रामचरितमानस मोतीः राक्षस वध केर प्रतिज्ञा, सुतीक्ष्णजीक प्रेम, अगस्त्य मिलन व संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

राक्षस वध केर प्रतिज्ञा करब, सुतीक्ष्णजीक प्रेम, अगस्त्य मिलन, अगस्त्य संवाद

१. ऋषि-मुनि केँ राक्षस सब द्वारा खा लेबाक प्रसंग सुनि श्री रामजी अपन हाथ उठाकय प्रण कयलनि जे हम पृथ्वी केँ राक्षस सँ रहित कय देब। फेर समस्त मुनि लोकनिक आश्रम सब मे जा-जा कय हुनका सब केँ दर्शन एवं सम्भाषण केर सुख देलनि।

२. मुनि अगस्त्यजीक एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान, अत्यन्त ज्ञानी शिष्य रहथिन। हुनक भगवान प्रति बहुत प्रीति रहनि। ओ मन, वचन आ कर्म सँ श्री रामजीक चरणक सेवक रहथि। हुनका सपनहुँ मे कियो दोसर देवताक भरोसा नहि रहनि। सुतीक्ष्णजी जहिना प्रभुक आगमन अपन कान सँ सुनलनि, तहिना अनेकों तरहक मनोरथ करैत आतुरता सँ दौड़ि पड़लाह।

“हे विधाता! कि दीनबन्धु श्री रघुनाथजी हमरा जेहेन दुष्टक उपर दया करता? कि स्वामी श्री रामजी छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित हमरा सँ अपन सेवक जेकाँ भेटता? हमर हृदय मे दृढ़ विश्वास नहि होइछ कियैक तँ हमर मोन मे भक्ति, वैराग्य या ज्ञान किछुओ नहि अछि।”

“हम नहि त सत्संग, योग, जप अथवा यज्ञे कयलहुँ अछि आ न प्रभुक चरणकमल मे हमर दृढ़ अनुरागे अछि। हँ, दयाक भंडार प्रभुक एकटा बानि छन्हि जे जेकरा कियो दोसर के सहारा नहि छैक से हुनका प्रिय होइत छन्हि।”

३. भगवानक एहि बानि केँ स्मरण करैत मुनि आनन्दमग्न भ’ मने-मन कहय लगलाह –

“अहा! भव बंधन सँ छोड़ेनिहार प्रभुक मुखारविंद केँ देखिकय आइ हमर नेत्र सफल होयत।”

शिवजी कहैत छथि –

“हे भवानी! ज्ञानी मुनि प्रेम मे पूर्ण रूप सँ निमग्न छथि। हुनकर ओ दशा कहल नहि जाइत अछि। हुनका दिशा-विदिशा (दिशा आर ओकर कोण आदिक) आ रस्ता, किछुओ नहि सुझा रहल छन्हि। हम के छी, कतय जा रहल छी, तेकरो ज्ञान नहि रहि गेल छन्हि। ओ कखनहुँ पाछू घुमिकय फेर आगू चलय लगैत छथि आ कखनहुँ प्रभुक गुण गाबि-गाबिकय नाचय लगैत छथि। मुनि प्रगाढ़ प्रेमाभक्ति प्राप्त कय लेलनि।”

४. प्रभु श्री रामजी एकटा गाछक आड़ मे नुकाकय भक्तक प्रेमोन्मत्त दशा देखि रहल छथि। मुनिक अत्यन्त प्रेम देखिकय भवभय (आवागमनक भय) केँ हरनिहार श्री रघुनाथजी मुनिक हृदय मे प्रकट भ’ गेलाह। हृदय मे प्रभुक दर्शन पाबिकय मुनि बीच रस्ते मे अचल (स्थिर) भ’ कय बैसि रहलाह। हुनकर शरीर रोमांच सँ कटहर जेकाँ कण्टकित भ’ गेलनि। तदोपरान्त श्री रघुनाथजी हुनका लग चलिकय पहुँचलाह आ अपन भक्तक प्रेम केर ई अद्भुत दशा देखिकय मोन मे बड प्रसन्न भेलाह। श्री रामजी मुनि केँ जगबैत छथि, उठू-उठू कहैत छथि, लेकिन मुनि ओहि अन्तर्हृदयक सुन्दरतम् दर्शनक भाव मे लिप्त प्रभुक जगेलो पर नहि जगलाह। हुनका प्रभुक ध्यानक सुख प्राप्त भ’ रहल छलन्हि, ओ ओहि मे डूबल छलाह।

