एकटा खिस्साः इनार नीक कि समुद्र नीक
– प्रवीण नारायण चौधरी
आइ एकटा खिस्सा फेर मोन पड़ि गेल अछि…. ओ रामकृष्ण परमहंस द्वारा अपन शिष्य सबकेँ बेसीकाल सुनाओल जायवला टेल्स आ पाराबल्स मे या फेर स्वामी विवेकानन्द द्वारा अनुकरणीय उदाहरण देल जायवला कथा मे कतहु पढने रही। एहि कथा सँ हमरा जे किछु सीख भेटल ओकरहि सुखद परिणाम सँ आइ ई अपने लोकनिक बीच मे अपन मीठ मातृभाषा मैथिली मे राखि रहल छी।
बात थिकैक एकटा अत्यन्त प्राचीन इनार केर जाहि मे कतेको रास जल-जीव केर बसेरा छल। अपना सबहक मिथिला मे सेहो कोनो पुरान इनार मे बेसी जल-जीव टा देखाएत छैक से सब कियो देखनहिये होयब। नवका पीढी केँ भले ई भाग्य नहि भेटल हो अपने लोकनि हमर हम-उम्र केर महानुभाव लोकनिक कृपा सँ ओ बात दिगर भेल…. मुदा हम सब जरुर देखने छी। खास कय केँ इनार मे बेंग केर संख्या बेसी होएत छैक, ओकरा सबहक क्रीड़ा कनेकबे मुरियारी देला सँ देखय मे अबैत छैक। धिया-पुता मे लोक कटकी-कंकड़ सँ बेंग सब केँ खौंझाबय तऽ ओकरा सबहक पानि मे दरबर-दौड़ केर खेल देखय मे एकटा अलगे आनन्द भेटैत छलैक। जी! ई खिस्सा इनार केर बेंग पर कहल गेल से पढने रही।
एक दिन कूसंयोग वा सुसंयोग सँ एकटा समुद्रक बेंग भ्रमण पर निकलल छल। घूमैत-घूमैत ओ अपन किछु स्वजाति केँ ओहि इनार मे देखि अपना केँ नहि रोकि सकल आर ओतय ओ कूदिकय भीतर चलि गेल। कन्हा उचका-उचकाकय अपन परिचय दैत ओहि इनारक बेंग सबकेँ कहलक जे हम फल्लाँ महासागरक बेंग – विश्व भ्रमण पर निकलल छी। आ, आइ संयोग सँ अपन स्वजाति केँ एना एकटा छहरदेवालीक भीतर घेरायल देखि हमरा नहि देखल गेल। अहाँ सब सँ हालचाल पूछबाक लेल एतय एलहुँ अछि। इनारक बेंग सब ओकर बजबाक स्टाइल आ अपन घरक परिचय मे ‘महासागर’ केर प्रयोग सँ कनेक विस्मित भेल। ओकरा सबहक मध्य जे सब सँ बेसी स्मार्ट छल ओ कनेक हिम्मत कय केँ पूछि बैसल, “महोदय! अहाँ जे अपन घरक परिचय मे फल्लाँ महासागर कहल से कतय अछि आर अपने तऽ एना कहल जेना हमरा लोकनिक घर सँ ओ अलग हो? कनेक फरिछाउ आरो!”
ताहि पर ओ समुद्रक बेंग बाजल, “अहा! कतेक नीक प्रश्न पूछलहुँ। कतय समुद्र आ कतय ई इनार! यौ भाइ! हमरा सब तऽ खूल्ला सीमानाक वासिन्दा थिकहुँ। अहाँ सब कतबू दरबर-डेग देबैक तऽ एहि छहरदेवालीक सीमा मे रहय पड़त। मुदा हमरा सब लेल कोनो छहरदेवाली नहि। जतय धरि मोन हो ओतय धरि विचरण करू!”
