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सन्त चरितः भक्त जलारामजीक पठनीय-मननीय-अनुकरणीय कथा

भक्त जलारामजी

(शास्त्री श्रीमंगलजी उद्भवजी पुरोहित)

संत-चरित – साभारः कल्याण, वर्ष ९२, संख्या ४

गङ्गा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा।
पापं तापं च दैन्यं च घ्‌नन्ति सन्तो महाजनाः॥

‘गंगा पाप, चन्द्रमा संताप तथा कल्पवृक्ष दरिद्रताक नाश करैत अछि अर्थात् ई सबटा एक-एक विषयक नाशक थिक; मुदा सन्त-महापुरुष पाप, ताप आ दारिद्र्‌य – तीनू केर एक्कहि संग विनाश कय दैत अछि।’

एहेन सत्पुरुष एहि कराल कलिकाल मे सेहो भेला अछि। भक्त, महात्मा आ ज्ञानीजन लोकनिक उद्गम-स्थान ई आर्यावर्त्त कहियो हिनका सब सँ सर्वथा खाली नहि भ’ सकैछ। आइ हम जाहि वीतराग भक्तक चरित्र-चित्रण करय जा रहल छी, हिनक जन्म सौराष्ट्र-देशक वीरपुर गाम मे भेल छलन्हि। ई लोहाणा क्षत्रियकुल मे उत्पन्न भेल रहथि। हिनकर पिताक नाम रहनि – प्रधान आ माताक राजाबाई। दम्पत्ति केर जेठ बालकक नाम बोधाभाई रहनि। पहिल पुत्रक जन्म सँ पाँच वर्ष पाछाँ ठाकुरक घर मे एक गोटे महात्मा अतिथि अयलाह। प्रधान ठाकुर ओहि महात्माक यथोचित आतिथ्य कयलनि। महात्मा प्रसन्न भ’ कय ठाकुर सँ वरदान माँगय कहलखिन्ह। ठाकुर वरदानरूप मे अपन वंश मे सेहो महात्मा लोकनिक सेवा करयवला एकटा पुत्र मँगलनि। महात्मा प्रसन्नचित्त सँ ‘तथास्तु’ कहिकय यात्रार्थ निकलि गेलाह।

सत्पुरुष लोकनिक वचन अन्यथा नहि होइत छैक। प्रभुक लीला अवर्णनीय अछि। विक्रम संवत् १८५३ केर कार्तिक शुक्ल सप्तमी, सोम दिन राजाबाईक उदर सँ एक पुत्ररत्न केर जन्म भेल। एकर नाम जलाराम राखल गेल। बाल्यकालहि सँ जलारामजी तेजस्वी छलाह। पुत्र उपर माता-पिताक अत्यधिक प्रेम छलन्हि। भक्त जलारामजी बच्चे सँ सदाचार-पालन, सत्पुरुष लोकनिक सेवा, सत्संग-सेवन आ नाम-जप मे रुचि रखैत छलथि।

किछु समय बाद जलारामजीक माता-पिता परलोकवासी भ’ गेलखिन्ह। आब जलारामजीक पोषकवर्ग मे मात्र बालाजी नामक एकटा चाचा मात्र छलखिन्ह। हुनकर कोनो पुत्र नहि छलन्हि, ताहि सँ ओ जलारामजी केँ अपनहि संग राखि लेलखिन्ह। चाचा जलारामजी केँ दोकानक काज सौंपि देने छलखिन्ह, अतएव ओ भगवच्चिन्तनपरायण भ’ कय दोकानक काज करिते भगवत्सेवा सेहो कयल करथि। ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ – गीताक ई मंत्र हुनक जीवनक आदर्श छल। एहि कारण बालसूर्य केर किरण समान जलारामजीक सुयश चारू दिश पसरय लागल।

