित आबे एना॥३॥
भावार्थ:- मूर्ख राज्य करैत लंका केँ त्यागि देलक। अभागल आब जौ केर कीड़ा (घुन) बनत (जौ केर संग जेना घुन सेहो पिसा जाइत छैक, तहिना ओहो नर-वानरक संग मारल जायत), फेर भालु और बानरक सेनाक हाल कहे, जे कठिन काल केर प्रेरणा सँ एतय चलि आयल अछि॥३॥
जिनकर जीवन केर रखवारा। भेल मृदुल चित सिंधु बेचारा॥
कहु तपसी केर बात बहुरि। जिनकर हृदय मे त्रास अत मोरि॥४॥
भावार्थ:- और जिनकर जीवनक रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बनि गेल अछि (अर्थात्‌) ओकरा और राक्षस सभक बीच मे यदि समुद्र नहि होइतैक त एखन धरि राक्षस सब ओकरा सब केँ मारिकय खा गेल रहैत। फेर ओहि तपस्वी सभक बात बताउ जिनकर हृदय मे हमर बड़ा बेसी भय अछि॥४॥

दूत शुक द्वारा रावण केँ समझेनाय तथा लक्ष्मणजीक सन्देश देनाय

दोहा :
कि भेल भेंट कि फिरि गेला श्रवण सुयश सुनि मोर।
कहे न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥५३॥
भावार्थ:- हुनका सँ तोहर भेंटो भेलौक या ओ सब हमर सुयश सुनिकय लौटि गेलाह? शत्रु सेनाक तेज आर बल बतबैत कियैक नहि छँ? तोहर चित्त बहुते चकित (चौंकल सन) भऽ रहल छौक॥५३॥
चौपाई :
नाथ कृपा कय पुछलहुँ जहिना। मानू कहल क्रोध तजि तहिना॥
मिलल जाय जेना अनुज अहाँके। जाइते राम तिलक जे लगाके॥१॥
भावार्थ:- (दूत कहलक -) हे नाथ! अहाँ जहना कृपा कयकेँ पुछलहुँ अछि, तहिना क्रोध छोड़िकय हमर कहब मानू (हमर बात पर विश्वास करू)। जखनहि अहाँक छोट भाइ श्री रामजी सँ जाय केँ मिलला, तखन हुनका जाइत देरी श्री रामजी हुनका राजतिलक लगा देलनि॥१॥
रावण दूत मोरा सुनि काना। कपि सब बाँधि देल दुःख नाना॥
श्रवण नासिका काटय लागलक। राम शपथ देलापर छोड़लक॥२॥
भावार्थ:- हम रावण केर दूत छी, ई कान सँ सुनिकय बानर हमरा सब केँ बान्हिकय बहुत कष्ट देलक, एतय धरि जे ओ हमरा सभक नाक-कान काटय लागल। श्री रामजी केर शपथ देले पर कहू जे ओ सब हमरा छोड़लक॥२॥
पुछलहुँ नाथ राम केर सेना। बदन कोटि शत वर्णत केना॥
नाना वरण भालु कपि धारी। विकट मुंह विशाल भयकारी॥३॥
भावार्थ:- हे नाथ! अहाँ श्री रामजी केर सेना पुछलहुँ, से ओ त सौ करोड़ मुंह सँ सेहो वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। अनेको रंग केर भालु और वानर केर सेना अछि, जे भयंकर मुंह वला, विशाल शरीर वला और भयानक अछि॥३॥
जे पुर दाह हतल सुत तोर। सकल कपि मे से बलि थोर॥
अमित नाम भट कठिन कराल। अमित नाग बल विपुल विशाल॥४॥
भावार्थ:- जे नगर केँ जरेलक और अहाँक पुत्र अक्षय कुमार केँ मारलक, ओकर बल त सब बानर मे थोड़बाक मात्र छैक। असंख्य नाम वला बड़ा ही कठोर और भयंकर योद्धा अछि। ओहि मे असंख्य हाथीक बल अछि आर ओ बड़ा विशाल अछि॥४॥
दोहा :
