मैथिली धारावाहिकः हम आबि रहल छी
– रबीन्द्र नारायण मिश्र
(समाजमे बूढ़क दुखद स्थितिक जीवन्त चित्रण करैत उपन्यास)
1
हमरा जखन होस आएल तँ हम सफदरजंग अस्पतालक शायिकापर पड़ल रही । चारूकातसँ कैकगोटे घेरने रहए । ओहिमे किछु डाक्टर,सिस्टर,अस्पतालक कर्मचारी आ दूटा पुलिस सामिल छल। मोन होअए जे पुछिऐक जे बात की छैक? मुदा बाजले नहि होअए। जतबा काल होस रहए एही गुनधुनमे रही । ताधरि डाक्टरसभ हमरा किछु दबाइ देलक आ एकटा सुइआ सेहो बामा बाँहिमे लगा देलक। तकरबाद जे हम फोंफ काटए लगलहुँ से एकहि बेर चारिबजेक आसपास आँखि खुजल । चारूकात मुड़ी घुमओलहुँ । कतहु केओ नहि रहए । हमरा पिआससँ कंठ सुखाइत छल। अपनेसँ उठल नहि होइत छल । संयोगसँ बगलबला रोगीक संगे आएल एकटा अधबयसु सामनेमे पड़लाह । हम हुनका इसारासँ पानि आनि देबाक हेतु कहलिअनि । ओ हमर बात बूझलनि । अपना संगसँ पानिक बोतलमेसँ एक गिलास पानि हमरा दिस बढ़ा देलनि । हम एकहि बेरमे सौंसे गिलासक पानि पिबि गेलहुँ । जानमे-जान आएल । भेल जे किछु पुछिअनि । मुदा हम किछु बजितहुँ ताहिसँ पहिने डाक्टरसभक हुजुम आबि गेलैक । प्रहरीसभ बाहरी आदमीसभकेँ कोठरीसँ बाहर कए देलकैक ।
डाक्टरसभ हमरा तरह-तरहसँ देखलक । हाथ, पैर, छाती सौंसे तँ किछु-किछु लागले रहए । किछु आओर यंत्रसभ लगबा देलक । अपनासभमे कहि ने की-की बतिआएल आ सहटि कए दोसर रोगी दिस चलि गेल । दोसर रोगी एकदम युवती, देखबामे बहुत सुंदरि छलीह । हुनका लग एकटा अधबयसू पुरुख रहनि । ओएह कखनो काल हमरो दिस घुसकि जाइत छल । कैकबेर बंगालीमे हमरासँ किछु-किछु पुछलक। हम की जाने गेलिऐक बंगालीमे ओ की बकि रहल अछि ? हमर जबाब नहि पाबि ओ उदास भए जाइत छल, बजनाइ छोड़ि कए माथपर हाथ धए लैत छल । मुदा तैओ फेर-फेर हमरा दिस अबैत रहैत छल ।
डाक्टरसभ ओकरो देखलकैक आ आगू बढ़ि गेल । ओसभ बेरा-बेरी ओहि कोठरीमे सभ रोगीकेँ देखलक आ आपसमे गप्प करैत दोसर कोठरीमे चलि गेल । जखन डाक्टरसभ ओहि कोठरीसँ बाहर भए गेल तँ ओ फेर हमरा लग आएल । कहलक – “हम छी दीपेंदु” आ फेरसँ बंगालीमे शुरु भए गेल । ओकर जबाब हम फेर नहि दए सकलिऐक । मुदा अपना भरि इसारासँ कहलिऐक जे बंगाली छोड़ि किछु आओर बाजए । इसारा ओ बुझैक नहि, हमरा बंगाली बाजल होअए नहि । तेँ बात ओतहिकेँ ओतहि रहि गेल । ताबते एकटा सिस्टर आएलि । हमर शायिका लग टांगल कागजसभ पढ़लक । फेर पुछैत अछि-
“अहाँ संगे के अछि?”
बहुत मोसकिलसँ हम कहि सकलिऐक-
“केओ नहि।”
“तखन एतए के अनलक?”
हम टुकुर-टुकुर आकाश दिस देखैत रहि गेलहुँ ।
संभवतः ओकरा किछु कहबाक रहैक, किंवा किछु दबाइ मंगेबाक रहैक । मुदा जखन केओ रहबे नहि करए तँ ओ की करैत?
सिस्टरकेँ परेसान देखि दीपेंदु पुछलकैक- “की बात छैक?”
“हिनकर स्थिति आब ठीक छनि । हिनका आइ अस्पतालसँ छुट्टी करबाक छैक ।
“तँ दिक्कति की छैक?”