५. आब श्री रामजी अपन राजरूप केँ छुपा लेलनि आर हुनकर हृदय मे अपन चतुर्भुज रूप प्रकट कयलनि। अपन ईष्ट स्वरूप केर अंतर्धान होइत देरी मुनि एना व्याकुल भ’ कय उठलाह जेना श्रेष्ठ मणिधर साँप बिना मणि के व्याकुल भ’ जाइत अछि। मुनि अपना सामने सीताजी आ लक्ष्मणजी सहित श्यामसुन्दर विग्रह सुखधाम श्री रामजी केँ देखलनि। प्रेम मे मग्न भेल ओ बड़भागी श्रेष्ठ मुनि लाठी जेकाँ सीधे खसैत श्री रामजीक चरण मे लागि जाइत छथि। श्री रामजी अपन विशाल भुजा सँ पकड़िकय हुनका उठबैत छथि आ खूब प्रेमपूर्वक हृदय सँ लगबैत छथि।

६. कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुनि संग मिलन करैत एना शोभित भ’ रहला अछि मानू सोनाक वृक्ष सँ तमालक वृक्ष गला लागिकय भेटि रहल हो। मुनि (निस्तब्ध) ठाढ़ भेल (टकटकी लगाकय) श्री रामजीक मुंह ताकि रहल छथि। मानू चित्र मे लिखिकय बनायल गेल रहथि, किछु तहिना। मुनि हृदय मे धीरज धयकय बेर-बेर चरणक स्पर्श कयलनि। फेर प्रभु केँ अपन आश्रम मे ल’ जाय हुनकर अनेकों प्रकार सँ पूजा कयलनि। मुनि कहय लगलाह –

“हे प्रभो! हमर विनती सुनू। हम कोन प्रकारें अहाँक स्तुति करू? अहाँक महिमा अपार अछि आर हमर बुद्धि अल्प अछि। जेना सूर्यक सामने भगजोगनीक उजाला! हे लाल कमल केर समान नेत्र आर सुन्दर वेशक धनी! सीताजीक नेत्ररूपी चकोर केर चंद्रमा! शिवजीक हृदय रूपी मानसरोवरक बालहंस! विशाल हृदय आर भुजावला श्री रामचंद्रजी! हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी।”

“जे संशयरूपी साँप केँ ग्रसय लेल गरुड़ अछि, अत्यन्त कठोर तर्क सँ उत्पन्न होयवला विषाद केँ नाश करयवला अछि, आवागमन केँ मेटबयवला आर देवता लोकनिक समूह केँ आनन्द दयवला अछि, ताहि सब कृपाक समूह श्री रामजी सदा हमर रक्षा करथि।”

“हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इन्द्रिय सँ अतीत! हे अनुपम, निर्मल, संपूर्ण दोषरहित, अनन्त एवं पृथ्वीक भार उतारयवला श्री रामचंद्रजी! हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी।”

“जे भक्त सभक लेल कल्पवृक्षक बगीचा छी, क्रोध, लोभ, मद आर काम केँ डरबयवला छी, अत्यन्ते चतुर आर संसाररूपी समुद्र सँ तरबाक लेल सेतु रूप छी, से सूर्यकुल केर ध्वजा श्री रामजी सदा हमर रक्षा करथि।”

