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गीताक पाँचम अध्याय बुझबाक प्रयास

28 भ्यूज

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

अध्याय ५ – कर्म संन्यास योग

सांख्य-योग और कर्म-योग के भेद

(ई अध्याय बहुत भारी लगैत अछि, तथापि आइ सिर्फ पाठ करी आ कोनो एक स्रोत सँ हिन्दी अनुवाद प्राप्त केँ अपन मातृभाषा मैथिली मे बुझबाक यत्न करी।)

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ॥ (१)

अर्जुन कहैत छथि – हे कृष्ण! कखनहुँ अहाँ सन्यास-माध्यम (सर्वस्वक न्यास = ज्ञान योग) सँ कर्म करबाक आ कखनहुँ निष्काम माध्यम सँ कर्म करबाक (निष्काम कर्म-योग) केर प्रशंसा करैत छी, एहि दुनू मे सँ एकटा जे अपने द्वारा निश्चित कयल गेल हो आ जे परम-कल्याणकारी हो से हमरा लेल कहू।

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥२॥

श्री भगवान कहैत छथि – सन्यास माध्यम सँ कयल जायवला कर्म (सांख्य-योग) आर निष्काम माध्यम सँ कयल जायवला कर्म (निष्काम कर्म-योग), ई दुनू परमश्रेय दियाबयवला अछि मुदा सांख्य-योगक अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ अछि।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ (३)

हे महाबाहु! जे मनुष्य नहि तँ केकरहु सँ घृणा करैत अछि, आ न केकरहु इच्छा करैत अछि, ओ सदिखन संन्यासी टा बुझय योग्य अछि कियैक तँ एहेन मनुष्य राग-द्वेष आदि सबटा द्वन्द्व केँ त्यागिकय सुखपूर्वक संसार-बंधन सँ मुक्त भ’ जाइत अछि।

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥ (४)

अल्प-ज्ञानी मनुष्य टा “सांख्य-योग” आर “निष्काम कर्म-योग” केँ अलग-अलग बुझैत अछि, नहि कि पूर्ण विद्वान मनुष्य। कियैक तँ दुनू मे सँ एकहु टा मे नीक जेकाँ स्थित पुरुष दुनूक फल-रूप परम-सिद्धि केँ प्राप्त होइत अछि।

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ (५)

जे ज्ञान-योगी लोकनि द्वारा प्राप्त कयल जाइत अछि, वैह निष्काम कर्म-योगी सब केँ सेहो प्राप्त होइत छन्हि। ताहि लेल जे मनुष्य सांख्य-योग आर निष्काम कर्म-योग दुनू केँ फलक दृष्टि सँ एक देखैत अछि, वैह वास्तविक सत्य केँ देखि पबैत अछि।

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (६)

हे महाबाहु! निष्काम कर्म-योग (भक्ति-योग) केर आचरण कएने बिना (संन्यास) सर्वस्व केर त्याग दुःखक कारण होएत छैक आर भगवानक कोनो एकटा स्वरूप केँ मन मे धारण करयवला “निष्काम कर्म-योगी” परब्रह्म परमात्मा केँ शीघ्र प्राप्त भ’ जाइत अछि।

कर्म-योग मे स्थित जीवात्माक लक्षण

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ (७)

“कर्म-योगी” इन्द्रिय सब पर विजय प्राप्त करयवला होइत अछि आर सब प्राणीक आत्माक मूल-स्रोत परमात्मा मे निष्काम भाव सँ मन केँ स्थित कयकेँ कर्म करैतो ओ कहियो कर्म सँ लिप्त नहि होइत अछि।

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ (८)

“कर्म-योगी” परमतत्व-परमात्माक अनुभूति कयकेँ दिव्य चेतना मे स्थित भ’ कय देखैतो, सुनितो, छुबितो, सुँघितो, खाइतो, चलितो, सुतितो, साँस लैतो एहि तरहें सोचैत अछि जे हम किछुओ नहि करैत छी।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ (९)