एक दिन के बात थिक, भोरुका पहर छल। ब्राह्मण लोकनि शिवालय मे वेद-मंत्र सब सँ पूजन कय रहल छलथि। भक्तजन हरिनाम केर उच्चारण कय रहल छलथि, श्रमिक सब अपन-अपन काज मे व्यस्त छल आ वैश्यवर्ग अपन-अपन दोकान सब केँ झाड़ि रहल छल। ताहि समय साधु लोकनिक एकटा टोली गाम मे आयल। नीक-नीक व्यापारी सब सँ साधु लोकनि सीधा (भोजन-सामग्री) केर याचना कयलनि, मुदा भोरुका पहर होयबाक कारण कियो हुनका लोकनिक बात पर ध्यान नहि देलक। बोहनीक समय देबाक नाम केकरा सोहइतय? साधु सब निराश भ’ कय घुरय लगलाह, तखनहि कियो हुनका सब केँ कहलकनि, “महाराज! एहि बजार मे जलारामक दोकान पर जाउ। ओ भक्त सभक सेवा कयल करैत छथि। एतय आर कियो अहाँ सभक बात नहि सुनत।”

अन्ततोगत्वा साधु-मण्डली जलारामजी ओतय पहुँचलाह। मण्डलीक मुखिया पुछलखिन – “जला भगत केर दोकान यैह थिक की?”

“अपनेक दास केर यैह दोकान छी, महाराज! कि आज्ञा अछि?” जलारामजी नम्रतापूर्वक उत्तर देलखिन।

“जलाराम! जँ तोहर इच्छा छह तँ सब सन्त लोकनिक वास्ते सीधा दय दह। हम सब वृन्दावन सँ आबि रहल छी आर गिरनार केर यात्रा करय जा रहल छी। एतय सँ भोजन कयकेँ चलबाक विचार अछि।” सन्त कहलखिन।

साधु-महात्मा सब केँ भोजन कराकय स्वयं भोजन करब त’ जलारामजीक नित्य केर नियमे छलन्हि। ई देखिकय बगलहिक एकटा बनिया हिनका बड कड़ा नजरि सँ देखैत छल आ मने-मन कुहरिकय कहल करय – ‘ई जलियाबला चाचाक दोकान केँ सत्यानाश कय देत।’ आइ त साधु सभक एहि जमात केँ देखिते ओ आरो जैर-मैर गेल। जलारामजी अपन सहज स्वभाव अनुसार साधु लोकनि केँ आटा, दालि, चाउर आदि सामान तौलि देलनि।

साधु सब लग घी लेबाक कोनो पात्र नहि रहनि, ताहि सँ जलारामजी अपनहि लोटा मे पाँच सेर घी भरि देलनि आ ओ घी तथा गुड़ स्वयं उठाकय साधु लोकनिक रुकबाक जगह पर पहुँचेबाक लेल चलि पड़लाह। बगलहिक बनिया ई सबटा देखि रहल छल। जलारामजी केँ जाइत देखि ओ तुरन्त बाला चाचा लग पहुँचल आ हुनका सबटा बात सुनबैत ओ कहलक – ‘चाचाजी! जल्दी चलू आ देखू, जलिया सबटा दोकान साधु सब केँ लुटा दैत अछि।’

बाला चाना तुरन्ते दोकान दिश चलि पड़लाह। बाटहि मे हुनकर भेंट जलारामजी संग भ’ गेलनि। चाचाक स्वभाव जलारामजी सँ नुकायल नहि छल; अतएव हुनका देखिते जलारामजी डर सँ सुखायल सन भ’ गेलाह। ओ मोन मे सोचलनि – ‘आइ चाचा अवश्ये टा दण्ड देता। खैर, जेहेन श्रीरामक इच्छा।’ बाला चाचाक आँखि सँ तामसे मानू आगि बरैस रहल छल। ओ कड़किकय पुछलाह – ‘जलिया! एहि धोती मे कथी जरेने छँ?’

सत्यवादी जलारामजीक मुंह सँ मानू कियो दोसरे जबरदस्थी बजबा देलक – ‘काठक टुकड़ाक अलावे आर कथी जरायल जाइत छैक, चाचाजी?’

‘आर एहि लोटा मे?’