“जिनक भुजाक प्रताप अतुलनीय अछि, जे बल केर धाम छथि, जिनकर नाम कलियुगक बड़ा भारी पाप सब केँ नाश करयवला अछि, जे धर्मक कवच (रक्षक) छथि आर जिनकर गुणसमूह आनन्द दयवला अछि, ओ श्री रामजी निरन्तर हमर कल्याण केर विस्तार करथि।”

“हे स्वामी! अहाँ केँ जे सगुण, निर्गुण और अंतर्यामी जनैत हो, से जानय। हमर हृदय मे तँ कोसलपति कमलनयन श्री रामजी मात्र अपन घर बनाबथि। एहेन अभिमान बिसरियोकय नहि छूटय जे हम सेवक छी आर श्री रघुनाथजी हमर स्वामी छथि।”

७. मुनिक वचन सुनिकय श्री रामजी मोन मे बहुत प्रसन्न भेलाह। ओ हर्षित होइत श्रेष्ठ मुनि केँ हृदय सँ लगा लेलनि आर कहलनि – “हे मुनि! हमरा अत्यन्त प्रसन्न बुझू! जे वर मँगबाक हो से माँगू, हम वैह वर अहाँ केँ देब!”

८. मुनि सुतीक्ष्णजी कहलखिन – “हम त वर कहियो माँगबे नहि कयल, हमरा बुझहे नहि अबैत अछि जे कि झूठ आ कि सच अछि। कि माँगू आ कि नहि माँगू से बुझले नहि अछि! तेँ हे रघुनाथजी! हे दास सब केँ सुख देनिहार! अहाँ केँ जे नीक लागय सैह हमरा दिअ।”

९. श्री रामचंद्रजी कहलखिन – “हे मुने! अहाँ प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुण तथा ज्ञान केर निधान बनि जाउ।”

१०. ई सुनि मुनि बजलाह – “प्रभु जे वरदान देलहुँ से त हम पाबि लेलहुँ। आब हमरा जे नीक लगैत अछि, सेहो दिय’। हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोट भाइ लक्ष्मणजी आर सीताजी सहित धनुष-बाणधारी अपने निष्काम (स्थिर) भ’ कय हमर हृदय रूपी आकाश मे चंद्रमाक भाँति सदैव निवास करू।”

११. ‘एवमस्तु’ (एहिना हो) एना उच्चारण कय लक्ष्मीनिवास श्री रामचंद्रजी हर्षित भ’ तत्पश्चात् अगस्त्य ऋषि लग जेबाक लेल प्रस्थान कयलनि। पुनः सुतीक्ष्णजी कहैत छथिन – गुरु अगस्त्यजीक दर्शन करब आ हुनकर आश्रम जायब हमरो बहुत दिन बिति गेल अछि। आइ हमहुँ प्रभुजीक संग गुरुजी लग चलैत छी। एहि मे हे नाथ! अपने उपर हमर कोनो एहसान नहि बुझब।”

१२. मुनिक चतुरता देखिकय कृपाक भंडार श्री रामजी हुनका संग लय लेलनि आर दुनू भाइ हँसय लगलाह। रस्ता मे अपन अनुपम भक्तिक वर्णन करैत देवता लोकनिक राजराजेश्वर श्री रामजी अगस्त्य मुनिक आश्रम पर पहुँचलाह। सुतीक्ष्ण तुरंत गुरु अगस्त्य लग दण्डवत्‌ प्रणाम करैत कहलनि – “हे नाथ! अयोध्याक राजा दशरथजीक कुमार जगदाधार श्री रामचंद्रजी छोट भाइ लक्ष्मणजी आ सीताजी सहित अपने सँ भेटय आयल छथि, जिनका हे देव! अपने राति-दिन जप करैत रहैत छी।”

