स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
उत्तरकाण्ड – दोसर अध्याय
।जयकरी छन्द।
अथ एक समय तहाँ वित्तेश । राजित पिता वास जहि देश ॥
पुष्पक चढ़ल भानु – सम राज । राज – राज सम्राज विराज ॥
तनिकर विभव देखल सतमाय । नाम केकसी अवसर पाय ॥
रावण काँ से देल देखाय । कतय अहाँ कहाँ धनपति भाय ॥
करु गय सुत अहँ तेहन उपाय । होउ हुनक सन कर्म्म बढ़ाय ॥
शुनि रावण मन बाढ़ल कोप । कयल प्रतिज्ञा मन आरोप ॥
तनि सन होयब हम की बाढ़ि । करब तपस्या साहस गाढ़ि ॥
माता मन नहि चिन्ता करब । मनस्ताप सभटा हम हरब ॥
रावण सानुज बनि मुनिवर्ण । फल – सिध्यर्थ गेला गोकर्ण ॥
तप दुष्कर मे दृढ़ मन धयल । निज निज नियम तिनू जन धयल ॥
दश हजार गत भय गेल वर्ष । कुम्भकर्ण तप कयल सहर्ष ॥
कयल विभीषण तप बड़ गाढ़ । एक चरण – भर रहला ठाढ़ ॥
वर्ष बीति गेल पाँच हजार । सत्य – धर्म्म – रत सद्व्यवहार ॥
दिव्य सहस्र वर्ष हठ ठानि । कर तप रावण अन्न न पानि ॥
एक सहस्र पूर्ण हो वर्ष । होम करथि शिर अनल सहर्ष ॥
नव सहस्र वत्सर गत काल । नव शिर होम करथि दशभाल ॥
काटय लगला निज कर माथ । दौड़ि द्रुहिण तनिकर धर हाथ ॥
होइ अमर वर समरहु मारि । देवासुर सौँ कहल विचारि ॥
नाग सुपर्ण आदि जे यज्ञ । समर न हारब हुनक समक्ष ॥
मानव तृण सम हेतु कि लड़त । चिउटी गजक पाद – तल पड़त ॥
कहल तथास्तु कयल ततकाल । वत्स सुमुनि अहँ छी दशभाल ॥
जय गोट कयल होम शिर आगि । सभटा नव नव जायत लागि ॥
अक्षय हयत जाउ सुख वास । अहँ काँ सभक मिटायत त्रास ॥
गेला विभीषण भक्त समाज । कहल विरञ्चि माँगु वर आज ॥
विनत विभीषण जोड़ल हाथ । धर्म्महिँ बुद्धि रहय नित नाथ ॥
कहल विरञ्चि तथास्तु उदार । रावण – अनुजक सत्याचार ॥
विधि सन्तुष्ट अमरता देल । सज्जन वचन सत्य शुनि लेल ॥
कुम्भकर्ण – तट गेला जखन । सुरपति काँ वार्त्ता भेल तखन ॥
थर थर सकल देव – गण काँप । कुम्भकर्ण बुझि उग्र – प्रताप ॥
जौँ विधि हिनकाँ देल वरदान । एक मुनिक नहि बाँचत प्राण ॥
जयता सभकाँ सत्वर खाय । चलु चलु जतय शारदा माय ॥
विधि करइत छथि बड़ अन्याय । देवि शारदा होउ सहाय ॥
कुम्भकर्ण काँ कण्ठ समाउ । हमरा सभहिक प्राण बचाउ ॥
।सोरठा।
कहल विधाता आबि, कुम्भकर्ण वर माँगु अहँ ।
मन – वाञ्छित फल पाबि, जाउ छोड़ि घर कठिन तप ॥
कण्ठ शारदा – वास, कुम्भकर्ण माँगल तखन ।
सभ सुर – मन हो त्रास, की मँगताह विरञ्चि सौँ ॥
।जयकरी छन्द।
निद्रा मे बीतय षट मास । एक दिन भोजन विषय – विलास ॥
विधि देलनि वर से तहिठाम । हृष्ट देव जपि देवी नाम ॥
गेलि सरस्वति मुख बहराय । कुम्भकर्ण लगला पछताय ॥
शुनल सुमाली विधि – वरदान । पलटल हमर भाग्य भगवान ॥
प्रहस्तादि काँ सङ्ग लगाय । भय सौँ रहित चलल बहराय ॥
मिलि मिलि रावण परिचय कहल । वत्स बहुत दिन दुख हम सहल ॥
आज पुरल अछि मन – अभिलाष । हरषैँ कनयित गदगद भाष ॥
