मनन करय योग्य – आचरणभ्रष्टता सँ पतन

स्वाध्याय – अनुवादित लेख

आचरणभ्रष्टता सँ पतन

(मूल लेखकः अज्ञात स्रोतः कल्याण वर्ष ९२ संख्या ११ अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

ब्रह्मवैवर्तपुराण मे एकटा कथा छैक जे एक बेर देवराज इन्द्र निर्जन वन मे एक गोट पुष्पोद्यान (फुलबारी) मे गेल छलाह । ओहिठाम हुनका रम्भा नामक अप्सरा भेटलखिन्ह । तदनन्तर ओ दुनू गोटे जलविहार करय लगलाह । एहि बीच मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा वैकुण्ठ सँ कैलास जाइतकाल शिष्यमण्डली सहित ओतय आबि गेलाह । देवराज इन्द्र हुनका प्रणाम कयलनि । मुनि आशीर्वाद देलखिन । फेर भगवान् नारायणक देल पारिजात-पुष्प दयकय मुनि कहलखिन – ‘देवराज! भगवान् नारायण केँ निवेदित ई पुष्प सब विघ्न केँ नाश करयवला थिक । ई जेकर माथपर रहत, ओ सर्वत्र विजय प्राप्त करत आ देवता सब मे अग्रगण्य भ’ अग्रपूजाक अधिकारी होयत । महालक्ष्मी छाया जेकाँ सदिखन ओकरा संग रहती । ओ ज्ञान, तेज, बुद्धि, बल – सब बात मे सब देवता सँ श्रेष्ठ आर भगवान् श्रीहरिक तुल्य पराक्रमी होयत, मुदा जे पामर (पापी) अहंकारवश भगवान् श्रीहरिक निवेदित एहि पुष्प केँ माथपर धारण नहि करत, ओ अपन जातिवालाक संग श्रीभ्रष्ट भ’ जायत । एतेक कहिकय दुर्वासाजी शंकरालय दिश चलि गेलाह । इन्द्र ओहि पुष्प केँ अपन माथ पर धारण नहि कय ऐरावत हाथीक माथ पर राखि देलखिन्ह । एहि कारण इन्द्र श्रीभ्रष्ट भ’ गेलाह । इन्द्र केँ श्रीभ्रष्ट भेल देखिकय रम्भा हुनका छोड़िकय स्वर्गलोक चलि गेलीह । गजराज इन्द्र केँ नीचाँ खसाकय महान् अरण्य मे चलि गेलाह आर हथिनीक संग विहार करय लगलाह । ताहि समय श्रीहरि ओहि हाथीक माथ काटिकय बालक (गणेश) केर सिरपर लगा देलखिन्ह ।

ओम्हर रम्भाक संसर्ग सँ जिनकर बुद्धि अत्यन्त मन्द भ’ गेल रहनि, श्री सँ भ्रष्ट होयबाक कारण जिनका उपर दीनता छायल छलन्हि आर जिनकर आनन्द नष्ट भ’ गेल रहनि, से इन्द्र गजेन्द्र आ रम्भा सँ पराभूत (बिछड़िकय) भ’ अमरावती मे गेलाह । ओतय ओ देखलनि जे ओहि पुरी मे आनन्दक नाम-निशान धरि नहि छल । ओ पुरी दीनता सँ ग्रस्त, बन्धु सब सँ हीन आ शत्रुवर्ग सँ खचाखच भरि गेल छल । तखन दूतक मुंह सँ सबटा वृत्तान्त सुनिकय ओ गुरु बृहस्पतिक घर गेलाह आ फेर गुरु एवं देवगण लोकनिक संग ओ ब्रह्माक सभा मे पहुँचि गेलाह । ओतय जाय देवता लोकनि सहित इन्द्र आ बृहस्पति ब्रह्माजी केँ नमस्कार कयलनि आर भक्तिभाव सँ हुनकर स्तुति कयलनि । तत्पश्चात् बृहस्पति प्रजापति ब्रह्मा सँ सब वृत्तान्त कहि सुनेलनि । से सुनिकय ब्रह्माजी अपन नजरि झुकाकय – मूरी खसाकय कहनाय शुरू कयलनि ।

ब्रह्माजी बजलाह – देवेन्द्र ! अहाँ हमर प्रपौत्र छी आ श्रीसम्पन्न भेला सँ सदिखन प्रज्वलित होइत रहैत छी, मुदा राजन्! लक्ष्मीक समान सुन्दरी शचीक पति भेलहु उपरान्त अहाँ आचरणभ्रष्ट भ’ जाइत छी । जे आचरणभ्रष्ट होइत अछि, ओकरा लक्ष्मी अथवा यश केर प्राप्ति कतय सँ भ’ सकैत छैक ? ओ पापी तँ हमेशा सब सभा मे निन्दाक विषय बनल रहैत अछि । रम्भा अहाँ केँ हतबुद्धि (बुद्धिहीन) बना देने छलीह । यैह कारण अहाँ दुर्वासा द्वारा देल गेल श्रीहरिक नैवेद्य केँ गजराजक माथ पर राखि देलहुँ । जाहि कारण अहाँ केँ लक्ष्मी सँ रहित होबय पड़ि गेल, ओ रम्भा सेहो अहाँ केँ क्षणहि भरि मे त्यागिकय चलि गेल; कियैक तँ वेश्या चंचला होइत अछि । ओ धनवान सब टा केँ पसिन करैत अछि, निर्धन केँ नहि; मुदा हे वत्स ! जे बीति गेल, से त चलिये गेल; कियैक तँ बीतल बात फेर घुरिकय नहि अबैत अछि । आब अहाँ लक्ष्मीक प्राप्ति लेल भक्तिपूर्वक नारायण केर भजन करू ।

एतबा कहिकय ब्रह्माजी इन्द्र केँ जगत्स्रष्टा नारायणक स्तोत्र, कवच आर मंत्र देलनि । तखन इन्द्र देवता लोकनि ओ गुरु बृहस्पतिक संग पुष्कर मे जाकय अपन अभीप्सित मंत्रक जप करय लगलाह आर कवच ग्रहण कय केँ ओहि द्वारा श्रीहरिक स्तुति मे तत्पर भ’ गेलाह आर हुनकर कृपा सँ फेरो लक्ष्मी एवं राज्य केर प्राप्ति कयलनि ।

एहि तरहें आचरणभ्रष्टता सँ इन्द्रक सेहो पतन भ’ जाइत छन्हि, मनुष्यक त बाते की !

हरिः हरः!!