पुनः ओकरा टोकैत इनारक सर्वाधिक स्मार्ट बेंग बाजल, “मतलब? समुद्र एहि इनार सँ बेसी नीक अछि कि?” “निश्चिते न!” जबाब देलक ओ समुद्री बेंग। पुनः ओकरा टोकैत कहलक इनारक बेंग, “यौ श्रीमान्! घर अपन-अपन! जीवन अपन-अपन! हमरा सब लेल तऽ यैह इनार थीक जीवन। एतहि सब भोग, सब व्यंजन आ सब किछु भेटि रहल अछि। ओतेक जे दरबर डेग मारबो करब तऽ अपनहि थाकब। हमरा बुझने एना सीमा मे रहिते सब किछु भेटि गेनाय असाधारण बात भेल, भले ओ भोजन हो वा भ्रमण। हमरा लोकनि एतय बड आनन्द सँ रहि रहल छी। सब अपने लोक थिकहुँ। एक-दोसराक सुख-दुःख सब किछु मे हम सब शीघ्रहि एक-दोसर धरि पहुँचि जाएत छी। कनिकबो जोर सँ कियो हाक देलक तऽ हम सब सहयोग लेल तैयार भेटि जाएत छियैक। दुःख मे या सुख मे गामक सीमा छोट रहबाक कारणे हम सब एत्तहि बड प्रसन्न छी। हमरा लोकनिक संसार एतबी अछि।”
समुद्री बेंग केँ इनारक बेंग केर ई आत्मप्रशंसाक प्रवचन ओतेक ठीक नहि लगलैक। ओ फेर अपन समुद्रक लंबाई-चौड़ाई केर व्याख्याक संग ओतय रहि रहल विभिन्न प्रजातिक असीमित संख्या, सितुआ-मोती-व्हेल-सार्क आ रंग-बिरंगक माछ-काउछ – पानिक रंग एहेन जेकर वर्णन शब्द मे करब कठिन – इनार मे तऽ कागजोक नाव चलब कठिन अछि जखन कि समुद्र मे बड़का-बड़का पनिया जहाज चलैछ…. आदि-आदि। स्वजातियो मे कतेक प्रकारक बेंग ओतय देखल जा सकैत अछि। ओहि ठामक जीवन-स्तर केर तूलना एहि इनार सँ करब मूर्खता छोड़ि आन किछु नहि। – एतेक सुनिते इनारक बेंग सब एक संगे तमशा गेल… ओ सब कहय लागल जे मूर्खताक बात हमरा सब केँ अहाँ सँ सिखय पड़त…. एतेक असहाय आ दीन हम सब नहि छी। अहाँक सोच मे हमरा सब केँ दीनता देखा रहल अछि। हमरा लोकनिक मीमांसा मे अहाँ कतहु सँ उचित बजैत नहि देखा रहल छी। कृपया ई अलाप बन्द करी आर आगाँ ई सोची जे एहि इनार मे जे आबि गेल छी से आब एत्तहि रहबाक अछि, एतय कोना हमरा सब संग अहाँ सेहो मिलिजुलि रहब ताहि पर विचार करू। जीवन छोट होएत छैक। व्याख्या मे समय गुदस्त करब बरु मूर्खता होयत। बस जीवन कोना चलत सुखपूर्वक ताहि पर विचार करैत अपना आप केँ समझाउ।
समुद्री बेंग केँ इनारक बेंग केर ई गूढ दर्शन भरल बात दिमाग चक्रियाबय लागल छल। आब ओकरा ई बुझय मे आबि रहल छलैक जे वास्तव मे ओ एहि इनार सँ बाहर कोना जायत… एतेक ऊँच देवाल केँ कोना नांघत…. आब तऽ ओकरो जीवन एहि इनार मे सीमित रहि जायत…. जँ समुद्रहि केर सुन्दरता ओकरा लेल नीक छल तऽ ओ एना घूमबाक उद्देश्य सँ बाहर कियैक निकलल आ घुमैतो-फिरैतो एहेन कार्य कियैक कय लेलक जे आब ओकर आसियाना एहेन इनार मात्र बनि गेल अछि। ओ इनारक बेंग केर सुझाव पर सेहो खूब सोचलक मने-मन…. आर कनेक लजाइतो ओ अपना आप केँ बुझबैत – अपन अहं केँ ऊपर रखबाक लेल पुनः समु्द्रहि केर सुन्दरताक वर्णन करैत अपना केँ कनेक ऊपर रखबाक चेष्टा केलक। एहि बेर इनारक बेंग सबकेँ रहल नहि गेल आर ओ सब एक साथ ओकरा पर आक्रमणकारी स्वर मे बाजय लागल, “भाइ! बहुत भेल अहाँक ई समुद्री गाथा। बन्द करू ई सब नहि तऽ गलहस्तेन धोधरः, हमरहि सबकेँ बन्द कराबय पड़त ई बकथोथी!”
आब समुद्री बेंग केँ प्राण रक्षाक मूल कर्तब्यक अनुभूति भेल आर ओ इनारक बेंग केर ओहि चेतावनी केँ गंभीरतापूर्वक लैत एक्कहि स्वर मे बाजि उठल, “गलती भेल! सच मे हम ई बिसैर गेल रही जे वर्तमानहि टा सुन्दर होएछ। हमर भूत छल समुद्र। हम ओकर झूठ माया मे फँसल रही। अपने लोकनिक संसार छोटहि सही मुदा एहि सँ सुन्दर दोसर किछु नहि।”
सब बेंग एक संगहि मुस्कुराइत समु्द्री बेंग केँ भोजन-भात उपलब्ध कराय ओकर विश्रामक प्रबन्ध करैत कहलक, “आराम करू! बड थाकल होयब। भोरे उठब तऽ इनारक सुन्दरता आरो बेसी बुझय मे आओत।” मरता-क्या-नहीं-करता वला हिन्दी कहावत जेकाँ ओ समुद्री बेंग बेचारा बर्बस आराम करय लेल आँखी मूंदि लेलक।
खिस्सा खत्तम!
ई खिस्सा हम खासकय अपन मिथिलावासी भाइ-बहिन लेल ‘रिमेक’ केने छी। एकर सार केँ सब कियो बुझबाक प्रयास जरुर करब।
हरिः हरः!!