स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
भजन महिमा
१. श्री रघुनाथजीक भक्ति संजीवनी जड़ी छी। श्रद्धा सँ पूर्ण बुद्धि मात्र अनुपान (दवाइ संग लेल जायवला मधु आदि) छी। एहि तरहक संयोग हो तँ ओ रोग (मानस रोग, जेकर वर्णन पूर्व अध्याय मे कयल गेल अछि) भले नष्ट भ’ जाय, नहि तँ करोड़ों प्रयत्नक बादो नहि खत्म होइत अछि। हे गोसाईं! मन केँ निरोग भेल तखन जनबाक चाही, जखन हृदय मे वैराग्यक बल बढ़ि जाय, उत्तम बुद्धिरूपी भूख नित्य नव बढ़ैत रहय आ विषय सभक आशारूपी दुर्बलता मेटा जाय।
२. एहि प्रकारें सब रोग सँ छूटिकय जखन मनुष्य निर्मल ज्ञानरूपी जल मे स्नान कय लैत अछि, तखन ओकर हृदय मे राम भक्ति प्रस्फुटित भ’ जाइत छैक। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि आ नारद आदि ब्रह्मविचार मे परम निपुण जे मुनि सब छथि, हे पक्षीराज! हुनका सभक यैह मत छन्हि जे श्री रामजीक चरणकमल मे प्रेम करबाक चाही। श्रुति, पुराण आ सबटा ग्रन्थ कहैत अछि जे श्री रघुनाथजीक भक्ति बिना सुख नहि अछि।
३. कछुआक पीठ पर भले केश उगि जाय, बाँझक पुत्र भले केकरो मारि दियए, आकाश मे भले अनेकों प्रकारक फूल फुला जाय, मुदा श्री हरि सँ विमुख भ’ कय जीव सुख नहि प्राप्त कय सकैछ। मृगतृष्णाक जल केँ पिबय सँ भले प्यास मिझा जाय, खर्हियाक माथ पर भले सींग निकलि जाय, अन्हार भले सूर्य केँ नाश कय दियए, मुदा श्री राम सँ विमुख भ’ कय जीव सुख नहि पाबि सकैत अछि। बर्फ सँ भले अग्नि प्रकट भ’ जाय, ई सारा अनहोनी बात भले भ’ जाय, मुदा श्री राम सँ विमुख भ’ कय कियो सुख नहि पाबि सकैत अछि। जल केँ मथला सँ भले घी निकलि जाय आ बाउल केँ पेरला सँ भले तेल निकलि आबय, मुदा श्री हरिक भजन बिना संसाररूपी समुद्र सँ नहि तरल जा सकैत अछि, ई सिद्धान्त अटल अछि। प्रभु मच्छर केँ ब्रह्मा बना सकैत छथि आ ब्रह्मा केँ मच्छर सँ सेहो तुच्छ बना सकैत छथि। एना विचारिकय चतुर पुरुष सब सन्देह त्यागिकय श्री रामजी टा केँ भजैत अछि।
४. श्लोक:
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥१२२ग॥
हम अहाँ सँ खुब बढ़ियाँ सँ सुनिश्चित कयल गेल सिद्धान्त कहैत छी – हमर वचन अन्यथा (मिथ्या) नहि अछि। जे मनुष्य श्री हरिक भजन करैत अछि, ओ अत्यन्त दुस्तर संसार सागर केँ सहजहि पार कय जाइत अछि।
५. हे नाथ! हम श्री हरिक अनुपम चरित्र अपन बुद्धि अनुसार कहलहुँ, कतहु विस्तार सँ आर कतहु संक्षेप मे कहलहुँ। हे सर्पोंक शत्रु गरुड़जी! श्रुति केर यैह सिद्धान्त छैक जे सब काज बिसरिकय श्री रामजीक भजन करबाक चाही। प्रभु श्री रघुनाथजी केँ छोड़िकय आर केकर सेवन (भजन) कयल जाय, जिनकर हमरा सनक मूर्खहु पर ममत्व (स्नेह) छन्हि। हे नाथ! अपने विज्ञान रूप छी, अहाँ केँ मोह नहि अछि। अहाँ तँ हमरा पर बड पैघ कृपा कयलहुँ अछि।
हरिः हरः!!