द्विविद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केसरि निशठ शठ जामवंत बलराशि॥५४॥
भावार्थ:- द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ई सब बल केर राशि छथि॥५४॥
चौपाई :
ई कपि सब सुग्रीव समाना। एहि सन कोटि गनय के नाना॥
राम कृपा अतुलित बल सभके। तृन समान त्रिलोक गनय जे॥१॥
भावार्थ:- ई सब वानर बल मे सुग्रीव केर समान अछि आर हिनका सब जेहेन (एक-दू नहि) करोड़ों छैक, ओतेक बहुते केँ के गानि सकैत अछि। श्री रामजी केर कृपा सँ सब मे अतुलनीय बल छैक। ओ तीनू लोक केँ तृण (तिनका) समान (तुच्छ) बुझैत अछि॥१॥
ई हम सुनल श्रवण दसकंधर। पद्म अठारह प्रमुखे बन्दर॥
नाथ सैन्यबल कुन कपि नाहिं। जे न अहाँकेँ जीतत रण माहिं॥२॥
भावार्थ:- हे दशग्रीव! हम कान सँ एना सुनलहुँ अछि जे अठारह पद्म त अकेले वानरक प्रमुख (सेनापति) छथि। हे नाथ! ओहि सेना मे एहेन कोनो बानर नहि अछि जे अहाँ केँ रण मे नहि जीति सकय॥२॥
परम क्रोध मीरय सब हाथ। आज्ञा टा नै देथि रघुनाथ॥
सोखब सिंधु सहित मत्स-साँप। नहि त पाटब पाथर झाँप॥३॥
भावार्थ:- सभक सभ एकदम क्रोध सँ हाथ मिरैत अछि। बस श्री रघुनाथजी ओकरा आज्ञा नहि दैत छथि। हम सब माछ और साँप सहित समुद्र केँ सोखि लेब। नहि तऽ बड़का-बड़का पाथर (पर्वत) सँ ओकरा पाटिकर पूरे झाँपि देब॥३॥
मर्दि गर्द मिलबी दसशीशा। एहने वचन कहत सब खीशा॥
गर्जय तर्जय सहज अशंका। मानू ग्रसय चाहत हो लंका॥४॥
भावार्थ:- और रावण केँ मसलिकय गर्दा (धूला) मे मिला देबैक। सब बानर एहने-एहने वचन कहि रहल अछि। सब सहजे निडर अछि, एहि तरहें गरजैत-डपटैत अछि मानू लंका केँ गिरय (निगलय) चाहैत हो॥४॥
दोहा :
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कते जीति सकत संग्राम॥५५॥
भावार्थ:- सब बानर-भालू सहजहि शूरवीर अछि आर फेर ओकरा सभक सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी छथि। हे रावण! ओ सब संग्राम में करोड़ों काल केँ जीति सकैत अछि॥५५॥
चौपाई :
राम तेज बल बुधि विपुलाइ। शेष सहस शत सकथि न गाइ॥
सके सर एक सोखि शत सागर। तोर भ्राते पुछलनि नीति नागर॥१॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी केर तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि केर अधिकता केँ लाखो शेषजी सेहो नहि गाबि सकैत छथि। ओ एक्के बाण सँ सैकड़ों समुद्र केँ सोखि सकैत छथि, मुदा नीति निपुण श्री रामजी (नीति केर रक्षा लेल) अहाँक भाइ सँ उपाय पुछलनि॥१॥
हुनक वचन सुनि सागर पाहि। माँगथि पंथ कृपा मन माहि॥
सुनैत वचन बिहुँसल दसशीशा। जेँ यैह मति सहाय कृत कीशा॥२॥
भावार्थ:- हुनक (अहाँक भाइ केर) वचन सुनिकय ओ (श्री रामजी) समुद्र सँ बाट माँगि रहल छथि, हुनकर मन मे कृपा सेहो छन्हि (ताहि सँ ओ ओकरा सोखैत नहि छथि)। दूत केर ई वचन सुनिते देरी रावण खूब हँसल (और बाजल -) जेँ एहेन बुद्धि छैक, तेँ त बानर सब केँ सहायक बनेलक अछि!॥२॥
