रामचरितमानस मोतीः श्री रामजी द्वारा प्रजा केँ उपदेश (श्री रामगीता), पुरवासी लोकनिक कृतज्ञता

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री रामजी द्वारा प्रजा केँ उपदेश (श्री रामगीता), पुरवासी लोकनिक कृतज्ञता

एक बेर श्री रघुनाथजीक बोलाहट पर गुरु वशिष्ठजी, ब्राह्मण आर अन्य समस्त नगर निवासी लोकनिक एक विशेष सभा मे अयलाह। गुरुजी, मुनि, ब्राह्मण आ आन सब सज्जन लोकनि यथायोग्य आसन ग्रहण कय लेलनि तखन भक्त लोकनिक जन्म-मरणक भय मेटेनिहार श्री रामजी अत्यन्त पुनीत वचन बजलाह –

१. हे समस्त नगर निवासी लोकनि! हमर बात सुनू। ई बात हम हृदय मे कोनो ममता आनि नहि कहि रहल छी, आ न अनीतिक बात कहैत छी, नहिये एहि मे कोनो प्रभुते अछि, तेँ लाज आ डर छोड़ि, ध्यान दैत हमर बात सुनू। आर सुनला सँ यदि अहाँ सब केँ नीक लागय त ओहि अनुसार चलय जाउ!

२. वैह हमर सेवक अछि आर वैह प्रियतम अछि जे हमर आज्ञा मानय। हे भाइ! जँ हम कोनो अनीति केर बात कही त डर-भर छोड़ि बेहिचक हमरा रोकि देब।

३. बड़ा भाग्य सँ ई मनुष्य शरीर भेटल अछि। सब ग्रन्थ यैह कहलक अछि जे ई शरीर देवतो सब केँ दुर्लभ छन्हि, बहुत कठिनता सँ भेटैत छन्हि। ई साधन केर धाम आ मोक्षक दरबाजा थिक। ई पाबियोकय जे परलोक नहि बना लेलक, ओ परलोक मे दुःख पबैत अछि, माथा पीटि-पीटिकय पछताइत अछि तथा अपन दोष नहि बुझि काल पर, कर्म पर आर ईश्वर पर मिथ्या दोष लगबैत अछि।

४. हे भाई! ई शरीर प्राप्त करबाक फल विषयभोग नहि थिक। एहि जगत्‌ मे भोगक त बाते कि, स्वर्गहु केर भोग बहुत कम अछि आ अन्त मे दुःख दयवला अछि। तेँ जे लोक मनुष्य शरीर पाबिकय विषय सब मे मोन लगा दैत अछि, ओ मूर्ख अमृतक बदला विष ग्रहण करैत अछि। जे पारसमणि केँ छोड़िकय बदला मे घोंघी (डोकी) लय लैत अछि, ओकरा कदापि कियो बुद्धिमान नहि कहैत छैक।

५. ई अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चारि खाना आ चौरासी लाख योनि मे चक्कर लगबैत रहैत अछि। मायाक प्रेरणा सँ काल, कर्म, स्वभाव और गुण सँ घेरायल (एहि सभक वश मे रहि) ई हमेशा भटकिते रहैत अछि।

६. बिना कारण स्नेह करनिहार ईश्वर कहियो विरले दया कयकेँ केकरो मनुष्यक शरीर दैत छथिन। से मनुष्यक शरीर भवसागर सँ तारबाक लेल बेड़ा (जहाज) थिक। हमर कृपे अनुकूल वायु अछि। सद्गुरु एहि मजबूत जहाज केर कर्णधार (खेबनिहार) छथि। एहि प्रकारे दुर्लभ (कठिनता सँ भेटयवला) साधन सुलभ भ’ कय भगवत्कृपा सँ सहजहि ओकरा प्राप्त भ’ जाइत छैक। जे मनुष्य एहेन साधन पाबियोकय भवसागर सँ नहि तरि पबैत अछि, से कृतघ्न आ मन्द बुद्धि अछि आ आत्महत्या करयवला गति केँ प्राप्त होइत अछि।

७. जँ परलोक मे आर एहि लोक मे – दुनू ठाम सुख चाहैत छी तँ हमर वचन सुनिकय ओकरा हृदय मे दृढ़ता सँ पकड़िकय राखू। हे भाई! ई हमर भक्तिक मार्ग सुलभ आ सुखदायक अछि, पुराण व वेद यैह गेलक अछि। ज्ञान अगम (दुर्गम) अछि आर ओकर प्राप्ति मे अनेकों विघ्न सब छैक। ओकर साधन कठिन छैक आ ओहि मे मोनक वास्ते कोनो आधारो नहि छैक। बहुत कष्ट कयला पर कियो ज्ञान पाबि जाइत अछि, तैयो ओ भक्तिरहित भेला सँ हमर प्रिय नहि होइत अछि।

