रामचरितमानस मोतीः हनुमान्‌जी द्वारा भरतजीक प्रश्न पुछलापर श्री रामजीक सुन्दरतम् उपदेश

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

हनुमान्‌जी द्वारा भरतजीक प्रश्न पुछलापर श्री रामजीक सुन्दरतम् उपदेश

१. भरतजी प्रभुक श्रीमुखक वाणी सुनय चाहैत छथि, जे सुनि सबटा भ्रम केर नाश भ’ जाइछ। अंतरयामी प्रभु सब जानि गेलाह आ पुछय लगलाह – “कहू हनुमान्‌! कि बात छैक?” तखन हनुमान्‌जी हाथ जोड़िकय कहलखिन – “हे दीनदयालु भगवान्‌! सुनी हे नाथ! भरतजी किछु पुछय चाहैत छथि मुदा प्रश्न करैत मन मे लजा रहल छथि।” भगवान्‌ कहलखिन्ह – “हनुमान्‌! अहाँ त हमर स्वभाव जनिते छी। भरत आ हमरा बीच कहियो कोनो अन्तर (भेद) अछि की?” प्रभुक वचन सुनिकय भरतजी हुनकर चरण पकड़ि लेलाह आ बजलाह –

“हे नाथ! हे शरणागतक दुःख हरनिहार! सुनी हे नाथ! नहि त हमरा कोनो सन्देह अछि आ न सपनहुँ मे शोक या मोहे अछि। हे कृपा आ आनन्दक समूह! ई केवल अपनहि केर कृपाक फल अछि। तथापि हे कृपानिधान! हम अपने सँ एकटा धृष्टता करैत छी। हम सेवक छी आ अपने सेवक केँ सुख दयवला छी, तेँ हमर धृष्टता केँ क्षमा करब आ हमर प्रश्नक उत्तर दयकय सुख देब। हे रघुनाथजी! वेद-पुराण मे सन्तक महिमा बहुते प्रकार सँ  गायल गेल अछि। अपने सेहो अपन अपन श्रीमुख सँ हिनका सभक बड़ाई कयलहुँ आ हुनका सब पर प्रभुक प्रेम सेहो बहुत अछि। हे प्रभो! हम हुनका लोकनिक लक्षण सुनय चाहैत छी। अहाँ कृपाक समुद्र छी आर गुण एवं ज्ञान मे अत्यन्त निपुण छी। हे शरणागत केर पालन करयवला! सन्त आर असन्तक भेद अलग-अलग कयकेँ हमरा बुझाकय कहू।”

२. श्री रामजी कहलखिन्ह –

“हे भाइ! सन्त सभक लक्षण (गुण) असंख्य छन्हि, जे वेद आ पुराण सब मे खुब प्रसिद्ध अछि। सन्त आर असन्त लोकनिक करनी एहेन छन्हि जेना कुरहरि आ चन्दनक आचरण होइत अछि। हे भाइ! कुरहरि चन्दन केँ काटैत अछि कियैक तँ ओकर स्वभाव अथवा काज गाछ केँ काटब होइत छैक, लेकिन चन्दन अपन स्वभाववश अपन गुण दयकय ओहि काटयवला कुरहरि केँ सुगन्ध सँ सुवासित कय दैत अछि। एहि गुणक कारण चन्दन देवता सभक माथ पर चढ़ैत अछि आ जगत् केँ प्रिय भ’ रहल अछि। जखन कि कुरहरि केर मुंह केँ ई दण्ड भेटैत छैक जे ओकरा आगि मे जराकय फेर मरिया (हथौड़ा) सँ पीटल जाइत छैक।

सन्त विषय मे लिप्त नहि होइत छथि, शील आ सद्गुण सभक खान होइत छथि। हुनका दोसरक दुःख देखि दुःख आ सुख देखि सुख होइत छन्हि। ओ सबमे, सर्वत्र आ सब समय समता रखैत छथि, हुनका मोने कियो हुनकर शत्रु नहि छन्हि। ओ मद सँ रहित आ वैराग्यवान् होइत छथि। लोभ, क्रोध, हर्ष आ भय केँ त्याग कएने रहैत छथि।

हुनकर चित्त बड़ा कोमल होइत छन्हि। ओ लोकनि दीन पर दया करैत छथि आ मन, वचन आ कर्म सँ हमर निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करैत छथि। सबकेँ सम्मान दैत छथि मुदा स्वयं मानरहित रहब पसीन करैत छथि।