“कर्म-योगी” बजितो, त्यागितो, ग्रहण करितो आ आँखि खोलितो बन्द करितो, यैह टा सोचैत अछि जे सबटा इन्द्रिय अपन-अपन विषय मे प्रवृत्त भ’ रहल अछि, एहेन धारणावला भेल करैत अछि।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ (१०)

“कर्म-योगी” सब कर्मफल केँ परमात्मा केँ समर्पित कयकेँ निष्काम भाव सँ कर्म करैत अछि, त ओकरा पापकर्म कखनहुँ स्पर्श नहि कय पबैत छैक, जाहि तरहें कमल केर पात जल केँ स्पर्श नहि कय पबैत अछि।

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)

“कर्म-योगी” निष्काम भाव सँ शरीर, मन, बुद्धि आ इन्द्रिय द्वारा केवल आत्माक शुद्धिक लेल मात्र कर्म करैत अछि।

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)

“कर्म-योगी” सब कर्मक फल केँ त्यागि कय परम-शान्ति केँ प्राप्त होइत अछि आर जे योग मे स्थित नहि ओ सब कर्मफल केँ भोगबाक इच्छाक कारण कर्म-फल मे आसक्त भ’ कय बन्हा जाइत अछि।

सांख्य-योग मे स्थित जीवात्माक लक्षण

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ (१३)

शरीर मे स्थित जीवात्मा मन सँ समस्त कर्म केर परित्याग कय केँ, ओ नहि तँ किछु करैत अछि आ न करबाबैत अछि। तखन ओ नौ द्वार (फाटक) वला नगर (स्थूल-शरीर) मे आनंद-पूर्वक आत्म-स्वरूप मे स्थित रहैत अछि।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (१४)

शरीर मे स्थित जीवात्मा देह केँ कर्ता नहि होयबाक कारण एहि लोक मे ओकरा द्वारा नहि तँ कर्म उत्पन्न होइत छैक आ नहिये कर्म-फल सँ कोनो सम्बन्ध रहैत छैक बल्कि ई सब प्रकृति केर गुण सब द्वारा मात्र कयल जाइत छैक।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ (१५)

शरीर मे स्थित परमात्मा नहि तँ केकरो पापकर्म केँ आ न केकरो पुण्य-कर्म केँ ग्रहण करैत छथि मुदा जीवात्मा मोह सँ ग्रसित हेबाक कारण परमात्मा जीव केर वास्तविक ज्ञान केँ आच्छादित कयने रहैत छथि।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ (१६)

मुदा जखन मनुष्यक अज्ञान तत्वज्ञान (परमात्माक ज्ञान) द्वारा नष्ट भ’ जाइत छैक, तखन ओकर ज्ञानक दिव्य प्रकाश सँ ओहि प्रकारें परमतत्व-परमात्मा प्रकट भ’ जाइत छथि जाहि प्रकारें सूर्यक प्रकाश सँ संसारक सब वस्तु प्रकट भ’ जाइत अछि।

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ (१७)

जखन मनुष्य बुद्धि आर मन सँ परमात्माक शरण-ग्रहण कय केँ परमात्मा टाक स्वरूप मे पूर्ण श्रद्धा-भाव सँ स्थित होइत अछि तखन ओ मनुष्य तत्वज्ञान द्वारा सब पाप सँ शुद्ध भ’ कय पुनर्जन्म केँ प्राप्त नहि भ’ मुक्ति केँ प्राप्त होइत अछि।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ (१८)

तत्वज्ञानी मनुष्य विद्वान् ब्राह्मण आर विनम्र साधु केँ तथा गाय, हाथी, कुत्ता और नर-भक्षी केँ एक समान दृष्टि सँ देखयवला होइत अछि।

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ (१९)

तत्वज्ञानी मनुष्यक मन सम-भाव मे स्थित रहैत छैक, ओकरा द्वारा जन्म-मृत्यु केर बन्धन रूपी संसार जीति लेल जाइत छैक, कियैक तँ ओ ब्रह्म केर समान निर्दोष होइत अछि आर सदैव परमात्मा टा मे स्थित रहैत अछि।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ (२०)

