विचार-विमर्श
– प्रवीण नारायण चौधरी
बलिप्रथा वैध या अवैध?
प्रिय संजीव सिन्हाजी ( संजीव मिथिलाकिङ्कर ) सहित अपने समस्त सज्जनवृन्द जे विगत किछु दिन सँ धर्म-अधर्म बीच ‘बलिप्रथा’ पर विमर्श कय रहल छी, समय हो त किछु बात करी? अर्थात् धर्म-अधर्म केँ नीक सँ व्याख्या करबाक योग्यता रखैत होइ हमरा लोकनि तखन कर्तव्य-अकर्तव्य तहत बलिप्रथा पर चर्चा करी। मात्र उड़ती-पुड़ती ज्ञान सँ अपन मत राखि एक-दोसर प्रति विद्वेष भावनाक प्रसार सँ नीक जे स्वस्थ विमर्श करय जाय।
बहुत दिन सँ देखि रहल छी जे अनावश्यक आ अयोग्य लोकक बीच घमर्थन भ’ रहल अछि। मित्र संजीवजीक सेहो किछु विचार अबैत देखि हमरा इच्छा भेल जे किछु बात करी! अपने सब जँ समय उपलब्ध करबैत छी त बात करब। धन्यवाद!!
धर्मक व्याख्या जीवन जिबय के तरीका सँ कयल जाइछ। ई करबाक चाही, ई नहि करबाक चाही – एहि तरहें धर्म आ अधर्मक साधारण व्याख्या हम-अहाँ जनिते छी।
बलि प्रथा मे एकटा भक्षण योग्य जीव केर बलिप्रदान देवी-देवता केँ करैछ गोटेक धर्मक अनुगामी लोक।
भक्षण योग्य जीव केर हत्या वधशाला मे कय केँ बाकायदा खुल्ला बाजार मे सेहो माँस बिक्री-वितरण कयल जाइछ।
धर्म आ अधर्म बीच बड़ मिहिन मर्मक सुता एतेक अन्तरो जँ फरिछेबाक बुद्धि विकसित भेल अछि हमरा सब मे तँ उपरोक्त दुइ वाक्यक मीमांसा (विश्लेषण) मे अहाँ स्वतः बुझि सकैत छी जे भक्षण योग्य जीव एना मरय वा ओना मरय, ओकरा मरहे पड़तैक। प्रकृति स्वयं एहेन नियम बनौने अछि जाहि मे कतेको प्रकारक जीव अछि आ वेदक सूत्र छैक जीव जीवस्य भोजनम्। तेँ, एहि पर अपन-अपन मत आ विचार अनुसार लोक जीवन जिबय। प्रथाक औचित्य पर सवाल हो त धर्मसभा मे प्रवेश कय केँ सिद्ध करय, संविधान बनबय आ प्रतिबन्धित करय – हर तरहें वध बन्द हो।
हमरा बुझने प्रकृति निर्मित नियम अन्तर्गत मनुष्य लेल माँसाहार सेहो पोषण लेल उपयुक्त छैक। मनुष्य द्वारा देवी-देवताक पूजन मे वैह हविष्य सामग्री अर्पण कयल जेबाक प्राकृतिक सिद्धान्त छैक।
हँ, जँ मनुष्य लेल माँसाहार समग्रता मे अनुचित छैक तखन निश्चित ई प्रथा पूर्णतया गलत आ अबैध होइतैक। लेकिन एतय तँ प्रकृति निर्मित सिद्धान्त कहि रहल छैक जे जीवे जीव केर भोजन थिक। कहू फेर? जँ बलिप्रथा मे छागर अथवा अन्य निर्दोष जीव केर हत्या गलत लागल त फेर माँसाहार उचित छैक की?
संजीव मिथिलाकिङ्कर जी, एक विवेकशील मानव रूप मे कनि विचार करू न! हमरा त एना लगैत अछि –
यदि छागर वा अन्य जीव मनुष्य लेल भक्षण योग्य मानैत छी तखन बलिप्रथा त ओकरा धर्माचरण मे परिणति दयकय आर मानवहित केर कार्य कयलक। या नहि?
बस, तर्कपूर्ण चर्चा लेल आइ ई थ्रेड ओपन कयल, सेहो खास कय केँ अहाँ केँ जखन देखलहुँ एहि मे बेर-बेर अपन मत राखैत त हमरा बुझायल जे एक बेर अहाँ जेहेन सुविज्ञ मैथिल सँ निश्चित एहि पर चर्चा राखी। एकरा अदरवाइज नहि लेबाक अछि। बस अपन मत रखियौक पूर्णता मे।
हम बलिप्रथा केँ ईश्वरक मांग नहि बुझैत छी, ई हमर अपन कमजोरी केँ दूर करबाक लेल एकटा सहारा जेकाँ होइत अछि, हम स्वयं कबूलैत छी जे हे ईश्वर हमर अपन फल्लाँ इच्छा जँ पूरा होयत त हम ई हविष्य (पशु बलिदान) अर्पित करब। आर एहि तरहें ई हमर आस्थाक विषय बनि जाइछ। एहि मे ईश्वर के सहभागिता कतेक छन्हि से मात्र हमर मन-आत्मा अनुभव करैत अछि।
– एकर मीमांसा कहैत अछि जे परम्परा सँ हम सब ईश्वरक अस्तित्व केँ मानैत आबि रहल छी। आत्मा सँ परमात्माक अनुभव करैत छी। आर एहि तरहें आत्मीय सुख लेल पशु बलिदान करैत छी, से ओहने पशु जे सरेआम काटिकय लोक खाइते अछि। तखन हम जँ अपन परमात्मा-आत्माक सुख लेल बाकायदा मानल गेल ईश्वर समक्ष अर्पित कय केँ प्रसाद रूप मे ग्रहण करब त निश्चिते बेसी कल्याणकारी होयत। अभक्ष्य त वैह माँस जे सरेआम कियो काटि देलक से भेल, भक्ष्य त ई माँस भेल न?
हरिः हरः!!