रामचरितमानस मोतीः सुमंत्रक अयोध्या वापसी आ जहिं-तहिं शोक के नजारा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

सुमंत्रक अयोध्या वापसी आ सर्वत्र शोक देखब

१. मंत्री आर घोड़ाक ओहेन दशा देखि निषादराज विषादक वश भ’ गेलाह। तखन ओ अपन चारि उत्तम सेवक केँ बजाकय सारथीक संग कय देलनि। निषादराज गुह सारथी (सुमंत्रजी) केँ विदा कयकेँ घुरि गेलाह। हुनक विरह आर दुःख केर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि।

२. ओ चारू निषाद रथ लय कय अवध लेल चलि देलथि। सुमंत्र आ घोड़ा केँ देखि-देखिकय ओहो सब क्षण-क्षण भरि विषाद मे डुबि जाइत छलथि।

३. व्याकुल आर दुःख सँ दीन भेल सुमंत्रजी सोचैत छथि जे श्री रघुवीर के बिना जिनाय धिक्कार अछि। आखिरकार ई अधम शरीर त नहिये रहत, तखन श्री रामचन्द्रजीक बिछुड़िते ई छूटिकय यश कियैक नहि पाबि लैत अछि! ई प्राण अपयश और पाप के भाँड़ भ’ गेल। आब ई कोन कारण सँ नहि निकलैत अछि? हाय! नीच मन एतेक नीक मौका चूकि गेल। आबो हृदयक दुइ टुकड़ा कियैक नहि होइत अछि!

४. सुमंत्र हाथ मलि-मलिकय आर माथ पीटि-पीटिकय पछताइत छथि। मानू कोनो कंजूस धन के खजाना हेरा बैसल हो।

५. ओ एहि तरहें चलला मानू कोनो पैघ योद्ध वीर के बाना पहिरिकय आ उत्तम शूरवीर कहाइतो युद्ध सँ भागि चलल हो! जेना कोनो विवेकशील, वेद के ज्ञाता, साधुसम्मत आचरण वला आर उत्तम जाति के कुलीन ब्राह्मण धोखा सँ मदिरा पी लियए आर पाछू पछताय, ताहि प्रकारे मंत्री सुमंत्र सोच कय रहल छथि, पछता रहल छथि।

६. जेना कोनो उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव के, समझदार और मन, वचन, कर्म सँ पति मात्र केँ देवता मानयवाली पतिव्रता स्त्री केँ भाग्यवश पति केँ छोड़िकय पति सँ अलग रहय पड़य, ताहि समय ओकर हृदय मे जेना भयानक संताप होइत छैक, तहिना मंत्रीक हृदय मे भ’ रहल छन्हि।

७. नेत्र मे जल भरल छन्हि, दृष्टि मंद भ’ गेल छन्हि। कान सँ किछु सुनाय नहि पड़ैत छन्हि, व्याकुल बुद्धि बेठेकान भ’ रहल छन्हि। ठोर सुखा रहल छन्हि, मुंह मे लाटी लागि गेल छन्हि, मुदा ई सबटा मृत्युक लक्षण भेलो पर प्राण नहि निकलैत छन्हि, कियैक त हृदय मे अवधरूपी केबाड़ लागल छन्हि। अर्थात् चौदह वर्ष बित गेला पर भगवान् फेर भेटता, यैह आशा रुकावट बनल छन्हि।

८. सुमंत्रजीक मुंहक रंग बदलि गेल छन्हि, जे देखल तक नहि जा रहल अछि। एना बुझाइत अछि मानू ओ माता-पिता केँ मारि देने होइथ। हुनका मोन मे रामवियोग रूपी हानि के महान ग्लानि (पीड़ा) एना छा गेल अछि, जेना कोनो पापी मनुष्य नरक केँ जाइत काल रास्ता मे सोच कय रहल हो।