१३. ई सुनिते अगस्त्यजी तुरंत उठिकय दौड़ि पड़लाह। भगवान्‌ केँ देखिते देरी हुनकर नेत्र मे आनन्द आर प्रेमक नोर भरि गेलनि। दुनू भाइ मुनिक चरणकमल पर खसि पड़लाह। ऋषि उठाकय बड़ा प्रेम सँ हुनका सब केँ हृदय सँ लगा लेलनि। ज्ञानी मुनि आदरपूर्वक कुशल-क्षेम पुछिकय हुनका सब केँ श्रेष्ठ आसन पर बैसौलनि। फेर बहुतो प्रकार सँ पूजा कयकेँ कहलनि –

“हमरा समान भाग्यवान् आइ दोसर कियो नहि अछि।”

ओतय जतेक मुनिगण सब रहथि सब कियो आनन्दकन्द श्री रामजीक दर्शन कयकेँ हर्षित भ’ उठलाह।

१४. मुनि सभक समूह मे श्री रामचंद्रजी सभक दिश सम्मुख भ’ कय बैसलाह। अर्थात्‌ प्रत्येक मुनि केँ श्री रामजी अपनहि सामने मुख कयकेँ बैसल देखाइत छथि आर सब मुनि टकटकी लगौने हुनकर मुंह दिशि ताकि रहल छथि। एना बुझि पड़ैत अछि मानू चकोर केर समुदाय शरत्पूर्णिमाक चंद्रमा दिश देखि रहल हो। श्री रामजी मुनि सँ कहलनि –

“हे प्रभो! अपने सँ त कोनो बात नुकायल अछि नहि। हम जाहि कारण सँ आयल छी सेहो अपने जनिते छी। तेँ, हे तात! हम अपने सँ विस्तारपूर्वक किछु नहि कहलहुँ। हे प्रभो! आब अपने हमरा वैह मंत्र (सलाह) दिअ जाहि सँ हम मुनि लोकनिक द्रोही राक्षस सब केँ मारी।”

१५. प्रभुक वाणी सुनि मुनि विहुँसि उठलाह आर कहला –

“हे नाथ! अपने कि बुझिकय हमरा सँ ई प्रश्न कयलहुँ? हे पापसमूह केँ नाश करनिहार! हम त अपनहिक भजन केर प्रभाव सँ अपनेक थोड़-बहुत महिमा बुझल अछि।”

“अपनेक माया गुल्लैर केर गाछ जेकाँ अछि। अनेकों ब्रह्माण्डक समूह एकर फल थिक। चर आ अचर जीव (गुल्लैर के फल भीतर रहयवला छोट-छोट जन्तु सभक समान) ओहि ब्रह्माण्डरूपी फल केर भीतर बसैत अछि आर ओ अपन ताहि छोट सन जगत् केर अलावा दोसर किछुओ नहि जनैत अछि।”

“ओहि फल केर भक्षण करयवला कठिन आ कराल काल अछि। ओ काल सेहो सदा अहाँ सँ भयभीत रहैत अछि।”

“वैह अपन समस्त लोकपाल सभक स्वामी होइतो अपने हमरा सँ मनुष्य सब जेकाँ प्रश्न कयलहुँ।”

“हे कृपाक धाम! हम त ई वर माँगैत छी जे अहाँ श्री सीताजी आर छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित हमर हृदय मे सदिखन निवास करू। हमरा प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, सत्संग आर अपनेक चरणकमल मे अटूट प्रेम प्राप्त हुए।”

“यद्यपि अपने अखंड और अनंत ब्रह्म थिकहुँ, जे अनुभवहि सँ बुझय मे आबि जाइत अछि आर जिनका सन्तजन सब भजन करैत छथि, यद्यपि हम अहाँक एहेन रूप केँ जनैत छी आर ओकर वर्णन सेहो करैत छी, तैयो घुमि-फिरि कय हम सगुण ब्रह्म (अपनेक एहि सुन्दर स्वरूप) मात्र सँ प्रेम मानैत छी। अपने सेवक लोकनि केँ सदैव बड़ाई देल करैत छी, ताहि लेल हे रघुनाथजी, अहाँ हमरा सँ प्रश्न पुछलहुँ अछि।”

हरिः हरः!!