सहज भीरु केर वचन दृढ़ाइ। सागर सँ ठानल मचलाइ॥
मूढ़ मृषक कि करें बड़ाइ। रिपु बल बुद्धि थाह हम पाइ॥३॥
भावार्थ:- स्वाभाविके डरपोक विभीषण केर वचन केँ प्रमाण मानि ओ समुद्र सँ मचलाइ (बालहठ) ठानलक अछि। अरे मूर्ख! झूठे बड़ाई कियैक करैत छँ? बस, हम शत्रु (राम) केर बल और बुद्धि केर थाह पाबि लेलहुँ॥३॥
सचिव सभीत विभीषण जेकर। विजय विभूति कतय जग तेकर॥
सुनि खल वचन दूत रिस बाढ़ल। समय विचारि पत्रिका काढ़ल॥४॥
भावार्थ:- जेकर विभीषण जेहेन डरपोक मंत्री छैक, ओकरा जगत मे विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कतय! दुष्ट रावण केर वचन सुनिकय दूत केर क्रोध बढि आयल। ओ मौका बुझिकय पत्रिका निकाललक॥४॥
रामानुज देलनि ई पाँती। नाथ वचाइ जुड़ाबू छाती॥
बिहुँसि बाम कर लेलक रावण। सचिव कहि शठ लागल वाचन॥५॥
भावार्थ:- (और कहलकैक -) श्री रामजी केर छोट भाइ लक्ष्मण ई पत्र देलनि अछि। हे नाथ! एकरा वाचन करबाकय छाती ठंढा कयल जाउ। रावण हँसिकय ओ बायाँ हाथ सँ लेलक आर मंत्री केँ बजवाकय ओ मूर्ख ओकरा वाचन करय लागल॥५॥
दोहा :
बातहि मनहि रिझाय शठ जुनि कर निज कुल खीस।
राम विरोध न उबारि सके शरण विष्णु अज ईश॥५६ (क)॥
भावार्थ:- (पत्रिका मे लिखल छलैक -) अरे मूर्ख! केवल बातहि सँ मोन केँ रिझाकय अपन कुल केँ नष्ट-भ्रष्ट नहि करे। श्री रामजी सँ विरोध कयकेँ तूँ विष्णु, ब्रह्मा और महेश केर शरण गेलापर सेहो नहि बचमें॥५६ (क)॥
की तजि मान अनुज जेकाँ प्रभु पद पंकज भृंग।
हुए कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥५६ (ख)॥
भावार्थ:- या त अभिमान छोड़िकय अपन छोट भाइ विभीषण केर भाँति प्रभु केर चरण कमल केर भ्रमर बनि जो। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी केर बाण रूपी अग्नि (सर अनल) मे परिवार सहित फतिंगा बनि जो (दुनू मे सँ जे नीक लागउ से कर)॥५६ (ख)॥
चौपाई :
सुनैत सभय मन मुख मुसुकाइ। कहत दसानन सबके सुनाइ॥
भूमि पड़ल धरि गहय अकाश। लघु तापस करे बाग विलास॥१॥
भावार्थ:- पत्रिका सुनितहि रावण मोनेमन भयभीत भऽ गेल, मुदा मुंह सँ (ऊपर सँ) हँसैत ओ सब केँ सुनाकय कहय लागल – जेना कियो पृथ्वी पर पड़ल रहैत हाथ सँ आकाश केँ पकड़बाक चेष्टा करैत अछि, तहिना ई छोट तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करैत अछि (डींग हँकैत अछि)॥१॥
कह शुक नाथ सत्य सब वाणी। बुझू छोड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनू वचन मोरा परिहरि क्रोधा। नाथ राम सँ तजू विरोधा॥२॥
भावार्थ:- शुक (दूत) कहलकैक – हे नाथ! अभिमानी स्वभाव केँ छोड़िकय (एहि पत्र मे लिखल) सब बात केँ सत्य बुझू। क्रोध छोड़िकय हमर वचन सुनू। हे नाथ! श्री रामजी सँ वैरी त्यागि दिअ॥२॥
