रामचरितमानस मोतीः श्री राम-वशिष्ठ संवाद, श्री रामजीक भाइ सभक संग आमगाछी भ्रमण

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-वशिष्ठ संवाद, श्री रामजीक भाइ सभक संग आमगाछी भ्रमण

१. एक बेर मुनि वशिष्ठजी ओहिठाम अयलाह जेतय सुन्दर सुखक धाम श्री रामजी रहथि। श्री रघुनाथजी हुनकर बहुते आदर-सत्कार कयलखिन आ हुनकर चरण धोकय चरणामृत सेहो लेलनि। ताहिपर मुनि हाथ जोड़िकय कहय लगलखिन –

“हे कृपासागर श्री रामजी! हमर किछु विनती सुनू। अहाँक आचरण (मनुष्योचित चरित्र सब) देखि-देखि हमर हृदय मे अपार मोह (भ्रम) होइत अछि।

हे भगवन्‌! अपनेक महिमाक सीमा नहि अछि, से वेदो नहि जनैत अछि। तखन हम कोन तरहें कहि सकैत छी! पुरोहितीक कर्म (पेशा) बहुते नीचाँ अछि। वेद, पुराण आ स्मृति सब एकर निन्दा करैत अछि।

जखन हम से काज (सूर्यवंशक पुरोहिती) नहि लैत रही, तखन ब्रह्माजी हमरा कहने रहथि – हे पुत्र! एहि सँ तोरा आगू चलिकय बहुते लाभ हेतौक। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कय रघुकुल केर भूषण राजा हेताह।

तहिया हम हृदय मे विचार कयलहुँ जे जाहि वास्ते योग, यज्ञ, व्रत आ दान सब कयल जाइत अछि से हम एहि पुरोहिती कर्म सँ पाबि जायब, तखन एकरा समान दोसर कोनो धर्मे नहि अछि।

जप, तप, नियम, योग, अपन-अपन (वर्णाश्रमक) धर्म, श्रुति सँ उत्पन्न (वेदविहित) बहुते रास शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इंद्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जेतय धरि वेद आ सन्तजन लोकनि धर्म कहलनि अछि (ओ सब करबाक) तथा हे प्रभो! अनेक तंत्र, वेद और पुराण सब केँ पढ़बाक आ सुनबाक सर्वोत्तम फल एक्के टा छैक आ सब साधनक सेहो यैह टा सुन्दर फल छैक जे अपनेक चरणकमल मे सदा-सर्वदा प्रेम हो।

मैल सँ धोला सँ कतहु मैल छुटैत छैक? जल केँ मथला सँ कतहु कि घी पाबि सकैत अछि? तहिना हे रघुनाथजी! प्रेमभक्ति रूपी (निर्मल) जल केर बिना अंतःकरणक मैल कहियो नहि जाइछ।

वैह सर्वज्ञ अछि, वैह तत्त्वज्ञ आ पंडित अछि, वैह सब गुणक घर आ अखंड विज्ञानवान् अछि, वैह चतुर आ सब सुलक्षण सब सँ युक्त अछि, जेकर अपनेक चरणकमल मे प्रेम छैक।

हे नाथ! हे श्री रामजी! हम अपने सँ एकटा वर मँगैत छी, कृपा कयकेँ से वरदान दिअ। प्रभु अहाँक चरणकमल मे हमर प्रेम जन्म-जन्मांतर मे कहियो नहि घटय।”

एना कहिकय मुनि वशिष्ठजी घर अयलाह। हुनकर सबटा बात कृपासागर श्री रामजीक मन केँ बड नीक लगलनि।

२. तदनन्तर सेवक सब केँ सुख दयवला श्री रामजी भाइ सभक संग हनुमान्‌जी केँ संग करैत नगरक बाहर आबि बहुते रास हाथी, रथ आ घोड़ा सब मंगबौलनि। सबटा केँ अपन कृपाक दृष्टि सँ देखि प्रभु सभक खुबे प्रशंसा कयलनि। फेर ओतय उपस्थित लोक सब केँ जेकरा जाहि वस्तुक चाहत भेलैक तेकरा‍ सबकेँ उचित बुझैत दान दय देलनि।

३. संसारक समस्त श्रम केँ हरयवला प्रभु हाथी, घोड़ा आदि बाँटय मे श्रम (थकावट) केर अनुभव कयलनि आर श्रम मेटेबाक लेल ओ ओहिठाम गेलाह जेतय शीतल आमगाछी छल। ओतय भरतजी अपन वस्त्र बिछा देलखिन। प्रभु ओहिपर बैसि रहलाह आ सब भाइ हुनकर सेवा करय लगलखिन्ह। ताहि समय पवनपुत्र हनुमान्‌जी पंखा होंकय लगलाह। हुनकर शरीर पुलकित भ’ गेलनि आ नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल भरि अयलनि।

४. शिवजी कहय लगलाह – हे गिरिजे! हनुमान्‌जीक समान नहि त कियो बड़भागी अछि आ कियो श्री रामजीक चरणक प्रेमिये अछि, जेकर प्रेम आ सेवा केँ स्वयं प्रभु अपन श्रीमुख सँ बेर-बेर बड़ाई कयलनि अछि।

हरिः हरः!!