लङ्कहिँ छल छी गेलहुँ पड़ाय । अहँक माय काँ एतहि नड़ाय ॥
हम दुख सहब अहँक सन नाति । रक्षा करु राखू निज जाति ॥
क्रम क्रम सकल चरित से कहल । बड़ सम्पति छल किछु नहि रहल ॥
हमरा सबहिँ रसातल रहब । अपनैँक विभव पाबि दुख सहब ॥
धनदक ओतय समाद पठाउ । अथवा बल सौँ हुनि उपटाउ ॥
राजा काँ सम्बन्ध कि भाय । राजा दैवक दोसर न्याय ॥
।रूपमाला छन्द।
कहल दशमुख कथा शुनि शुनि थिकथि धनपति भाय ।
ज्येष्ठ गुरुतर बड़ तपस्वी, करब नहि अन्याय ॥
हुनक सन के भाय हमरा, देखु आँखि पसारि ।
अछि बनल घर विश्व भरि, अरि कर समर के मारि ॥
।चौपाइ।
तखन प्रहस्त कहल तहिठाम । शुनु प्रभु रावण अहँ गुणधाम ॥
शुनल शूर काँ नहि सौभ्रात्र । अतिशय कठिन धर्म्म थिक क्षात्र ॥
सुर राक्षस थिक कश्यप – तनय । तनिकाँ एक घड़ी नहि बनय ॥
अर्थी काँ किछु अर्थे सूझ । शूर सहोदर काँ नहि बूझ ॥
कहइतछी नहि वचन अशुद्ध । देव असुर काँ हेतु कि युद्ध ॥
रावण वचन गेला पतिआय । मानल मन कहइत अछि न्याय ॥
रावण कोप नयन बड़ लाल । कहलनि करब असुर प्रतिपाल ॥
ई वृत्तान्त कहल नहि माय । ज्ञात भेल हम करब उपाय ॥
गिरि त्रिकूट पर रावण जाय । देलनि दूत प्रहस्त पठाय ॥
कहब धनाधिप निकट समाद । हमरा हुनका कोन विवाद ॥
हमरा मातामहक निवास । त्यागथु लङ्का जौँ मन त्रास ॥
कहलनि धनपति आबथु बेश । कतहु बसब गय बड़ गोट देश ॥
स्वस्ति स्वस्ति रावण लङ्केश । आबथु पुर मे करथु प्रवेश ॥
धनपति छोड़ल लङ्कागाम । रावण आबि गेल तहिठाम ॥
दशमुख कयलनि लङ्का – वास । मन्त्री सहित रहित – मन – त्रास ॥
पुछलनि धनद पिता काँ जाय । लङ्का सौँ अयलहुँ बहराय ॥
छोड़ि देल रावण काँ धाम । कयल न एक वचन सङ्ग्राम ॥
जाउ कहाँ से भेट निदेश । कहल पिता जत देव महेश ॥
आज्ञा शुनि गेला कैलास । कयल तपस्या कत दिन वास ॥
तुष्ट महेश देल वरदान । अलका तनिकाँ वासस्थान ॥
शिव – पालित भेला दिकपाल । मित्र महेशक भाग्य विशाल ॥
।सोरठा।
सकल लोक सन्ताप, कर रावण निज-गण-सहित ।
दिन दिन बाढ़ प्रताप, निश्शंसय मन नहि मरण ॥
।चौपाइ।
सूर्प्पनखा काँ भेल विवाह । कालखञ्ज सौँ बड़ उत्साह ॥
विद्यु ज्जिह्व तनिक छल नाम । मायाविनि बड़ लङ्कागाम ॥
मय देल रावण कन्या दान । मन्दोदरी नाम सविधान ॥
देलनि अमोघ शक्ति कर जाय । दितिसुत रावण जानि जमाय ॥
वैरोचन दौहित्री आनि । कुम्भकर्ण काँ देल सन्मानि ॥
वृत्रज्वाला कन्या नाम । लोक विदित छल अछि सभ ठाम ॥
धर्म्मराज शैलूष महान । तनिकाँ कन्या देल भगवान ॥
सरमा नाम विभीषण – दार । सकल सुलक्षण शोभागार ॥
।सोरठा।
पुत्र भेल बलवान, मन हर्षित मन्दोदरी ।
गर्ज्जल मेघ – समान, मेघनाद तैँ नाम छल ॥
।चौपाइ।
कुम्भकर्ण कह बड़का भाय । निद्रा सौँ ताकल नहि जाय ॥
रावण देल गुहा बनबाय । कुम्भकर्ण सुख सुतला जाय ॥
रावण भ्रमण करय लगलाह । सभटा करथि कर्म्म अधलाह ॥
मुनि सज्जन काँ मारथि जाय । रावण करथि बहुत अन्याय ॥