अति कोमल रघुवीर सुभाउ। यद्यपि अखिल लोक कर राउ॥
मिलत कृपा अहाँ पर प्रभु करता। हिय अपराध न एकहु धरता॥३॥
भावार्थ:- यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोक केर स्वामी छथि, लेकिन हुनकर स्वभाव बहुते कोमल अछि। मिलैत देरी प्रभु अहाँ पर कृपा करता आर अहाँक एकहु अपराध ओ हृदय मे नहि रखता॥३॥
जनकसुता रघुनाथ केँ दयदी। एतबा कहल मोर प्रभु कयदी॥
जखनहि ओ कहि देबय वैदेही। चरण प्रहार कयल शठ ओही॥४॥
भावार्थ:- जानकीजी श्री रघुनाथजी केँ दय दिऔन। हे प्रभु! एतेक कहब हमर करू। जखन ओ (दूत) जानकीजी केँ देबय लेल कहलक, तखन दुष्ट रावण ओकरा लात मारलक॥४॥
नाइ चरण सिर चलल ओ तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रणाम निज कथ सुनेलक। राम कृपाँ आपन गति पेलक॥५॥
भावार्थ:- ओहो (विभीषणहि जेकाँ) चरण मे सिर नमाकय ओतय चलल, जतय कृपासागर श्री रघुनाथजी छलाह। प्रणाम कय केँ ओ अपन कथा सुनेलक और श्री रामजी केर कृपा सँ अपना गति (मुनि केर स्वरूप) पाबि गेल॥५॥
ऋषि अगस्त केर शाप भवानी। राक्छस भेल रहल मुनि ज्ञानी॥
बंदि राम पद बेरम्बेरा। मुनि निज आश्रम केर पगधारा॥६॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथि -) हे भवानी! ओ ज्ञानी मुनि छल, अगस्त्य ऋषि केर शाप सँ राक्षस भऽ गेल छल। बेर-बेर श्री रामजी केर चरण केर वंदना कय केँ ओ मुनि अपन आश्रम केँ चलि गेलाह॥६॥

समुद्र पर श्री रामजी केर क्रोध और समुद्र केर विनती, श्री राम गुणगान केर महिमा

दोहा :
विनय नै मानय जलधि जड़ गेल तीनि दिन बीति।
बजला राम सकोप तखन भय बिनु होय न प्रीति॥५७॥
भावार्थ:- एम्हर तीन दिन बीत गेल, मुदा जड़ समुद्र विनय नहि मानैछ। तखन श्री रामजी क्रोध सहित बजलाह – बिना भय के प्रीति नहि होइछ!॥५७॥
चौपाई :
लछुमन बाण सरासन आनू। सोखी बारिधि विशेष कृसानु॥
शठ सँ विनय कुटिल सँ प्रीति। सहज कृपन सँ सुंदर नीति॥१॥
भावार्थ:- हे लक्ष्मण! धनुष-बाण आनू, हम अग्निबाण सँ समुद्र केँ सोखि लैत छी। मूर्ख सँ विनय, कुटिल संग प्रीति, स्वाभाविके कंजूस सँ सुन्दर नीति (उदारताक उपदेश),॥१॥
ममता रत सँ ज्ञान कहानी। अति लोभी सँ विरति बखानी॥
क्रोधी शम कामीहि हरिकथा। ऊसर बिया बाउग फल यथा॥२॥
भावार्थ:- ममता मे फँसल मनुष्य सँ ज्ञान केर कथा, अत्यंत लोभी सँ वैराग्य केर वर्णन, क्रोधी सँ शम (शांति) केर बात और कामी सँ भगवान्‌ केर कथा, एहि सभक वैह टा फल होइत छैक जेना ऊसर मे बिया बाउग कयलाक होइछ (अर्थात्‌ ऊसर मे बिया रोपबाक भाँति ई सब व्यर्थ जाइत छैक)॥२॥
से कहि रघुपति चाप चढ़ेलनि। ई मत लछुमन केँ मन भावलनि॥
संधानल प्रभु विशेष कराला। उठल उदधि हिय अंतर ज्वाला॥३॥
