मधुश्रावणी मैथिल ललनाक समर्पण , संस्कृतिक एवं प्रेमक प्रतीक थिक

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लेख विचार
प्रेषित: कीर्ति नारायण झा
श्रोत: दहेज मुक्त मिथिला समूह
लेखनी के धार ,बृहस्पतिवार साप्ताहिक गतिविधि
विषय :- “ मधुश्रावणी केर व्रत पूजन वा पाबनिक महत्व

लाल झिंगुर, लाल सिन्दूर,
लाल अढ़हुल के फूल रे,
ताहू सँ जे लाल देखल,
गौरीक माथक सिन्दूर रे।
लाल दोहा कहलें भला,
से तS भेलहु बदरंग रे,
हरियर दोहा कहितें भला,
तब तँ लगितौ रंग रे। ‘मधुश्रावणी’ श्रावण मासक कृष्ण पक्ष चतुर्थी कँ प्रारंभ होइत अछि आ शुक्ल पक्ष तृतीया कऽ समाप्त होइत अछि। मोटा-मोटी एक पक्ष धरि चलय वाला ई पावनिक मनोहारी वातावरणक परिचायक थिक। एहि पावनिक आकर्षण ओ व्यवहार अनुपम अछि। ई पावनि नवविवाहिता अपन नैहर मे मनबैत छैथि, लेकिन पावनिक अवधिक कपड़ा-लत्ता, भोजन ओ पूजा सामग्रीक प्रयोग सासुरेक कएल जाइत अछि। एहि हेतु नवविवाहिताक सासुर सँ भारक रूप मे सब वस्तु-जात हुनक नैहर पठाओल जाइत छन्हि। एहि अवसर पर मिथिला मे भार ओ भरियाके दृश्य मनोहारी लगैत अछि।
ओना तऽ ई पावनि विधिवत श्रावण कृष्ण पंचमी सँ प्रारंभ होइत परन्तु एकर विधि चतुर्थीएँ सँ प्रारंभ भऽ जाइत छै। एहि दिन सँ नवविवाहिता लोकनि अरबा-अरबानि खाइत छैथि। साँझ मे सजि-धजिकऽ सखी-बहिनपाक संग विभिन्न फूलबाड़ी सँ फल, फूल पात, जकरा ‘जूही-जाही’ कहल जाइत अछि, लोढ़ि कए अपन डाली मे सजा कऽ गीत गबैत अपन घर अबैत छथि। ई क्रम पूजा समाप्तिक एक दिन पहिने धरि चलैत अछि। पंचमी दिन सँ सासुर सँ पठाओल साड़ी-लहठी, गहना आदि पहिर व्रती पूजाक तैयारी करैत छथि। एहि पावनि मे मुख्य रूप सँ गौड़ (गौरी) एवं नागक पूजा होइत अछि।
एहि पूजाक लेल सबसँ पहिने एकटा कोबर बनाओल जाइत अछि अथवा घर मे विवाह मे कोबर रहैत ओतय पूजाक हेतु कलश पर अहिवातक वाती प्रज्वलित कएल जाइछ। सासुर सँ पठाओल हरैदक गौड़ आ एकगोट नैहरक सुपारी, लग मे मैनाक पात पर धानक लावा राखि ओहि पर दूध चढ़ाओल जाइत अछि। बिसहारा जो गौड़ीक अतिरिक्त उज्जर फूलसँ चन्द्रमाक पूजा सेहो कएल जाइत अछि, मुदा गौरीक पूजा सिन्दुर आर लाल रंगक फूल सँ होइछ।
‘मधुश्रावणीक’ अरिपन मुख्यरूपें मैनाक दूटा पात पर लिखल जाइत अछि। जतय व्रती बैसिकऽ पूजा करैत छैथि आ एहिक दूनू कात जमीन पर सेहो अरिपन बनाओल जाइत अछि। जमीन परहक अरिपन के उपर मैनाक पात राखल जाइत अछि। बायाँ कातक पात पर सिन्दूर आ काजर सँ एक आंगुरक सहारा लय एक सौ एक सर्पिणीक चित्र बनाओल जाइत अछि, जे ‘एक सौ एकन्त बहिन’ कहाबैत छथि। एहि मे ‘कुसुमावती’ नामक नागिनक पूजाक प्रधानता अछि। दायाँ कातक पात पिठार सँ एक सौ एक सर्पक चित्र सेहो एक्के आुगंर सँ बनाओल जाइत अछि, जकरा ‘एक सौ एकन्त भाई’ कहल जाइत अछि, एहि मे ‘वौरस’ नामक नागक पूजा मुख्यरूपें होइत अछि।
श्रावण शुक्ल पक्ष तृतीया ताहि दिन मधुश्रावणी होइत अछि ओहि दिन वर पुनः नवविवाहिता के सिन्दूरदान करैत छथि, जकरा तेसर सिन्दूरदान कहल जाइत अछि। (एहिसं पहिने वियाहक राति पहिल बेर आ चार दिनक बाद चतुर्थीक भोर मे दोसर बेर सिन्दूरदान होइत छेक) तें ई तेसर सिन्दूरदानक पर्व मिथिलांचल नारी संस्कृतिक परिचालक थिक। पतिक दीर्घजीवनक मंगलकामना करवाक सब सँ विशिष्‍ट पर्व मधुश्रावणी मैथिल ललनाक समर्पण एवं सहिष्‍णुता क कामना तथा निष्‍ठा एवं संस्कृतिक परंपराक प्रति प्रेमक प्रतीक थिक। जय मिथिला आ जय मैथिली 🙏 कीर्ति नारायण झा