धनपति शुनल दशानन – कर्म्म । शिव शिव रावण करथि अधर्म्म ॥
कहा पठाओल दूत देआय । करु जनु रावण अहँ अन्याय ॥
शुनि रावण धनपति दिश टूटि । लेल जीति कत सम्पति लूटि ॥
पुष्पक रथक कयल से हरण । खल उपदेश करब थिक मरण ॥
यम ओ वरुण पुरी नर्भीति । रावण लेलनि सभ केँ जीति ॥
स्वर्ग्ग लोक रावण गेलाह । मघवा युद्धोद्दत भेलाह ॥
सकल देव सुरपति सङ्ग्राम । रावण काँ बाँधल तेहिठाम ॥
से शुनि मेघनाद तत जाय । देल पिताक बाँध कटबाय ॥
गञ्जन बन्धन बापक हेरि । देवराज काँ बाँधल फेरि ॥
सुरपति बान्धल सङ्ग लगाय । पिता सहित हर्षित पुर जाय ॥
ब्रह्मा अयला बुझि अन्याय । सुरपति काँ देल बाँध फोआय ॥
वर दय ब्रह्मा अपना धाम । गेला जखना हे प्रभु राम ॥
रावण बहुत लोक काँ जीति । रण साहस से कयल अनीति ॥
भुज उठाय लेल गिरि कैलास । सकल लोक काँ बाढ़ल त्रास ॥
नन्दीश्वर तत देलथिनि शाप । रावण तोहरा बाढ़ल पाप ॥
हयतौ नर – वानर – कर मरण । काज न अयतौ दुष्टाचरण ॥
अति उन्मत्त गेला एक काल । हैहयपट्टन गर्व्व विशाल ॥
रावण काँ से बाँधल ततय । बहु अन्याय फलित हो कतय ॥
तत पुलस्त्य मुनि तहि थल जाय । कहि शुनि केँ देल बाँध कटाय ॥
बालिक ओतय कयल बल लाख । ओ धय राखल अपना काँख ॥
चारु समुद्र समुद्र घुमाय । षन्मासावधि देल अटकाय ॥
बड़ दुख काटल धयले धयल । बहरयला मिलि मैत्री कयल ॥
मारल रावण काँ प्रभु राम । रावणि काँ लक्ष्मण सङ्ग्राम ॥
कुम्भकर्ण गिरि – सन्निभ जीति । राखल विश्व चिरन्तन रीति ॥
अपनैँ नारायण भगवान । विभु विश्वम्भर सर्व्वनिदान ॥
नाभिकमल ब्रह्मा उत्पन्न । मुख सौँ अग्नि वचन संपन्न ॥
बाहुयुगल सौँ सभ जन – पाल । नयनैँ रवि शशि भेला विशाल ॥
दिशा विदिश कर्णहि सौँ जात । घ्राण सौँ प्राण वायु विख्यात ॥
तथा अश्विनी युगल कुमार । जङ्घादिक सौँ लोकप्रचार ॥
भेल उदर सौँ सागर चारि । स्तन सौँ वरुण तथा पाकारि ॥
बालखिल्य – गण भेल उत्पन्न । उर्व्द्धरेत सद्गुण – सम्पन्न ॥
भेल मैढ़्र सौँ यम – उतपत्ति । गुद सौँ मरणक सर्व्व विपत्ति ॥
अहँक कोप रुद्रक अवतार । अस्थि सौँ पर्व्वत अति विस्तार ॥
कच सौँ जलद रोम सौँ सर्व्व । औषधि भेल अनन्त निखर्व्व ॥
नख – संजात खरादिक भेल । अपनै विश्वरूपता लेल ॥
स्थावर जङ्गम जत संसार । सभ अपनहिँ बाहर व्यवहार ॥
।दोहा।
अपनैक बल पिब अमृत सुर, सकल यज्ञ मे जाय ।
भासमान रवि चन्द्रमा, अपनैँक भा काँ पाय ॥
सर्व्वग नित्य अनन्त प्रभु, ज्ञान – विलोचन – दृष्ट ।
नहि देखथि अज्ञान – दृग, रवि काँ लोचन मृष्ट ॥
देखयित छथि निजदेह मे, योगीजन परमेश ।
भक्ति – भावना ज्ञान – बल, सकल वस्तु सभ देश ॥
।सोरठा।
क्षमब सकल अपराध, प्रभुक अनुग्रहवान हम ।
विरहित मायाबाध, अपनैँ सेवा – निरत रहि ॥
बारंबार प्रणाम, कयल सकल मुनि मिलि ततय ।
कयल वचन विश्राम, रामक छथि देखथि सतत ॥
।इति।
हरिः हरः!!