भावार्थ:- एना कहिकय श्री रघुनाथजी धनुष चढ़ेलनि। ई मत लक्ष्मणजी केर मन केँ खूब नीक लगलनि। प्रभु द्वारा भयानक (अग्नि) बाण संधान कयलनि, जाहि सँ समुद्रक हृदय केर अंदर अग्नि केर ज्वाला उठल॥३॥
मगर साँप मछरी अकुलायल। जरत जंतु जलनिधि जे जानल॥
कनक थार भरि मणि सब नाना। विप्र रूप एला तजि माना॥४॥
भावार्थ:- मगर, साँप तथा मछरीक समूह व्याकुल भऽ गेल। जखन समुद्र जीव सभकेँ जरैत जनलक, तखन सोनाक थार मे अनेकों मणि (रत्न) सब भरिकय अभिमान छोड़िकय ओ ब्राह्मण केर रूप मे एला॥४॥
दोहा :
कटले पर केरा फरय कोटि जतन कियो सींच।
विनय न माने खगेश सुनु डाँटहि पर नव नीच॥५८॥
भावार्थ:- (काकभुशुण्डिजी कहैत छथिन -) हे गरुड़जी! सुनू, चाहे कियो करोड़ों उपाय कय केँ सींचय, मुदा केरा त कटले पर मात्र फरैत अछि। नीच विनय सँ नहि मानैछ, ओ डँटले टा पर झुकैत अछि (रास्ता पर अबैत अछि)॥५८॥
सभय सिंधु गहे पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुण मोरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। एहि केर नाथ सहज जड़ करनी॥१॥
भावार्थ:- समुद्र भयभीत भऽ कय प्रभु केर चरण पकड़िकय कहलक – हे नाथ! हमर सब अवगुण (दोष) क्षमा कयल जाउ। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- एहि सभक करनी स्वभावहि सँ जड़ छैक॥१॥
अहीं प्रेरित माया उपजेलक। सृष्टि हेतु सब ग्रंथ जे गेलक॥
प्रभु आज्ञा जे जहिना जिबय। से सैह भाँति सुख अछि पाबय॥२॥
भावार्थ:- अहाँक प्रेरणा सँ माया एकरा सब केँ सृष्टिक लेल उत्पन्न कयलक अछि, सबटा ग्रंथ यैह गेलक अछि। जेकरा लेल स्वामीक जेहेन आज्ञा अछि, ओ ओहि तरहें रहय मे सुख पबैत अछि॥२॥
प्रभु भल कयल मोरा सिख देलहुँ। मर्यादा सेहो अहीं त बनेलहुँ॥
ढोल गँवार शुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥३॥
भावार्थ:- प्रभु नीक कयलहुँ जे हमरा शिक्षा (दंड) देलहुँ, किन्तु मर्यादा (जीव केर स्वभाव) सेहो अहींक बनायल छी। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री – ई सब शिक्षा केर अधिकारी छी॥३॥
प्रभु प्रताप हम जाइब सुखाइ। उतरत सेना न मोर बड़ाइ॥
प्रभु आज्ञा अकाट्य श्रुति गाइ। करू से बेगि जे अहाँकेँ सोहाइ॥४॥
भावार्थ:- प्रभु के प्रताप सँ हम सूखा जायब और सेना पार उतरि जायत, एहि मे हमर बड़ाई नहि अछि (हमरा मर्यादा नहि रहत)। तथापि प्रभु केर आज्ञा अकाट्य है (अर्थात्‌ अहाँक आज्ञा केर उल्लंघन नहि भऽ सकैछ) एना वेद गबैत अछि। आब अपने केँ जे नीक लागय, हम तुरन्त वैह करी॥४॥
दोहा :
सुनथि विनीत वचन अति कहे कृपालु मुसुकाइ।
जेहि विधि उतरय कपि सेना तात से कहू उपाइ॥५९॥
भावार्थ:- समुद्र केर अत्यंत विनीत वचन सुनिकय कृपालु श्री रामजी मुस्कुराकय कहलखिन – हे तात! जाहि प्रकारे बानरक सेना पार उतरि जाय, से उपाय बताउ॥५९॥