८. भक्ति स्वतंत्र छैक आर सब सुखक खान अछि, मुदा सत्संग (सन्त सभक संग) बिना कोनो प्राणी ई नहि पाबि सकैत अछि आ पुण्य समूह बिना सन्त नहि भेटैत अछि। सत्संगति टा संसृति (जन्म-मरण केर चक्र) केँ अन्त करैत अछि।

९. जगत्‌ मे पुण्य एक्के टा छैक, ओकरा समान दोसर किछु नहि। से छैक – मन, कर्म आ वचन सँ ब्राह्मणक चरण केर पूजा करब। जे कपट त्यागिकय ब्राह्मणक सेवा करैत अछि, ओकरा उपर मुनि आ देवता प्रसन्न रहैत छथिन। आरो एकटा गुप्त मत अछि, से हम सब सँ हाथ जोड़िकय कहैत छी जे शंकरजीक भजन बिना मनुष्य हमर भक्ति नहि पबैत अछि।

१०. कहू त! भक्ति मार्ग मे कोन-बेसी परिश्रम छैक? एहि मे न योग केर जरूरत छैक, न यज्ञ, जप, तप आ उपवासे केर! एहि लेल एतबा जरूरी छैक जे सरल स्वभाव हो, मन मे कुटिलता नहि हो आ जे किछु भेटय ताहि मे हमेशा सन्तोष राखू।

११. हमर दास कहाकय जँ कियो आर (दोसर) सँ आशा करैत अछि, त अहीं सब कहू, ओकर केहेन विश्वास छैक? (अर्थात् ओकर हमरा उपर आस्था बहुत कम छैक।) बहुते बेसी बात कि कहू! हे भाइ! हम त एहि आचरण केर वश मे छी। न केकरो सँ वैर करू, न लड़ाई-झगड़ा करू, न आशा राखू, नहिये कोनो डरे करू। ओकरा लेल सब दिशा सदैव सुखमय रहत। जे काजे आरम्भ (फल केर इच्छा सँ कर्म) नहि करत, जेकरा अपन कोनो घरे नहि छैक (जेकरा कोनो ममते नहि छैक), जे मानहीन, पापहीन आ क्रोधहीन अछि, जे भक्ति करय मे निपुण आ विज्ञानवान् अछि, सन्तजन केर संसर्ग (सत्संग) सँ जेकरा हमेशा प्रेमे टा छैक, जेकर मोन मे सब विषय – एतय तक कि स्वर्ग आ मुक्ति तक भक्तिक सोझाँ तृणक समान छैक, जे भक्तिक पक्ष मे हठ करैत अछि, मुदा दोसर मत केर खण्डन करबाक मूर्खता नहि करैछ आ जे सब कुतर्क सब बहुते दूर बहा चुकल अछि, जे हमर गुण समूह सब आ हमर नाम टा’क परायण अछि, एवं ममता, मद आ मोह सँ रहित अछि, तेकर सुख वैह जनैत अछि जे परमात्मारूप परमानन्दराशि केँ प्राप्त अछि।

१२. श्रीरामचन्द्रजीक अमृत समान वचन सुनि सब कियो कृपाधाम केर चरण पकड़ि लेलक आ बाजल – “हे कृपानिधान! अपने हमरा सभक माता, पिता, गुरु, भाइ सब किछु छी आ प्राणहु सँ बेसी प्रिय छी। आर हे शरणागत केर दुःख हरयवला रामजी! अपने हमरा सभक शरीर, धन, घर-द्वार आर सब प्रकार सँ हित करयवला छी। एहेन शिक्षा अहाँक अतिरिक्त कियो नहि दय सकैत अछि। माता-पिता (हितैषी छथि आ शिक्षा सेहो दैत छथि) लेकिन ओहो सब स्वार्थपरायण छथि तेँ एहेन परम हितकारी शिक्षा नहि दैत छथि। हे असुर सभक शत्रु! जगत्‌ मे बिना हेतु केर (निःस्वार्थ) उपकार करयवला त दुइये टा अछि – एकटा अपने आ दोसर अपनेक सेवक। बाकी सबटा स्वार्थक मित्र सब अछि। हे प्रभो! ओकरा सब मे सपनहुँ मे परमार्थक भाव नहि छैक।”

१३. सभक प्रेमरस मे सानल वचन सुनि श्री रघुनाथजी हृदय मे हर्षित भेलाह। फेर आज्ञा पाबिकय सब कियो प्रभुक सुन्दर बातचीतक वर्णन करिते अपन-अपन घर गेल। शिवजी कहैत छथि – “हे उमा! अयोध्या मे रहयवला पुरुष आर स्त्री सब कृतार्थस्वरूप छथि, जाहिठाम स्वयं सच्चिदानंदघन ब्रह्म श्री रघुनाथजी राजा छथि।”

हरिः हरः!!