रामचरितमानस मोतीः रावण केँ विभीषणक बुझेनाय आर विभीषणक अपमान

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

रावण केँ विभीषणक बुझेनाय आर विभीषणक अपमान

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥३७॥

१. मंत्री, वैद्य आर गुरु – ई तीन जँ अप्रसन्नताक भय या लाभ केर आशा सँ हितक बात नहि कहि मात्र प्रिय बात बजैत छथि, मुंह देखि मुंगबा करैत छथि, त क्रमशः राज्य, शरीर आर धर्म – एहि तीनू के शीघ्रहि नाश भ’ जाइत छैक।

२. रावणक लेल एहने संयोग बनि गेल छैक। मंत्री सब सुना-सुनाकय मुँह पर स्तुति करैत अछि। ताहि घड़ी एकटा अवसर जानि विभीषणजी अयलाह। ओ जेठ भाइ रावणक चरण मे सिर नमौलनि। पुनः सिर नमाकय अपन आसन पर बैसि गेला आर आज्ञा पाबिकय ई वचन बजलाह –

“हे कृपाल! जखन अपने हमरा सँ राय पुछलहुँ अछि त हे तात! हम अपन बुद्धि मुताबिक अहाँक हित के बात कहैत छी।

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥३॥

जे मनुष्य अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुबुद्धि, शुभ गति आर नाना प्रकार के सुख चाहैत हो, से हे स्वामी! परस्त्री केर ललाट केँ चौठक चान जेकाँ त्यागि दियए। (जहिना लोक चौथक चन्द्रमा केँ नहि देखैत अछि, तहिना परस्त्रीक मुंह नहि देखय।)

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥४॥

चौदहो भुवनक एक टा स्वामी हो, सेहो जीव सब सँ वैर कयकेँ नहि ठहरि सकैछ, नष्ट भ’ जाइत अछि। जे मनुष्य गुण सभक समुद्र आर चतुर अछि, ओकरा भले कनिकबे टा के लोभ कियैक नहि हो, तैयो ओकरा कियो भला लोक नहि कहैत छैक।

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥सुन्दरकाण्ड ३८॥

हे नाथ! काम, क्रोध, मद आर लोभ – ई सब नरक केर रास्ता थिक, एकरा सबकेँ छोड़िकय श्री रामचंद्रजी केँ भजू, जिनका संत (सत्पुरुष) सब भजैत छथि।

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥१॥

हे तात! राम मनुष्य सभक मात्र राजा नहि थिकाह। ओ समस्त लोक केर स्वामी आ कालहु केर काल थिकाह। ओ सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान केर भंडार भगवान्‌ थिकाह, ओ निरामय (विकाररहित), अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म थिकाह।

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥२॥

ओ कृपाक समुद्र भगवान्‌ पृथ्वी, ब्राह्मण, गो व देवता सभक हित करबाक लेल केवल मनुष्यक शरीर धारण कयलनि अछि। हे भाई! सुनू, ओ सेवक सब केँ आनन्द दयवला, दुष्ट सभक समूह केँ नाश करयवला आ वेद व धर्म केर रक्षा करयवला थिकाह।

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥४॥

वैर त्यागिकय हुनका माथ नमाउ। ओ श्री रघुनाथजी शरणागतक दुःख नाश करयवला छथि। हे नाथ! ताहि प्रभु (सर्वेश्वर) केँ जानकीजी दय दिऔन आ बिना कारणहि स्नेह करयवला श्री रामजी केँ भजू।

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥४॥

जेकरा सम्पूर्ण जगत्‌ सँ द्रोह करबाक पाप लागल छैक, शरण गेला पर प्रभु ओकरहु त्याग नहि करैत छथि। जिनकर नाम तीनू ताप केँ नाश करयवला अछि, वैह प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप मे प्रकट भेल छथि। हे भ्राता रावण! हृदय मे ई बुझि जाउ।

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥३९क॥

हे दशशीश! हम बेर-बेर अहाँक चरण लगैत छी आ विनती करैत छी जे मान, मोह आर मद केँ त्यागिकय अहाँ कोसलपति श्री रामजीक भजन करू।