चौपाई :
नाथ नील नल कपि दुइ भाइ। बच्चहि मे ऋषि आशीष पाइ॥
हुनक छूबल गेल गिरि भारी। हेलत जलधि प्रताप अपारी॥१॥
भावार्थ:- (समुद्र कहलकैक – )) हे नाथ! नील और नल दुइ बानर भाइ छथि। ओ सब बचपने मे ऋषि सँ आशीर्वाद पेने रहथि। हुनकर स्पर्श मात्र कयला सँ भारी-भारी पहाड़ तक अहाँक अपार प्रताप सँ समुद्र पर हेलय लागत॥२॥
हमहुँ हिय धय प्रभु प्रभुताइ। करबय बल अनुमान सहाइ॥
एहि विधि नाथ पयोधि बन्हबाइ। जाहि सँ सुयश लोक तिनु गाइ॥२॥
भावार्थ:- हमहुँ प्रभु केर प्रभुता केँ हृदय मे धारण कय अपन बल केर अनुसार (जतय तक हमरा सँ बनि पड़त) सहायता करब। हे नाथ! एहि तरहें समुद्र को बन्हबाउ, जाहि सँ तीनू लोक मे अहाँक सुन्दर यश गायल जाय॥२॥
एहि सर मोरे उत्तर तट वासी। हतू नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीड़ा। तुरतहि हरल राम रणधीरा॥३॥
भावार्थ:- एहि बाण सँ हमर उत्तर तट पर रहयवला पाप केर राशि दुष्ट मनुष्य केर वध कयल जाउ। कृपालु और रणधीर श्री रामजी समुद्र केर मनक पीड़ा सुनिकय से तुरन्ते हरि लेलनि (अर्थात्‌ बाण सँ ओहि दुष्ट सभक वध कय देलनि)॥३॥
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भेला सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभु सुनायल। चरण बंदि पाथोधि सिधायल॥४॥
भावार्थ:- श्री रामजी केर भारी बल और पौरुष देखिकय समुद्र हर्षित होइत सुखी भऽ गेल। ओ ओहि दुष्ट सभक सारा चरित्र प्रभु केँ कहि सुनेलक। फेर चरण केर वंदना कयकेँ समुद्र चलि गेल॥४॥
छंद :
निज भवन गेला ओ सिंधु श्रीरघुपति केँ से मत भावलनि।
ई चरित कलि मल हर यथामति दास तुलसी गावलनि॥
सुख भवन संशय शमन दमन विषाद रघुपति गुण गना।
तजि सकल आश भरोस गावय सुनत संतन्ह शठ मना॥
भावार्थ:- समुद्र अपन घर चलि गेल, श्री रघुनाथजी केँ ई मति (ओकर सलाह) नीक लगलनि। ई चरित्र कलियुग केर पाप सभकेँ हरयवला छथि, एकरा तुलसीदास अपना बुद्धि केर अनुसार गेलनि अछि। श्री रघुनाथजी केर गुण समूह सुख केर धाम, संदेह केँ नाश करयवला और विषाद केँ दमन करयवला अछि। अरे मूर्ख मन! तूँ संसार केर सब आशा-भरोसा त्यागिकय निरंतर ई गाबे और सुने।
दोहा :
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुण गान।
सादर सुनहिं से तरहिं भव सिंधु बिना जलयान॥६०॥
भावार्थ:- श्री रघुनाथजी केर गुणगान संपूर्ण सुन्दर मंगल केँ दयवला अछि। जे एकरा आदर सहित सुनत, ओ बिना कोनो जलयान (जहाज अर्थात् अन्य साधनहि) केँ भवसागर केँ तरि जायत॥६०॥
मासपारायण, चौबीसम विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।

कलियुग केर समस्त पाप केँ नाश करयवला श्री रामचरित मानस केर ई पाँचम सोपान समाप्त भेल।
(सुंदरकाण्ड समाप्त)