यथार्थ व्यंग्य
– संतोष कुमार “संतोषी”
उन्नैति…. की “खच्चरैहि “
से सत्ते, हम सब गोटे बेसिये उन्नैतिक बाट पर छी…. पुरना रिति रेवाज, रहन सहन आ समाजिक सुसंस्कृति केँ ताख पर राखि नव-नव विचार नव-नव व्यवहार केँ संग सत्ते बेसिये उन्नैति कय रहल छी……! जाईत-पाईत अनुसारे काज बाँटल गेल रहय कि काजक अनुसारे जाईत-पाईतक बँटवारा भेल छल से कोना के कहत…… मुदा गाम समाजक बीच सबटा काज परम्परागत होइत आबि रहल अछि…. छठियारी सँ कठियारी धैरि, सब काज मे सब वर्गक लोक केर भागीदारी आ एक-दोसरा केँ सहयोग, सहमैति सँ सुलभ आ सुदृढ़तापूर्वक होइत आबि रहल……
आबक परिवेश में सबलग एकटा साधल जबाब…. अरे.. जा न तोहरा बिनु की परल रहतै. देखियहक कोना चट द सब काज भ जाई छै… कुकूरक नांगैर मे पाई बैन्ह देबैक तऽ कूदिकय सब काज क देतै.. (मूल बात.. आब एक दोसराक आवस्यकता नै… आपसी मेल मिलाप, भाईचारा, सहयोग आ विश्वास के समापन…. ).
पंडीतजी केँ दिनहु उकटापैंची होई छैन पंडीताईन सँ..
पंडित जी: –के कहलक अहाँके ओकरा गछबाक लेल, हम ओकरा सबहक ओहिठाम पुजा करबय जाऐब….. दैछिना बेर मे तऽ प्राण सुखाय लगैत छैक, छोरलौं आब हम ई पुजा पाठ…
(त की हेतै, बिनु पंडिते पुजा भऽ जेतै… जमाना कतेक आगु भऽ गेल से नै जनै छियै… कि बुझि परैये लोक निहोरा करय आएत.. तै भक में नै रहू…… )
नौवाक केश कटबाक वा अन्य जरुरति पड़ला पर…..
नौवा (ठाकुर ):–की करबैक, अपने आब सकै नै छियै आ धिया पुता सब परदेश पकैड़ लेलकै… के करतै, धिया पुता आब ककर सुनै छै… दुनू छौरा शहरे में बड़का सैलून खोलने अइ… कनियां आ बच्चा सब केँ सेहो ओत्तै राखने अइ… बुझू आन्नद में यऽ…. आब ओ सब घुरि कय गामो आयत.. आकि हमरे जेकां ऐहि समाज मे खटत… नै – नै… सत्त पुछी त आब अपनो नै निक लगैये…
(त की भेलैक… जमाना बदैल गेलै से नै बुझै छहक, कियो बजबय एतह कि ककरो खुसामद छै… बड़का-बड़का सैलून खुजल छै, ओहि मे नह-केश सेहो कराओत लोक. ..)
कमारक विधि-व्यवहारक जरुरत बेर…….
कमार (बढई ):– धू: आब हमरा सबहक कोन काज छै समाज के… गेलै ओ जमाना आ छोड़लौं हमहूँ सब सबटा… लोकक बेगारी कतेक दिन करैत रहब… आ मना करैयऽ धिया पुता, कहैयऽ कोन काज छह दुआइरे-दुहरा जेबाक, जमाना कतेक आगू भऽ गेलै आ तू सब अखनो गाम समाजक रटनी लगेने रहै छह…. की करबै कहू ने
(करबै की, अहाँ अपना घर समाज अपना घर… सबटा त बजार में भेटिते छैक… विधो व्यवहार के समान रेडीमेड उपलब्ध छैक… भने जान छुटलै लोकक…… )
कुम्हारक प्रयोजन बियाह-शादी व अन्य अवसर पर…..
कुम्हार: – यौ… कीन बेसाह काल समाजे नै… आन काल मे समाज.. भोजगारा समान मे देखियौ दहि पौरैय बला बासन तक बजार स किनके आनने अई समाज…. हम कथी के कुम्हार यौ, जितुहा मे खोजे नै आ मरलाहा मे हम… जाऊ जाऊ बरका टा बजार छैक… छोड़लौं हम ई समाज…
(बढिये न… माइटिक बासन मे कतौ लोक खान पीयन करय…. अरे ओ तऽ पहिलुका जमाना मे किछु साधन नै छलै तऽ जे-जेना करै छल…
आब त चमचमा करैत द्रव्य सब…. बने….)
चमारक प्रयोजन पर…….
चमार: — (मरलाहा माल मवेशी उठबै काल आ कि ढोलहा पीटै काल)… ऐँ यो हमरा सब ऐतबै करैत रहब. .. अपने त माल मवेशी पालबे नै करै छी हम सब! तखन मरलाक बाद के उठायत?? भगवान के कृपा स हमहूँ सब उन्नैत केलियै… सबहक धिया पुता परहै लिखै छै.. आब कि हम सब, सब दिन ओहि घुरधूँई में लागल रहब…..
(नै नै.. अरे जखन खेती टेक्टरे स होइछै, आ दूध-दही के बजार में कोन अभाव छै… पन्नी पैक फुलक्रीम… अहा……. तहन माल मवेशी लोक पालवे किया करत, आ फाईदा त देखियौ जे जटायु (गिद्ध ) सनक निकृष्ट जीव सेहो भने अलोपित भ गेल… )
डोमक प्रयोजन पर………….
डोम: — गोसाउनी घर सँ लैत छैठ परमेश्वरी तक वास्ते सब सामग्री बजारे सँ अबैये… आब त घाटो-बाट पर बजरूआ समान सब देमै लगलै… डोम त आब नामे टा लेल रैहि गेल……
(बड नीक..मोनो बड बैढ गेल छलै एकरा सबहक… गौवाँ के पते नै आ ई सब गामक गाम खरीद विक्री क लै छल… पछिला साल त हमरे कहलक जे अहाँ के तऽ हम पोरकै साल फलम्मा डोमक हाथे बेच देलौं.. आब ओकरे सँ फैरिछाउ…. आ जौं आबो डोमे हाथक बाँसै के बनल समानक जरुरी परत त कथी के उन्नैत केलौं हम सब )
क्रमशः सबगोटे एहेने मानसिकता के घेरा में अइ…. सत्ते नव जमाना, नवका लोक, आ नीक उन्नैत सेहो….. कदाचित् “खच्चरैहि” तऽ तहिया बाहर होएत, जखन आबै बला पिढी आ ऐहू सँ नव जमाना के धिया पुता छाती पर चैढ के पुछत… किया केलह तू सब ऐतेक —-उन्नैति…