‘एहि मे जल अछि।’

चाचाजी गुड़क गठरी खोलिकय देखलनि त ओहि मे सच्चे काठक टुकड़ा टा छलैक आ लोटा जल सँ भरल छल। एहि दृश्य केँ देखिकय ओ बनिया तथा आर उपस्थित लोक सब केँ भारी विस्मय भेलैक। चाचाजीक तामस सेहो शान्त भ’ गेलनि। आब ओ नम्र आवाज मे पुछलनि – ‘कतय जा रहल छँ?’

‘चाचाजी! एहि गाम के बाहर रुकल साधु लोकनिक टोली लेल ई सामान पहुँचाबय जा रहल छी।’

‘अच्छा’ कहिकय चाचाजी दोकान पर चलि गेलाह आ जलारामजी साधु सब लग पहुँचि गेलाह। कहय नहि पड़त, साधु सब लग गेलाह पर घी आ गुड़ अपन मूल स्वरूप मे बदलि गेल छल। भगवान् कि नहि कय सकैत छथि? जलाराम केर वाणी सेहो झूठ नहि भेलैक आर चाचाक सन्देह सेहो दूर भ’ गेलनि।

एहि घटना सँ भक्तजीक हृदय मे कतबे आनन्द भेल होयत, एहि बातक अनुमान स्वयं पाठक लगा सकैत छी। सच छैक, भक्तवत्सल भगवान् केँ अपन भक्तक लेल सब प्रकारक व्यवस्था करय पड़ैत छन्हि। जलारामजी ओहि दिन सँ आरो बेसी उत्साहक संग साधु-सेवा करय लगलाह।

***

‘जलाराम केकर नाम छी?’ आगन्तुक एक साधु दोकानदार सँ प्रश्न कयलनि।

‘बगलहिक दोकान जलाराम केर थिक।’ वैह द्वेषी बनिया उत्तर देलकनि।

साधु जलाराम केर दोकान पर अयलाह। भक्तजी हुनका देखिते नम्रतापूर्वक प्रणाम कयलनि आ पुछलनि – ‘कि आज्ञा अछि, महाराज!’

‘भक्तराज! वस्त्रक बिना दुःख पाबि रहल छी। एक टुकड़ा वस्त्र साफीक वास्ते दय दह।’ साधु कहलखिन।

जलारामजी प्रसन्न भ’ कय खादीक थान मे सँ पाँच हाथक एकटा टुकड़ा फाड़िकय दय देलखिन्ह। साधु बाबा प्रसन्न होइत बजार मे ‘भक्त आर भगवान् केर जय’ बजिते चलि गेलाह।

दुर्जन स्वयं दुःख उठइयो कय सत्पुरुष सब केँ बाधा पहुँचाबय मे कोनो कोर-कसैर नहि रखैत अछि। ओ सब सदिखन एहि ताक मे रहल करैत अछि जे कखन कोन अवसर हाथ लागत आ अपन काज सुतारि लेब। आइ ओहि द्वेषी बनिया केँ फेर मौका भेटि गेलैक। ओ विचार कयलक – ‘आब देखी जलिया कोन उपाय करैत अछि?’ खादीक थान बीस हाथ के छलैक। बाला चाचा केँ ठामहि देखेबय जे एहिना ई सब किछु उड़ा देत।’

दोसर दिन बाला चाचा दोकान पर अयलाह। जलारामजी एखन धरि साधु सेवा सँ निवृत्त नहि भेल रहथि। ओ बनिया सेहो और दिनक अपेक्षा आइ सबेरे दोकान पर आबि डटल छल। आइ अपन सफलताक ओकरा पूरा आशा छलैक। ओ बाला चाचा केँ असगरे दोकान पर देखिकय कहलक – ‘चाचाजी! अहाँ कहियो हमर कहब नहि सुनैत छी। आइ कनी खादीक थान त देखियौक। एहिना अहाँक सब किछु मुफ्तहि मे चलि जाइत अछि।’

