चिन्ता आ चिन्तनक एक पुष्प ‘हिन्दी’ मेः हाल-ए-मिथिला अब ऐसा है

लेख-विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

हाल-ए-मिथिला अब ऐसा है

यूँ कहें कि मिथिलाकी हाल अब ऐसा ही है । तो है कैसा ? है ऐसा कि हमारे मिथिला का ५ हिस्सों में से ४ हिस्सा हिन्दुस्तान में और १ हिस्सा नेपाल में पड़ने से बड़े हिस्से के लोग हिन्दी बोलने/समझने/लिखने में सहुलियत मानते हैं, छोटे हिस्से के लोग नेपाली बोलने/समझने/लिखने में सहुलियत मानते हैं ।

बड़े हिस्से के लोगों से मातृभाषा मैथिली को छोड़ने का कारण पूछेंगे तो वो कहेंगे कि औपचारिक शिक्षा हिन्दी में हुई और हिन्दी ही अधिकतर व्यवहार करने के कारण अपनी मातृभाषा लिखने/बोलने का दायरा छोटा पड़ गया । ठीक इसी प्रकार छोटे हिस्से के लोगों से पूछने पर वे भी यही कहेंगे कि औपचारिक शिक्षा और व्यवहारिक प्रचलन में नेपाली होने के कारण हमलोग नेपाली में सहज होते हैं ।

परन्तु अपनी भाषा को छोड़ने से क्या नुकसान उठाना पड़ता है इसका बोध है या नहीं ?

इसके जवाब में निरक्षर लोगों की तो छोड़िये, साक्षर व समझदार लोग भी तत्काल नुकसान के बारे में अधिकतर अन्जान और लापरवाह ही नजर आते हैं । कुछ लोग तो उल्टा तर्क भी देने लग जाते हैं । तर्क ये कि उनके बच्चों से अपनी मातृभाषा व्यवहार करनेपर बच्चों की आदत बिगड़ जायेगी । उन्हें अपने अन्य भाषाभाषी मित्रों या यूँ कहें कि सामान्य प्रचलन में बोली जानेवाली भाषाओं जैसे हिन्दी, अंग्रेजी (नेपाल में नेपाली या अंग्रेजी) के अतिरिक्त मातृभाषा में बोलने का अभ्यास उन्हें पिछड़ापन जैसा आत्मबोध देगी । अतः वे अपने बच्चों के साथ घर से ही सामान्य प्रचलन की भाषाओं में बोलचाल-व्यवहार करते हैं । अपनी मातृभाषा व्यवहार करके उन्हें और बच्चों से पीछे नहीं रखना चाहते हैं ।

कुल मिलाकर मिथिला की प्राचीनतम् भाषा मैथिली लोपोन्मुख भाषा की श्रेणी में पहुँच चुकी है, मूल चिन्ता करनेवाली ये बात है । मिथिला के लोगों की मौलिक संस्कार में तेजी से ह्रास आने लगा है । भाषा से दूर होते ही अपनी साहित्य से दूर होकर अन्य भाषाएं व तदनुसार लोकव्यवहार-लोकसंस्कार की ओर आकर्षण बढ़ता जा रहा है । अर्थात् पहचान ही मिटते जा रहा है । डर है कि कहीं कुछ वर्षों के बाद सदा-सनातन जीवित मिथिला केवल इतिहास-पुराण की बातें और मिथक मात्र बनकर न रह जाये ।

हम कुछ लोग हैं कि भाषिक चेतना के साथ सांस्कृतिक चेतना की ओर अपने लोगों को मोड़ना चाहते हैं । जबकि हमारे बीच कुछ ऐसे भी लोग हैं जो हमारी ही मैथिली भाषिक-साहित्यिक विरासत को अन्य भाषाओं में रूपान्तरित करते हुए बाहर पलायन करने में ही भलाई की बातें करते हैं । इसके दुष्प्रभाव से मैथिली बच्चे-बच्चियों में अपने ही मैथिली साथियों से आकर्षण घटकर हिन्दुस्तान व नेपाल के अन्य भाषियों के साथ सम्बन्ध बढ़ता जा रहा है ।

कुछ वर्षों के बाद मिथिला कई अन्य संस्कृति-सभ्यता के लोगों के लिये ‘ननिहाल’ भर रहेगा और इसकी मौलिकता लहूलुहान अबस्था में ही दिखेगी । मुझको अच्छा लगेगा जब आप पाठकों में से कोई सूझबूझ भरी दृष्टि से मेरे चिन्ता को दूर करने का कोई उपाय बता सकेंगे ।

मैं कुछ उदाहरण इतिहास के पन्नों से लेना चाहूँगा – नेपाल के काठमांडू में कई नेवारी मैथिल मिलते हैं । उनकी भाषा, साहित्य व संस्कार (समग्र सभ्यता) अब पूर्णतया नेवारी संस्कृति में बदल गई है । बस, वे लोग अपने मूल ‘मिथिला’ का केवल महिमामंडन भर करते दिखते हैं, वह भी कुछ पीढ़ियों के बाद विस्मृति का शिकार होना तय है ।

दूसरा, हिन्दुस्तान के पश्चिमी उत्तरप्रदेश (मथुरा-वृन्दावन-अलीगढ़-आगरा-आदि) क्षेत्रों में ‘ब्रजस्थ मैथिल’ मिलते हैं । उनलोगों का भाषा-भेष-भूषण सब कुछ बदल चुका है, बस अपने नाम के पीछे टाइटिल में ‘मैथिल’ जोड़कर वो जनक-जानकी के सन्तति और मिथिला जैसे सभ्यता से जुड़ाव महसूस करने का कोशिश भर करते दिखते हैं । कई बार मूल में लौटने के लिये उनका प्रयत्न और मूल मिथिलावासी के साथ सहकार्य प्रशंसनीय है । लेकिन एक बार जो भाषा से दूर हुआ वह दुबारा अपने मूल डीह पर कभी नहीं लौट सकता – यह सिद्धान्त शाश्वत सत्य सिद्ध हो रहा है ।

ऐसे कई क्षेत्र और भी हैं हिन्दुस्तान-नेपाल के साथ कुछ अन्य देशों में भी । आप प्रवासी बने । भाषा छोड़े । मूल से भटक गये । लौटना मुश्किल है ।

और, फिर से मेरी चिन्ता मूल डीह पर बस रहे लोगों के संस्कार में स्खलन – भाषा-भटकाव व अपनी मौलिक साहित्य (सरोकार पर चिन्तन) से दूर ‘विदेशिया नाच’ में मस्त होकर आखिर क्या होगा मिथिला का गन्तव्य ?

हरिः हरः!!