हे भरत! ई सब प्राणी (सन्तजन) हमरा प्राणक समान छथि। हुनका लोकनिक कोनो कामना नहि होइत छन्हि। ओ सब हमर नामक परायण होइत छथि। शान्ति, वैराग्य, विनय आ प्रसन्नताक घर होइत छथि। हुनका सब मे शीलता, सरलता, सभक प्रति मित्र भाव आर ब्राह्मणक चरण मे प्रीति होइत छन्हि, जे धर्म केँ उत्पन्न करयवाली होइछ।

हे तात! ई सब लक्षण जेकर हृदय मे बसैत हो, ओकरा सदिखन सच्चा सन्त बुझब।

जे शम (मनक निग्रह), दम (इंद्रियक निग्रह), नियम आर नीति सँ कहियो (कखनहुँ) विचलित नहि होइत अछि आ मुख सँ कहियो कठोर वचन नहि बजैछ, जेकरा निन्दा आ स्तुति (बड़ाइ) दुनू समान छैक आर हमर चरणकमल मे जेकरा ममता छैक, ओ गुण सभक धाम आ सुख केर राशि सन्तजन हमरा प्राणक समान प्रिय अछि।”

३. श्री रामजी सन्तक गुण आ पहिचान वर्णन कय पुनः आगू कहैत छथि, “आब असन्त दुष्ट सभक स्वभाव सुनू। कहियो बिसरियोकय ओकर संगति नहि करबाक चाही। ओकर संग सदिखन दुःखे दय वला होइत छैक। जेना हरहाई (खराब जातिक) गाय कपिला (सीधा आ दुधार) गाय केँ अपन संग सँ नष्ट कय दैत छैक।

दुष्ट सभक हृदय मे बहुत अधिक संताप रहैत छैक। ओ सब पराया संपत्ति (सुख) देखिकय सदिखन जरैत रहैत अछि। ओ सब जेतय कतहु दोसरक निन्दा सुनि पबैछ, ओहिठाम एना हर्षित होइछ मानू रास्ता मे पड़ल कोनो खजाना भेटि गेल होइक। ओ सब काम, क्रोध, मद आ लोभ केर परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल एवं पाप केर घर होइत अछि। ओ सब बिना कारणे दोसर सब सँ वैर कयल करैत अछि। जे भलाई करैत छैक ओकरो संग अधलाहे कयल करैत अछि।

ओकरा सब केँ झूठहि लेनाय आ झूठहि देनाय रहैत छैक। झूठहि भोजन आ झूठहि पनपियाइ होइत छैक। (अर्थात्‌ ओ लेन-देन केर व्यवहार मे झूठक आश्रय लयकय दोसरक हक मारि लेल करैत अछि अथवा झूठे डींग हाँकल करैत अछि जे हम लाखों रुपैया लेलहुँ, करोड़ों के दान देलहुँ। एहि तरहें खाइत अछि चनाक रोटी आ कहैत अछि जे आइ खूब नीक-निकुत खाकय आयल छी। अथवा चुरा चिबाकय रहि जाइत अछि आ कहैत अछि जे हमरा बढ़िया भोजन सँ वैराग्य अछि, इत्यादि। मतलब ई भेल जे ओ सबटा बात मे झूठे टा बाजल करैत अछि।) जेना मोर साँप केँ पर्यन्त खा जाइत अछि, तहिना ओहो सब उपरे टा सँ मीठ वचन बाजल करैछ, धरि हृदयक भारी निर्दयी भेल करैछ।

ओ सब दोसर सँ द्रोह करैत अछि आर पराया स्त्री, पराया धन तथा परायाक निन्दा मे आसक्त रहल करैत अछि। ओ पामर आ पापमय मनुष्य नर शरीर धारण कएने राक्षसे थिक। लोभे ओकर ओढ़ना आ लोभे ओकर बिछौना होइत छैक। (अर्थात्‌ लोभहि टा सँ ओ सब हमेशा घेरायल रहैत अछि।)

ओ सब पशुक समान आहार आ मैथुन टाक परायण होइत अछि, ओकरा सब केँ यमपुरीक पर्यन्त डर नहि लगैत छैक। जँ केकरो बड़ाई सुनि पबैछ त ओ एना दुःख भरल साँस लैत अछि मानू ओकरा घुरमा लागि गेल होइक। आर, जखन केकरो विपत्ति देखैत अछि तखन एना सुखी होइत अछि मानू जगभरिक राजा बनि गेल हो।

ओ सब स्वार्थपरायण, परिवारवलाक विरोधी, काम आ लोभ केर कारण लंपट तथा अत्यन्त क्रोधी होइत अछि। ओ सब माय, बाप, गुरु तथा ब्राह्मण केकरो नहि मानैछ।