ता धरि जलारामजी सेहो आबि गेलाह। चाचा वस्त्र नापय लगलाह। ‘ई की?’ आश्चर्यक संग चाचा कहलखिन – ‘ई थान त बीसे हाथक छल, आब पचीस केना भ’ गेल?’ ओ फेर नपलनि, मुदा वैह पचीस के पचीसे हाथ निकलल। ओ बनिया तैयो दबल स्वर मे कहैत अछि – ‘चाचाजी! चारि-पाँच हाथ ….. साधु केँ…..।’

‘तूँ चुप रह, तूँ हमर जलिया सँ द्वेष करैत छँ। चल भाग एतय सँ।’ बीच्चे मे चाचाजी टोकि देलखिन्ह। बनिया चुपचाप चलि गेल। ओ भक्तिक प्रभाव बुझि गेल आ ताहि सँ ओ जलारामजी केँ नहि सतेबाक प्रतिज्ञा कय लेलक।

***

मनुष्य स्वयं कतबो गुणवान्, बुद्धिमान् आ सावधान कियैक नहि हो, जँ ओकर धर्मपत्नी सद्गुणवती नहि अछि त ओकर यश संसार मे ओतेक बनहि बढ़ि सकैत छैक। जाहि तरहें गाड़ी मे दुनू पहियाक समान आ दृढ़ होयबाक आवश्यकता छैक, तहिना गृहस्थी चलेबाक लेल स्त्री-पुरुष – दुनूक योग्य होयबाक जरूरत छैक। ईश्वर-कृपा सँ जलारामजीक पत्नी सेहो हुनकहि समान धार्मिक बुद्धिवाली छलीह। हुनक नाम छलन्हि – वीरबाई। वीरबाई स्वभाव सँ सुशील आ पतिव्रता रहथि। जाहि तरहें भक्तजी श्रीराम-भजन मे मस्त छलथि, ताहि तरहें वीरबाई सेहो भजन आ पतिसेवा मे लीन रहैत छलीह।

किछु दिन सँ भक्तजीक मोन मे ई चिन्ता भ’ रहल छलन्हि जे हमर बर्ताव चाचाजी केँ नीक नहि लगैत छन्हि, एहेन अवस्था मे हम कि करू? कि अलग भ’ जाउ? लेकिन हमर निर्वाह केना होयत? एहि बीच एक दिन गीताक पाठ करैत समय हुनकर दृष्टि नवम अध्यायक बाइसम श्लोक पर पड़लन्हि –

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

भक्तजी जागि उठलाह। सोचय लगलाह – ‘हरि! हरि!! ई की? स्वयं भगवाने आज्ञा दय रहल छथि त फेर हम कियैक भ्रम मे पड़ल छी? कि प्रभु हमर आधार नहि?’ ओ रोमांचित भ’ गेलाह। हुनकर आँखि सँ प्रेमाश्रुक धार बहय लगलन्हि। दोसरे दिन जलारामजी बालाजी चाचा सँ अलग भ’ गेलाह आ निश्चिन्त भ’ कय अन्नदान, साधुसेवा आ सत्संग करय लगलाह।

जलारामजी अपना ओतय एकटा अन्नसत्र – सदाव्रत खोलि देलनि, जाहि ठाम अनेकों भूखल नर-नारी लोकनि केँ भोजन भेटय लागल। ताहि समय मे संवत् १९३४ केर भयंकर अकाल पड़ल छलैक। एहेन कठिन समय मे पर्यन्त श्रीहरि-कृपा सँ ओ अन्नसत्र यथावत् चलिते रहलैक।

वि. संवत् १९३७ माघ कृष्ण दशमीक दिन भक्तराज जलारामजी साकेत-निवास कयलनि आइयो जनता केँ ज्ञान देबाक लेल हुनकर कीर्तिमयी देह वर्तमान अछि आर आगुओ रहबे करत।

आउ, भगवान् सँ प्रार्थना करी जे एहेन सन्त-महात्मा जगत् केर कल्याणक लेल सदा-सदा एहि पवित्र भारतवर्षीय भूमि पर अवतरित होइत रहथि।

अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी

हरिः हरः!!

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