स्वाभिमान आ अभिमान मे कि अन्तर होइछ

विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

स्वाभिमानक अर्थ भेल अपन गरिमा – अपन स्वत्व (प्रतिष्ठा) प्रति साकांक्ष होयब । एहि मे दोसर हमरा मान दियए तेकर अपेक्षा नहि छैक । बल्कि अपन मान केर रक्षा हो से सतर्कता छैक ।

‘हमरा कियो मान दियए तेकर हमरा कोनो आवश्यकता नहि अछि, मुदा हमर कियो अपमान नहि करय ताहि प्रति जागरुकता केँ स्वाभिमान कहल जाइछ।’ – ऋषिवाणी

‘हम पैघ छी । हमरा सोझाँ मे कियो हमर सम्मान नहि कयलक । हमर भावना केँ चोट पहुँचेलक । हमर अपमान भेल । एहि तरहक भावना राखब अभिमान कहाइछ ।’ – ऋषिवाणी

अधिकतर हम सब स्वाभिमानक नाम पर अभिमानक प्रदर्शन करय लगैत छी । जखन कि स्वाभिमानी मनुष्य वास्तव मे अभिमानी भइये नहि सकैत अछि । स्वाभिमानी मनुष्य हमेशा अपन व्यवहार आ वर्ताव, क्रियाकलाप, गतिविधि, योगदान, समाजक वास्ते चिन्तन आदि मे एहेन कर्म करय पर जोर दैछ जाहि सँ कियो गोटे ओकर विरोध कइये नहि सकैछ ।

अभिमानी मनुष्य अपनहिं टा बात पर जोर दैत अछि । अपन बौद्धिकता मात्र केँ सर्वोपरि बुझि दोसर पर दबाव सृजना करैछ जे ओकरे जुइत टा चलौक । एहि तरहें अभिमानक प्रदर्शन करनिहार कतेको बेर सहियो भेलाक बाद समाज मे प्रतिष्ठा नहि पबैछ । ओकर बात केँ जानि-बुझिकय नकारि देल जाइत छैक ।

स्वाभिमानी मनुष्य सदिखन अपन विचार दोसरक सहमति-समर्थन लेल प्रस्ताव रूप मे मात्र राखल जाइछ । ओ सदैव यैह चाहैछ जे ओकर देल सुझाव पर आर लोक-समाज चिन्तन करय, जँ सही लागय त ओहि अनुरूप सब कियो मिलिजुलि कय काज करय ।

फेर, यैह स्वाभिमानी मनुष्यक बात केँ कियो काटिकय अपन जुइत मात्र चलबैछ त स्वाभिमानी मनुष्य चुपचाप कात भ’ जाइत अछि । ओकरा अपन बात काटल जेबाक कष्ट होइतो ओ चाहैत अछि जे लोकक हित मे ठानल काज रुकय नहि, ओहि अभिमानी लोकहि द्वारा संचालित होय आ पुनः बेर पर ओकर देल सुझाव जँ सही हेतय त फेर ओहि पदचिह्न पर लोक चलत ।

एखन समाजक गतिविधि मे ‘नाम’ कमेबाक खुलेआम होड़ चलल करैछ । एकरा अभिमान सँ जोड़िकय देखल जाय त एकटा विशेषण अभरैछ ‘दुराभिमानी’ केर, परन्तु सामाजिक व्यवहार मे आइ-काल्हि खुलेआम अभिमानक प्रदर्शन होबय लागल अछि । एहेन अबस्था मे स्वाभिमानी मनुष्य केँ चाही जे अपन कर्तव्यपथ पर अडिग रहिकय बढ़ैत रहय, स्वयं केँ असगर बनाकय राखि लियय बरु परञ्च अपन निष्ठा आ कर्मठता केँ किन्नहुँ नहि छोड़य ।

हरिः हरः!!