९. मुँह सँ वचन नहि निकलैत अछि। हृदय मे पछतावा अछि जे हम अयोध्या जाय कय कि देखब? श्री रामचन्द्रजी से शून्य रथ केँ जेहो कियो देखत ओ हमरा देखय मे लाजे मानत, यानि हमर मुंह नहि देखय चाहत। नगर के सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जखन दौड़िकय हमरा सँ पुछत, तखन हम हृदय मे वज्र राखिकय सब केँ उत्तर देबय। जखन दीन-दुःखी सब माता लोकनि पुछती, तखन हे विधाता! हम हुनका कि कहबनि? श्री रामजीक माता जखन एहि तरहें दौड़ल अओती जेना नव बियाअल गाय बच्छा केँ याद कय दौड़ैत अछि, तखन हुनका पुछला पर हम हुनका ई उत्तर देब जे श्री राम, लक्ष्मण, सीता वन लेल चलि गेलाह। जे कियो पुछत ओकरा यैह उत्तर दियए पड़त। हाय! अयोध्या जाय आब हमरा यैह सुख लेबाक अछि। जखन दुःख सँ दीन महाराज, जिनकर जीवन श्री रघुनाथजीक दर्शनहि केर अधीन अछि, हमरा सँ पुछता, तखन हम कोन मुंह सँ हुनका उत्तर देबनि जे हम राजकुमार केँ कुशलपूर्वक पहुँचा एलहुँ। लक्ष्मण, सीता आ श्रीराम केर समाचार सुनिते महाराज तिनका समान शरीर त्यागि देताह। प्रियतम (श्री रामजी) रूपी जल केर बिछुड़िते हमर हृदय थाल जेकाँ नहि फाटल ताहि सँ हम जनैत छी जे विधाता हमरा ई यातना शरीर देलनि अछि जे पापी जीव सब केँ नरक भोगय लेल भेटैत छैक।

१०. सुमंत्र एहि तरहें रस्ता मे अबैत समय पछतावा कय रहल छलथि, एतबा मे रथ तुरन्त तमसा नदीक तट पर पहुँचि गेल। मंत्री विनय कय केँ चारू निषाद अरियतिया केँ घुरौलनि। ओ सब विषाद सँ व्याकुल होइत सुमंत्रक पैर छुबिकय घुरि गेलाह।

११. नगर मे प्रवेश करिते मंत्री ग्लानिक कारण एना सकुचाइत छथि, मानू गुरु, ब्राह्मण या गाय केँ मारिकय आयल होइथ। भैर दिन एकटा गाछक नीचाँ बैसिकय बितौलनि। जखन साँझ पड़ल तखन मौका देखलनि। अन्हार भेलाक बाद ओ अयोध्या मे प्रवेश कयलनि आ रथ केँ दरबज्जे पर ठाढ़ कय केँ ओ चुपचाप महल भीतर प्रवेश कयलनि।

१२. जे-जे लोक सब ई समाचार सुनि पेलाह, ओ सब रथ देखय राजद्वार पर अयलाह। रथ केँ चिन्हिकय आ घोड़ा सब केँ व्याकुल देखिकय हुनको सभक शरीर एना गलल जा रहल छन्हि जेना घाम मे ओला (बरफ) पिघलल करैत अछि। नगर भरिक स्त्री-पुरुष केना व्याकुल छथि, जेना जल घटि गेला उपरान्त मछरी सब व्याकुल होइत अछि।

१३. मंत्री केर अकेले एबाक बात सुनि सारा रनिवास व्याकुल भ’ उठल। राजमहल हुनका एना भयानकल लागय लगलनि मानू प्रेत के निवास स्थान श्मसान हो। अत्यन्त आर्त भ’ सब रानी पुछैत छथि, लेकिन सुमंत्र केर कोनो उत्तर नहि अबैछ, हुनकर वाणी विकल भ’ रुकि गेल अछि। नहि कान सँ सुनैत छथि, नहि आँखि सँ सुझाइत छन्हि। ओ जे कियो सामने अबैत अछि, ओकरे सब सँ पुछैत छथि जे कहू राजा कतय छथि?

१४. दासी सब मंत्री केँ व्याकुल देखि हुनका कौसल्याजीक महल मे लयकय गेलीह। सुमंत्र ओतय पहुँचि राजा केँ केना बैसल देखलनि मानू बिना अमृत के चन्द्रमा होइथ। राजा आसन, शय्या और आभूषण सब सँ रहित बिलकुल मलिन (उदास) पृथ्वी पर पड़ल छथि। ओ लम्बा साँस लय एहि तरहें सोच करैत छथि मानू राजा ययाति स्वर्ग सँ खसिकय सोच कय रहल होइथ। राजा क्षण-क्षण मे सोच सँ छाती भरि लैत छथि। एहेन विकल दशा अछि मानू गीधराज जटायुक भाइ सम्पाती पाँखि जरि गेला सँ खसि पड़ल होइथ। राजा बेर-बेर ‘राम-राम’, ‘हा स्नेही राम!’ कहैत छथि, फेर ‘हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी’ एना कहय लगैत छथि।

हरिः हरः!!