“हिनका संगे केओ छनिहे नहि । ककरा की बुझेबैक? मास दिन दबाइ खेबाक छनि । तकरबाद फेर अस्पताल आबि देखबए पड़तनि ।”
“अहाँ चिंता नहि करू । हमरा कहू जे की करबाक छैक।”
“ठीक छैक । हम डाक्टर साहेबसँ गप्प करैत छी ।”
सिस्टर चोट्टे डाक्टर साहेब लग गेल । हुनका संगे दीपेंदु सेहो गेल । दीपेंदुकेँ बाहरे ठाढ़ कए सिस्टर डाक्टर साहेबकेँ सभ बात कहलकनि । डाक्टर साहेब दीपेंदुकेँ बजेलखिन । दीपेंदु डाक्टर साहेबकसँ गप्प केलथि । जे-जे ओ कहलखिन से सुनलक। डाक्टर साहेब आश्वस्त भए गेलथि । सिस्टरकेँ कहलखिन- “हिनकासँ कागजसभपर दस्तखत करबा लिअ आ बूढ़ाकेँ अस्पतालसँ छुट्टी कए दिअनु ।”
अस्पतालसँ छुट्टी भेटलाक बाद हम दीपेंदु संगे निकललहुँ। हमरा अस्पतालक मुख्यद्वारि लग ठाढ़ कए ओ कहैत छथि-
“अहाँ एतहि रहू । हम दीपाकेँ लेने अबैत छी।”
हम हुनका पुछए चाहलिअनि जे दीपा के? मुदा ताहिसँ पहिने ओ आगू बढ़ि गेलाह । हम कनीकाल ओतहि ठाड़ रहि गेलहुँ। लोक अबैत-जाइत रहल । मुदा दीपेंदु नहि अएलाह । द्वारिपर ठाढ़ भेल-भेल मोनमे कोनादनि लागि रहल छल । आखिर आगू बढ़लहुँ । कनीके फटकी एकटा आटोरिक्सा भेटल । हम ओकरा रुकबाक हेतु इसारा करैत छी । आटोरिक्साबला पुछैत अछि-
“कतए जेबैक बाबा?”
“पुष्पविहार सेक्टर एक।”
“ओ! ”
“कतेक पाइ लेबहक।”
“चलू ने जे वाजिब हेतैक से दए देबैक ।”
आटोरिक्सा बलाकेँ मैथिलीमे बजैत सुनि हम बहुत आश्वस्त भेलहुँ । हम निधोख आटोरिक्सापर बैसि गेलहुँ । हम आटोरिक्सापर बैसले छलहुँ कि लागल जेना केओ हाक दए रहल अछि । पाछू घुमि कए देखैत छी । दीपेंदु ओही महिलाक संगे ठाढ़ रहथि । हम आटोबलाकेँ रोकबाक प्रयास केलहुँ । मुदा ओ अपने धुनमे मस्त छल । आटोरिक्सा तेजीसँ आगू बढ़ि गेल ।
आटोरिक्साबला गाना बजओलक – “कखन हरब दुख मोर हे भोला बाबा…….” आ आटो चला देलक । हम मोने मोन सोचैत छी-इहो पकिआ मैथिल बुझाइत अछि ।
जेना ओ हमर मोनक बात बूझि गेल होअए ।
ओ पुछैत अछि-
“अहाँक घर कतए भेल बाबा?”
“दरभंगासँ सटले ।”
“कोन गाम?”
“हरिआरी”
“हमहु ओमहरेक छिऐक ।”
“कोन गाम?”
रिक्साबला किछु नहि बाजल ।
हमहु फेर नहि पुछलिऐक । थोड़बेकालमे पुष्पविहार सेक्टर एक आबि गेल । सड़कसँ सटले बामाकात हमर डेरा छल। हम आटोसँ उतरि तँ गेलहुँ मुदा आगू जाएब कोना? आटोबला ई बात बुझलक। हम ओकरा सीढ़ी दिस इसारा केलिऐक । पहिल तलपर स्थित हमर डेरा ओ पहुँचा देलक ।
डेरा भम्म पड़ि रहल छल । कतहु केओ नहि छल । आटोबला बात बूझि गेल ।
“अहाँ एसगरे एहन हालतमे कोना रहबैक?”