अपने त नष्ट भेले रहैत अछि, संगहि अपन संग सँ दोसरहु केँ नष्ट करैत रहैत अछि। मोहवश दोसर सँ द्रोह करैत अछि। ओकरा सब केँ नहिये सन्तक संग नीक लगैत छैक, नहिये भगवानक कथे सब सोहाइत छैक।

ओ सब अवगुणक समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेद केर निन्दक आर जबर्दस्ती पराया धन केर स्वामी (लूटयवला) होइत अछि। ओ सब दोसर सँ द्रोह तँ करिते टा अछि, मुदा ब्राह्मण द्रोह विशेषता सँ करैत अछि।

ओकरा सभक हृदय मे दम्भ आर कपट भरल रहैत छैक, लेकिन ओ सब उपर सँ सुन्दर वेष धारण कएने रहैत अछि।

एहेन नीच आ दुष्ट मनुष्य सत्ययुग तथा त्रेता मे नहि होइछ। द्वापर मे थोड़-बहुत होयत आ कलियुग मे एकरा सब झुंडक झुंड होयत।

हे भाइ! दोसरक भलाई केर समान कोनो धर्म नहि अछि आ दोसर केँ दुःख पहुँचेबाक समान कोनो नीचता (पाप) नहि अछि।

हे तात! समस्त पुराण आ वेद केर यैह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) हम अहाँ सँ कहलहुँ, एहि बात केँ पण्डित लोकनि जनैत छथि। मनुष्यक शरीर धारण कयकेँ जे लोक दोसर केँ दुःख पहुँचाबैत अछि, ओकरा जन्म-मृत्युक महान्‌ संकट सहय पड़ैत छैक। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण भ’ कय अनेकों पाप करैत अछि, ताहि सँ ओकर परलोक नष्ट भेल रहैत छैक।

हे भाइ! हम ओकरा सभक लेल कालरूप (भयंकर) छी आर ओकर नीक-बेजा कर्म सभक यथायोग्य फल दयवला छी! एना विचारिकय जे लोक परम चतुर अछि ओ सब संसारक प्रवाह केँ दुःखरूप बुझैत हमरे टा भजैत अछि। ताहि सँ ओ सब शुभ आर अशुभ फल दयवला कर्म केँ त्यागिकय देवता, मनुष्य आर मुनि सभक नायक हमरे टा भजैत अछि।

एहि तरहें हम सन्त आ असन्तक गुण कहलहुँ। जे सब एहि गुण सब केँ बुझि चुकल अछि, से सब जन्म-मरण केर चक्कर मे नहि पड़ैत अछि।

हे तात! सुनू! माया सँ रचल गेल अनेक (सब) गुण आ दोष सब अछि। एकरा सभक कोनो वास्तविक सत्ता नहि छैक। गुण (विवेक) एहि मे अछि जे दुनू नहि देखल जाय, एकरा देखनाइये अविवेक छी।”

४. भगवान् केर श्रीमुख सँ ई सब वचन सुनि सब भाइ खुब हर्षित भ’ गेलाह। प्रेम हुनका लोकनिक हृदय मे समा नहि रहल अछि। ओ सब बेर-बेर भगवानक विनती करैत छथि। विशेषकय हनुमान्‌जीक हृदय मे अपार हर्ष छन्हि। तदनन्तर श्री रामचंद्रजी अपना महल चलि गेलाह।

५. एहि प्रकारे ओ नित्य नव लीला करैत छथि। नारद मुनि अयोध्या मे बेर-बेर अबैत छथि आ आबिकय श्री रामजीक पवित्र चरित्र गबैत छथि। मुनि एतय सँ नित्य नव-नव चरित्र सब देखिकय जाइत छथि आ ब्रह्मलोक मे जाकय सब कथा सुनबैत छथि। ब्रह्माजी सुनिकय अत्यन्त सुख मानैत छथि आ कहैत छथि – हे तात! बेर-बेर श्री रामजीक गुण सभक गायन करू। सनकादि मुनि नारदजीक सराहना करैत छथि। यद्यपि ओ (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ छथि, लेकिन श्री रामजीक गुणगान सुनिकय ओहो सब अपन ब्रह्मसमाधि केँ बिसरि गेल करैत छथि आ आदरपूर्वक रामकथा सुनैत छथि। ओ सब रामकथा सुनयवला श्रेष्ठ अधिकारी सब छथि। सनकादि मुनि जेहेन जीवन्मुक्त आर ब्रह्मनिष्ठ पुरुष सेहो ध्यान (ब्रह्म समाधि) छोड़िकय श्री रामजीक चरित्र सुनैत छथि। ई जानियोकय जे श्री हरिक कथा सँ प्रेम नहि करैछ, ओकर हृदय सचमुच पाथरहि समान छैक।

हरिः हरः!!