तत्वज्ञानी मनुष्य नहि तँ कहियो कोनो प्रिय चीज पाबि हर्षित होइछ आ न अप्रिय वस्तु पाबि विचलिते होइछ, एहेन स्थिर बुद्धि, मोह-रहित, ब्रह्म केँ जानयवला सदा परमात्मा टा मे स्थित रहैत अछि।

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ (२१)

तत्वज्ञानी मनुष्य बाहरी इन्द्रिय केर सुख केँ नहि भोगैत अछि, बल्कि सदैव अपन आत्मा टा मे रमण कयकेँ सुखक अनुभव करैत अछि, एहेन मनुष्य निरन्तर परब्रह्म परमात्मा मे स्थित भ’ कय असीम आनन्द केँ भोगैत अछि।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ (२२)

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रिय आर इन्द्रिय विषय सभक स्पर्श सँ उत्पन्न, कहियो तृप्त नहि होयवला ई भोग, शुरु मे सुख दयवला होइछ, आर अन्त मे निश्चित रूप सँ दुःख-योनिक कारण होइत अछि, यैह कारण तत्वज्ञानी कहियो इन्द्रिय सुख नहि भोगैत छथि।

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ (२३)

जे मनुष्य शरीरक अन्त होय सँ पहिनहिं काम आ क्रोध सँ उत्पन्न होयवला वेग केँ सहन करय मे समर्थ भ’ जाइत अछि, ओ मनुष्य योगी थिक आर वैह एहि संसार मे सुखी रहि सकैत अछि।

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ (२४)

जे मनुष्य अपन आत्मा टा मे सुख चाहयवला होइत अछि, आर अपनहि मन केँ अपनहि आत्मा मे स्थिर राखयवला होइत अछि, जे आत्मा टा मे ज्ञान प्राप्त करयवला होइत अछि, वैह मनुष्य योगी थिक आर वैह ब्रह्म सँ एक भ’ कय परब्रह्म परमात्मा केँ प्राप्त होइत अछि।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ (२५)

जेकर सब पाप आर सब तरहक दुविधा ब्रह्म केर स्पर्श कयकेँ मेटा गेल छैक, जे समस्त प्राणीक कल्याण मे लागल रहैत अछि, वैह ब्रह्म-ज्ञानी मनुष्य मन केँ आत्मा मे स्थित कय केँ परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा केँ प्राप्त कय केँ मुक्त भ’ जाइत अछि।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ (२६)

सब सांसारिक इच्छा आ क्रोध सँ पूर्ण-रूप सँ मुक्त, स्वरूपसिद्ध, आत्मज्ञानी, आत्मसंयमी योगी केँ सब दिश सँ प्राप्त परम-शान्ति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा टा होइत छथि।

भक्ति-युक्त ध्यान-योग केर निरूपण

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ (२७)
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ (२८)

सब इन्द्रिय-विषय केर चिन्तन बाहरे त्यागिकय आर आँखिक दृष्टि केँ भौं केर मध्य मे केन्द्रित कय केँ प्राण-वायु और अपान-वायुक गति नासिकाक अन्दर आर बाहर सम कय केँ मन सहित इन्द्रिय आर बुद्धि केँ वश मे कय केँ मोक्ष लेल तत्पर इच्छा, भय आर क्रोध सँ रहित भेल योगी सदैव मुक्त टा रहैत अछि।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (२९)

एहेन मुक्त पुरूष हमरा सब यज्ञ आर तपस्या केँ भोगयवला, सब लोक आर देवता सभक परमेश्वर तथा सम्पूर्ण जीव सब पर उपकार करयवला परम-दयालु एवं हितैषी बुझिकय परम-शान्ति केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसांख्ययोगो नाम पंचमोऽध्यायः॥

एहि तरहें उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीताक श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद मे कर्मसांख्य-योग नामक पाँचम अध्याय संपूर्ण भेल॥

॥हरि: ॐ तत् सत्॥

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