स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका मे प्रवेश
१. अनेकों प्रकारक वृक्ष फल-फूल सँ शोभित अछि। पक्षी आर पशु सभक समूह देखि मनहि-मन बड प्रसन्नता भेलनि। सोझेँ एक गोट विशाल पर्वत देखिकय हनुमान्जी भय त्यागि कय ओहि पर दौड़िकय जा चढ़लथि। शिवजी कहैत छथि – हे उमा! एहि मे बानर हनुमान् केर कोनो बड़प्पन नहि, ई सबटा प्रभुक प्रताप थिक जे कालहु केँ खा गेल करैछ। पर्वत पर चढ़ि ओ लंका देखलाह। बड पैघ किला छल जेकर वर्णन करब कठिन अछि।
२. ओ अत्यन्त ऊँच अछि, ओकर चारू दिश समुद्र छैक। सोनाक परकोटा (चहारदीवारी) केर परम प्रकाश भ’ रहल छैक।
छंद :
कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥१॥
विचित्र मणि सब सँ जड़ित सोनाक परकोटा छैक। तेकर अन्दर कतेको रास सुन्दर-सुन्दर घर छैक। चौराहा, बाजार, सुन्दर मार्ग आ गली सब, सुन्दर नगर अनेक रूपें सजल अछि। हाथी, घोड़ा, खच्चर सभक समूह तथा पैदल आर रथ आदिक समूह एतेक बेसी अछि जेकर गिनती सम्भव नहि। अनेकों रूप केर राक्षस सभक दल छैक। ओतुका अत्यन्त बलवती सेनाक वर्णन करैत नहि बनैत अछि।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥२॥
वन, बाग, उपवन (बगीचा), फुलवाड़ी, तालाब, इनार आ पोखरि सब खूब सुशोभित अछि। मनुष्य, नाग, देवता आ गंधर्व सभक कन्या सब अपन सौन्दर्य सँ मुनि लोकनिक मोन केँ मोहि लैत छथि। कतहु पर्वत समान विशाल शरीर वला बड़ा बलवान् मल्ल (पहलवान) गरजि रहल अछि। ओ सब अनेकों अखाड़ा सब पर बहुते प्रकार सँ भिड़ैत आ एक-दोसर केँ ललकारैत अछि।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥३॥
भयंकर शरीर वला करोड़ों योद्धा यत्न कयकेँ बड़ा सावधानी सँ नगरक चारू दिशा सब मे रखवाली कय रहल अछि। कतहु दुष्ट राक्षस सब महींस, मनुष्य, गाय, गदहा आ बकरा सब केँ खा रहल अछि।
३. तुलसीदास एकरा सभक कथा एहि वास्ते थोड़बे कहलनि अछि जे ई निश्चय टा श्री रामचन्द्रजीक बाणरूपी तीर्थ मे शरीर केँ त्यागिकय परमगति पाओत।
४. नगरक बहुसंख्यक रखवाला सब केँ देखिकय हनुमान्जी मोन मे विचार कयलनि जे अत्यन्त छोट रूप धरी आ रातिक समय नगर मे प्रवेश करी। हनुमान्जी मच्छड़ समान (छोट सन) रूप धारण कय नर रूप सँ लीला करयवला भगवान् श्री रामचंद्रजीक स्मरण कयकेँ लंका लेल चलि देलाह।
५. लंकाक द्वार पर लंकिनी नाम केर एक राक्षसी रहैत छलीह। ओ बजली – “हमर निरादर कयकेँ बिना हमरा सँ पुछने कतय जा रहल छँ? अरे मूर्ख! तूँ हमर भेद नहि जनलें? एतय जतेक चोर अबैत अछि सैह सब हमर आहार बनैत अछि।”
६. महाकपि हनुमान्जी ओकरा एक मुक्का मारलखिन, जाहि सँ ओ खून के उलटी करैत पृथ्वी पर गुरैक गेल। ओ लंकिनी फेर अपना केँ सम्हारिकय उठेलक आ डरक मारे हाथ जोड़िकय विनती करय लागल। ओ बाजल –
“रावण केँ जखन ब्रह्माजी वर देने रहथिन, त जाइत घड़ी ओ हमरा राक्षस सभक विनाश केर यैह पहिचान बता देने रहथि जे – जखन तूँ बंदर के मारला सँ व्याकुल भ’ जेमें, तखन तूँ राक्षस सभक संहार भेल जानि लिहें।
हे तात! हमर बहुत पुण्य अछि जे हम श्री रामचंद्रजीक दूत (अहाँ) केँ नेत्र सँ देख पेलहुँ।
हे तात! स्वर्ग आर मोक्ष केर सब सुख केँ तराजूक एक पलड़ा पर राखल जाय, तैयो ओ सब किछु मिलाकय दोसर पलड़ा पर राखल गेल ओहि सुख केर बराबर नहि भ’ सकैत अछि जे क्षण मात्र केर सत्संग सँ होइत अछि।
अयोध्यापुरीक राजा श्री रघुनाथजी केँ हृदय मे रखने नगर मे प्रवेश कयकेँ सबटा काज करू।
ओकरा लेल विष सेहो अमृत भ’ जाइत छैक, शत्रु मित्रता करय लगैत छैक, समुद्र गाय केर खुर समान भ’ जाइत छैक, अग्नि मे शीतलता आबि जाइत छैक, आर हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत ओकरा लेल रज के समान भ’ जाइत छैक, जेकरा श्री रामचंद्रजी एक बेर कृपा कयकेँ देखि लैत छथिन।”
७. तखन हनुमान्जी बहुते छोट रूप धारण कयलनि आर भगवान् केर स्मरण कयकेँ नगर मे प्रवेश कयलनि। ओ एक-एक महल केर खोज कयलनि। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखलनि। फेर ओ रावणक महल मे गेलाह। ओ अत्यन्त विचित्र छल, जेकर वर्णन नहि भ’ सकैत अछि। हनुमान्जी ओहि रावण केँ शयन कएने देखलनि, परंतु महल मे जानकीजी नहि देखाय देलीह। फेर एक सुन्दर महल देखेलनि। ओहि मे भगवान् केर एकटा अलग मन्दिर बनायल गेल छल।
हरिः हरः!!