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥३९ख॥

मुनि पुलस्त्यजी अपन शिष्यक (हमरा) माध्यम सँ ई बात कहय लेल पठौलनि अछि। हे तात! सुन्दर अवसर पाबि हम तुरन्त से बात प्रभु अपने केँ कहि सुनेलहुँ।”

३. माल्यवान्‌ नामक एक बहुते बुद्धिमान मंत्री रहथि। ओ विभीषणक वचन सुनिकय बहुत सुख मानलनि आ कहलखिन – “हे तात! अपनेक छोट भाइ नीति विभूषण (नीति केँ भूषण रूप मे धारण करयवला अर्थात्‌ नीतिमान्‌) छथि। विभीषण जे किछु कहि रहल छथि से हृदय मे धारण कय लिअ’।”

४. रावण बाजल – ई दुनू मूर्ख शत्रु केर महिमा बखानि रहला अछि। अरे! एतय कियो छँ कि नहि? दूर कर एकरा सब केँ! एतबा सुनि माल्यवान्‌ तँ ओतय सँ उठिकय अपन घर वापस चलि गेलाह लेकिन विभीषणजी हाथ जोड़िकय फेर कहय लगलखिन –

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥३॥

“हे नाथ! पुराण आर वेद एना कहैत अछि जे सुबुद्धि (नीक बुद्धि) आ कुबुद्धि (खराब बुद्धि) सभक हृदय मे रहैत छैक, जतय सुबुद्धि अछि, ओतय नाना प्रकार केर संपदा सब (सुख केर स्थिति) रहैत छैक आर जतय कुबुद्धि अछि ओतय परिणाम मे विपत्ति (दुःख) रहैत अछि।

तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥४॥

अपनेक हृदय मे उलटा बुद्धि आबि गेल अछि। एहि सँ अहाँ हित केँ अहित आ शत्रु केँ मित्र मानि रहल छी। जे राक्षस कुल वास्ते कालरात्रि समान अछि, ताहि सीता पर अहाँक भारी प्रीति अछि।

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥४०॥

हे तात! हम चरण पकड़ि अपने सँ भीख मँगैत छी (विनती करैत छी) से अहाँ हमर दुलार राखि लिअ’। हम बालक केर आग्रह केँ स्नेहपूर्वक स्वीकार करू। श्री रामजी केँ सीताजी दय दिऔन, जाहि सँ अहाँक अहित नहि हो।”

५. विभीषण पंडित लोकनिक, पुराण सभक आर वेद सब द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी सँ नीति बखानिकय कहलखिन्ह। मुदा से सुनिते रावण क्रोधित भ’ कय उठल आ बाजल – “अरे दुष्ट! आब मृत्यु तोहर नजदीक आबि गेल छौक! अरे मूर्ख! तूँ जिबय छँ हमर जियेला पर (अर्थात्‌ हमर अन्न खा कय पोसा रहल छँ), लेकिन रे मूढ़! पक्ष तोरा शत्रु टा के नीक लगैत छौक। अरे दुष्ट! बता त, जगत्‌ मे एहेन के अछि जेकरा हम अपन भुजाक बल सँ नहि जितलहुँ? हमर नगर मे रहिकय प्रेम करैत छँ तपस्वी सब पर। मूर्ख! ओकरे सब सँ जाकय मिलि जो आ ओकरे सब केँ नीति सिखा।”

६. एना कहिकय रावण विभीषण केँ लात मारलक, मुदा छोट भाइ विभीषण मारलो पर बेर-बेर ओकर चरण टा पकड़लन्हि।

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥४॥

शिवजी कहैत छथि – हे उमा! संत केर यैह बड़ाई (महिमा) छन्हि जे ओ खराबो कयला पर खराबय करयवलाक नीके करैत छथि।

७. विभीषणजी कहलखिन – “अहाँ हमर पिता समान छी, हमरा मारलहुँ से त नीके कयलहुँ, मुदा हे नाथ! अहाँक भलाइ श्री रामजी केँ भजने टा मे अछि।” एतबा कहिकय विभीषण अपन मंत्री सभ केँ संग लय आकाश मार्ग मे गेलथि आ सबकेँ सुनाकय ओ एना कहय लगलाह – ।

क्रमशः ऐगला अध्याय मे…..

हरिः हरः!!