हम किछु जबाब नहि दए सकलिऐक। की कहितिऐक? एकटा पर्चीपर अपन नाम, मोबाइल नंबर सभ लिखि देलक। हम ओहि पर्चीकेँ सम्हारि कए राखि लैत छी । जाइत-जाइत ओ कहैत अछि-
“हमर डेरा लगीचेमे अछि । जखन कखनो काज होअए हमरा फोन कए देब ।”
से कहि ओ चलि गेल । बड़ी काल धरि हम कृतज्ञतासँ ओकरा दिस तकैत रहलहुँ । फेर पर्चीमे लिखल ओकर नाम पड़ैत छी- “गंगा, ग्राम सकरबार, जिला मधुबनी मोबाइल नंबर….२३४।”
आटोरिक्साबला चलि गेल । हम ओछाओनपर बैसल-बैसल सोचैत रहलहुँ । भने गामपर छलहुँ । ककरो पमौजी तँ नहि छल । कम सं कम अपन समाजक बीचमे रही । एहिठाम तँ केओ नहि । जँ मरिओ जाएब तँ लोककेँ पता नहि लगतैक । जहन एहन बात रहैक तँ शंकरकेँ हमरा बजेबेक नहि चाहैक छलनि । हमरा जँ ओ बजेबो केलाह तँ हुनकर बात मानक नहि चाहैक छल । कम सँ कम गाममे एहन हालत तँ नहिए होइत । मुदा आब की करी? जखन आबिए गेल छी तँ अपना मोने वापसो नहि जा सकैत छी । किछु दिन रहि जाइ । हुनका लोकनिकेँ वापस आबए दिअनि । ओना तँ कहि गेल रहथि जे तीन-चारि दिनमे गोआसँ लौटि जेताह। पहिनेसँ टिकट कटल रहनि । तेँ गेनाइ अनिवार्य छनि नहि तँ सभटा टाका बुरि जेतनि । हबाइ जहाजसँ होटल धरि सभटाक ओरिआन कएल छनि । हम कहनो रहिअनि – “हम तँ अहाँक कहलेपर आएल रही । जँ अहाँसभकेँ कतहु जेबाक रहए तँ पहिने कहि दितहुँ । हम बादमे अबितहुँ किंवा जे करितहुँ।”
मुदा ओ चुप रहि गेलाह । भोरमे ओ सभ गेलाह आ दुपहरिआमे हमर हारनिआ उतरि गेल । दर्दसँ छटपट कए रहल छलहुँ । कहि नहि के आ कोना हमरा अस्पताल लए गेल?
हम इएहसभ सोचि रहल छलहुँ कि खटके आबाज भेल । केओ केबार लग ठाढ़ छल । हम किछु पुछितिएक ताहेसँ पहिने एकबेर फेर खट-खटक आबाज भेल । केबार खुजले रहैक । ओ आदमी बिना कोनो प्रतीक्षाकेँ अंदर आबि गेल ।
“दीपेंदु… ।”- हम बजैत छी ।
“हम तँ थोड़बे कालमे वापस आबि गेल रही । ताबतेमे अहाँकेँ एकटा आटोरिक्सापर चढ़ैत देखलहुँ । हम बहुत हल्ला केलहुँ । मुदा आटो ठाढ़ नहि भेल । आखिर हम अहाँक पाछू-पाछू बिदा भेलहुँ ।
“भेल जे नाहक अहाँकेँ परेसान कए रहल छी । संयोगसँ हमरा एकटा आटोबला तुरंते भेटि गेल । हमरे गाम दिसका लोक छल । ओएह एतए छोड़ि गेल ।”
“एहिमे परेसानीक कोन बात रहैक । हमरा तँ एतए अएबेक छल ।”
“से कोना?”
“हमर डेरा एहि फ्लैटक पछुअतिमे अछि ।”
“तँ की अहीं हमरा अस्पताल लए गेल रही?”
“नहि, नहि । हम तँ अस्पतालेमे रही ।”
“से किएक?”
“सुनलिऐक जे दीपा दुखित अछि । ओकरे देखबाक हेतु गेल रही।”
“ओ अहाँक. ।”
“ओ हमरे संगे काज करैत छथि । असलमे…”
“की?”
“हम, शंकर आ दीपा एकहि कार्यालयमे काज करैत छी।”
“हम तँ सुनने रहिऐक जे शंकरक पत्नी सेहो ओकरे संगे काज करैत छथिन ।”
“पहिने काज करैत रहथिन । मुदा आब दोसर ठाम चलि गेलखिन ।”
“मुदा हमरा अस्पताल के लए गेल छल?”
“से तँ हमरो नहि बूझल अछि । अहाँ एहिठाम असगरे कोना रहब?”
“मुदा उपाय की अछि?”
“हमरा डेरापर चलू । जखन शंकर आबि जेताह तँ चलि आएब ।”
“हम कतए-कतए जाएब? हमरा तँ गाम पहुँचा दितहुँ ।”
“शंकरकेँ परोक्षमे गाम गेनाइ ठीक होएत?”
“ठीक-बेठीकक बात की करैत छी? जँ से बात होइतैक तँ हमरा एतए बजा कए ओ अपने कतहु किएक चलि जइतथि?”
दीपेंदु बहुत प्रयास केलाह जे हम हुनके संगे रहि जाइ आ जखन शंकर आबि जेताह तखन वापस एहिठाम चलि आएब । मुदा हमरा मोन नहि मानलक । हम कतहु नहि गेलहुँ ।
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(श्री रबीन्द्र नारायण मिश्र लिखित उपन्यास पर आधारित ई धारावाहिक लेख प्रवासी मैथिल समाजक आग्रह पर मैथिली जिन्दाबाद पर चेप्टर अनुसार क्रमिक रूप सँ प्रकाशित कयल जा रहल अछि।)