मूल पहचान को पाने के लिये जगने लगे हैं मिथिला के लोग

विचार

– पंकज कुमार झा, रायपुर (छत्तीसगढ)

pankaj-ji-raypurनोटबंदी की आपाधापी में एक बड़ी खबर छूट ही गयी. खबर मिथिला से है. आगे लिखने से पहले ज़रा ये सोचिये दुनिया भर के मैथिल. अगर भावुक होंगे तो रो देंगे इसे सोचते हुए. मिथिलांचल में मौजूद मैथिल दुनिया के गिने-चुने अभागे कौम में से एक हैं जो बच्चा पैदा करने से पहले ही यह सोच लेते हैं कि उनकी पैदा होने वाली संतान का एकमात्र साफल्य यही होगा कि वह अपनी जड़ से उखर कर दूर किसी नगर-महानगर में सड़ांध मारते झुग्गियों के बीच अपनी ज़रा सी जगह बना सके. दुनिया के कुछ विस्थापित समूहों को छोड़ दें तो शायद ही ऐसा अभागा समाज कोई और हो जो शान्ति काल में भी अपनी जड़ों से उखड़ने को न केवल तैयार रहे बल्कि उसी को अपना गौरव समझे. जो किसी कारण से उखड़ नहीं पायें अपनी माटी से वे दीन-हीन, निस्तेज, असफल होने की कुंठा और अनावश्यक आक्रोश एवं नकारात्मकता के साथ देश-दुनिया को गाली देते हुए किसी तरह घिसट-घिसट कर जीने को मजबूर रहें. दिल्ली सेट, मुंबई सेट, रायपुर सेट होने पर गर्व करने वाली इस ज़मात के दुखों, सांस्कृतिक संकटों पर जार-जार आसूं बहाने के अलावा कोई राह नज़र नहीं आती. यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि एक समय के बाद दुःख ही सुख का विषय हो जाता है, पीड़ा में ही हम आनंद तलाशने लगते हैं जैसे खाज-खुजली का कोई मरीज़ अपने घाव को कुरियाने में आनंद लेता है.

सबसे पहले तो ज़रूरी यह था कि हम समझें कि सच में संकट है ये. जीवन साल भर देश भर में जिल्लत और अपमान झेलने के बाद छठ पर हफ्ते-दो-हफ्ते के लिए लावा या माइक्रोमैक्स के बड़े स्क्रीन वाले मोबाइल में देहात में छूट गए ‘गवारों’ को उस पर सनीमा दिखाने का ही नाम नहीं है. जीवन का अर्थ गरिमा, सम्मान, आत्मसम्मान से होता है. जीवन ‘बिहारी कहीं के’ सुन कर दांत चियार देने का नाम नहीं है. जीवन लालू की बातों पर खुद भी हँस कर दुनिया को खुद पर हँसने देने का नाम नहीं है. जीवन मर्यादा और आदर की मांग करता है न कि दिल्ली की झुग्गियों में घंटे भर लाइन लगा कर गंधाते निगम के शौचालयों में मुश्किल से विष्ठा के बीच अपने पांव रखने मात्र की जगह बना कर नित्य कर्म निपटा लेने का नाम है. जीवन इससे आगे की काफी कुछ मांग करता है. विवेकानंद ने पश्चिम को जाकर यही बताया था कि सबसे बड़े अफ़सोस की बात तो यही है कि उसे यह ही नहीं पता कि वह दुखी है. हालांकि उसके संकट अलग थे हमारे अलग. हमारा संकट हमारी सांस्कृतिक पहचान का संकट है, गरिमा और आदर के साथ जीवन को थाती समझ जी पाने से वंचित रह जाने का संकट है.

मिथिला राज्य निर्माण सेना ने इस संकट को पहचाना. महानगरों की कथित चकाचौंध से निर्मोह हो अपनी माटी पर जा कर वहां काम करने वाले कुछ सरफिरे युवाओं ने संकट के कारण को भी तलाशने की कोशिश की है, समाधान के उपायों पर भी विमर्श करना शुरू किया है. समाधान के सीरिज में सबसे पहला कदम है हमें अपनी सांस्कृतिक पहचान को अपने प्रदेश का रूप देना ही है. पिछले लाखों वर्ष से लेकर कुछ सौ वर्ष पहले तक एक गौरवमयी इतिहास और अस्मिता समेटे ‘मिथिला राज्य’ को स्वतंत्र भारत में एक संवैधानिक इकाई के रूप में मान्यता दिलाना ही सबसे बड़ा समाधान है. पिछले बारह वर्ष से छत्तीसगढ़ में रहने के कारण हमने देखा है कि केवल प्रदेश बन जाने और माटीपुत्रों के हाथ में शासन सूत्र आ जाने से क्या चमत्कार हो सकते हैं. हमारी तरह ही पलायन की पीड़ा से जूझते इस प्रदेश ने आज यह सामर्थ्य हासिल कर लिया है कि मेरे जैसे लाखों शरणार्थी भी आज यहां अवसर तलाशते नज़र आ रहे हैं. दशक भर पहले तक छः हज़ार करोड़ की बजट वाले इस प्रदेश के पास आज अपने लोगों के लिए सालाना साठ हज़ार करोड़ रूपये की राशि है. अन्य अनेक उपलब्धियों का वर्णन यहां संभव नहीं जिसके कारण उपेक्षा और बदहाली का प्रतीक समझा जाने वाले छग आज अवसरों का प्रदेश हो गया है. Dr Raman Singh जी के कुशल नेतृत्व में अग्रसर यह प्रदेश मिथिला जैसे अनेक क्षेत्रीय अस्मिताओं के लिए एक अटल सन्देश जैसा है. बहरहाल.

कोई भी उपलब्धि किसी को यूं ही हासिल नही होती. संघर्षों में तप कर निखरना होता है, पीडाओं में पलना होता है. पिछले मंगल-बुधवार को जब काले धन की चर्बी वाले बेईमानों की शामत आयी हुई थी, जब कई उचक्के हर्ट अटैक से अल्लाह को प्यारे हो रहे थे, लगभग उसी समय मिथिला एक नए तरह का सर्जिकल स्ट्राइक कर रहा था. मिरानिसे के लोग राजधानी दरभंगा में इकठ्ठा हो पटना के खिलाफ शंखनाद कर रहे थे, हुंकार भर रहे थे अपने और अपनों को अधिकारों से वंचित रखने के खिलाफ. बड़ी संख्या में देश भर से एकत्र हुए मैथिल मानो यह चेतावनी देते नज़र आ रहे थे कि अब उनके संसाधनों पर उन्हीं का अधिकार होगा, किसी को अब शोषण करने नहीं दिया जाएगा. हालांकि संख्या का ज्यादा महत्त्व नहीं होता, संख्या तो कारवां बन जाता है जैसे दर्ज़न भर लोगों के साथ शुरू हुए जेपी की पहल देखते ही देखते ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ बन गयी थी. दरभंगा का अधिवेशन भी मिथिला के लिए सम्पूर्ण क्रान्ति की मील का पत्थर साबित होगा. आन्दोलन से जुड़े मित्रों का हार्दिक अभिनंदन..बधाई..साधुवाद.