रामचरितमानस मोतीः प्रयाग पहुँचब, भरद्वाज संवाद, यमुनातीरक निवासी लोकनिक प्रेम

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

प्रयाग पहुँचब, भरद्वाज संवाद, यमुनातीरक निवासी लोकनिक प्रेम

१. प्रभु श्री रघुनाथजी गणेशजी और शिवजीक स्मरण कयकेँ गंगाजी केँ मस्तक नमा सखा निषादराज, छोट भाइ लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन लेल चलि पड़लाह। ओहि दिन गाछक नीचाँ निवास भेलनि। लक्ष्मणजी और सखा गुह विश्रामक सब सुव्यवस्था कय देलखिन्ह। प्रभु श्री रामचन्द्रजी सबेरे प्रातःकाल केर सब क्रिया कयकेँ तीर्थक राजा प्रयाग केर दर्शन कयलनि।

२. ओहि प्रयागराजक सत्य मंत्री थिकन्हि, श्रद्धा प्रिय स्त्री थिकन्हि और श्री वेणीमाधवजी समान हितकारी मित्र थिकन्हि। चारि पदार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) सँ भंडार भरल छन्हि आर ओ पुण्यमय प्रांते हुनक सुन्दर देश थिकन्हि।

३. प्रयाग क्षेत्र दुर्गम, मजबूत आर सुन्दर गढ़ (किला) छन्हि, जेकरा सपनहुँ मे पापरूपी शत्रु नहि पाबि सकैत अछि। संपूर्ण तीर्थ जेकर श्रेष्ठ वीर सैनिक हो, ओ पाप केर सेना केँ कुचलयवला अत्यन्त रणधीर छथि।

४. गंगा, यमुना और सरस्वतीक संगम हुनक अत्यन्त सुशोभित सिंहासन छन्हि। अक्षयवट छत्र छन्हि जे मुनि लोकनिक मोन केँ सेहो मोहि लैत अछि।

५. यमुनाजी और गंगाजीक तरंग हुनक श्याम आर श्वेत चँवर छन्हि, जे देखिकय दुःख और दरिद्रता नष्ट भ’ जाइत अछि।

६. पुण्यात्मा, पवित्र साधु हुनकर सेवा करैत अछि आर सब मनोरथ पबैत अछि। वेद आर पुराण केर समूह भाट अछि, जे हुनकर निर्मल गुणगणक बखान करैत अछि।

७. पाप केर समूहरूपी हाथी केँ मारबाक लेल सिंहरूप प्रयागराजक प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) के कहि सकैत अछि! एहेन सोहाओन तीर्थराजक दर्शन कय सुख केर समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी बहुते सुख पेलनि। ओ अपन श्रीमुख सँ सीताजी, लक्ष्मणजी और सखा गुह केँ तीर्थराज केर महिमा कहिकय सुनौलनि। तदनन्तर प्रणाम कयकेँ, वन और बगीचा सब देखैत बड़ा प्रेम सँ माहात्म्य कहिते श्री राम आगू बढैत त्रिवेणीक दर्शन कयलनि, जे स्मरण कयला सँ मात्र सबटा सुन्दर मंगल दयवला अछि। फेर आनन्दपूर्वक त्रिवेणी मे स्नान कय केँ शिवजीक सेवा (पूजा) कयलनि आर विधिपूर्वक तीर्थ देवता सभक पूजन कयलनि।

८. स्नान, पूजन आदि सब कयकेँ प्रभु श्री रामजी भरद्वाजजी लग पहुँचलाह। दण्डवत करैत देरी मुनि हुनका हृदय सँ लगा लेलनि। मुनिक मनक आनन्द किछु कहल नहि जाइछ। मानू हुनका ब्रह्मानन्द केर राशि भेटि गेल होइन्ह।

९. मुनीश्वर भरद्वाजजी हुनका खूब आशीर्वाद देलनि। हुनकर हृदय मे ई जानि बड आनन्द भेलनि जे आइ विधाता श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजीक दर्शन कराकय मानू हमर सम्पूर्ण पुण्य केर फल आँखिक सोझाँ राखि देलनि अछि।

१०. कुशल पुछिकय मुनिराज हुनका आसन देलनि आर प्रेम सहित पूजन कयकेँ हुनका संतुष्ट कय देलनि। फेर मानू अमृतहि सँ बनल हो, तेहेन नीक-नीक कन्द, मूल, फल आ अंकुर केर भोजन आनिकय परसि देलनि। सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह सहित श्री रामचन्द्रजी ओहि सुन्दर मूल-फल केँ खूब रुचि सँ खेलनि। थकावट दूर भेला सँ श्री रामचन्द्रजी सुखी भ’ गेलाह।

११. तखन भरद्वाजजी हुनका सँ कोमल वचन कहलथि – हे राम! अहाँक दर्शन करिते आइ हमर तप, तीर्थ सेवन और त्याग सफल भ’ गेल। आइ हमर जप, योग और वैराग्य सफल भ’ गेल आर आइ हमर सम्पूर्ण शुभ साधनक समुदाय सेहो सफल भ’ गेल। लाभ केर सीमा आर सुख केर सीमा प्रभुक दर्शन केँ छोड़ि आर दोसर किछुओ नहि होइछ। अपनेक दर्शन सँ हमर सबटा आशा पूर्ण भ’ गेल। आब कृपा कयकेँ ई वरदान दिअ जे अपनेक चरणकमल मे हमरा स्वाभाविक प्रेम हुए। जाबत धरि कर्म, वचन और मन सँ छल छोड़िकय मनुष्य अहाँक दास नहि भ’ जाइत अछि, ताबत धरि करोड़ों उपाय कयलो सँ सपनहुँ मे ओ सुख नहि पबैत अछि।

१२. मुनिक वचन सुनिकय, हुनकर भाव-भक्तिक कारण आनन्द सँ तृप्त भेल भगवान श्री रामचन्द्रजी लीलाक दृष्टि सँ सकुचा गेलाह। तखन अपन ऐश्वर्य केँ नुकबिते श्री रामचन्द्रजी भरद्वाज मुनिक सुन्दर सुयश करोड़ों (अनेकों) प्रकार सँ कहिकय सब केँ सुनौलनि। ओ कहय लगलाह – हे मुनीश्वर! जिनका अहाँ आदर दी वैह पैघ अछि आ वैह सब गुणसमूहक घर अछि। एहि तरहें श्री रामजी और मुनि भरद्वाजजी दुनू परस्पर विनम्र भ’ रहल छथि आ अनिर्वचनीय सुख केर अनुभव कय रहल छथि।

१३. श्री राम, लक्ष्मण और सीताजीक एबाक खबरि पाबि प्रयाग निवासी ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि, सिद्ध और उदासी सब श्री दशरथजीक सुन्दर पुत्र लोकनि केँ देखय लेल भरद्वाजजीक आश्रम पर एलाह। श्री रामचन्द्रजी सब गोटा केँ प्रणाम कयलनि। नेत्रक लाभ पाबिकय सब आनन्दित भ’ गेलाह आर परम सुख पाबि आशीर्वाद दियए लगलाह। श्री रामजीक सौन्दर्यक सराहना करैत ओ सब लौटि गेलाह।

१४. श्री रामजी राति ओतहि विश्राम कयलनि आर प्रातःकाल प्रयागराजक स्नान कयकेँ प्रसन्नताक संग मुनि केँ सिर नमाकय श्री सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह संग चलि पड़लाह। चलैत समय बड़ा प्रेम सँ श्री रामजी मुनि सँ कहलखिन – हे नाथ! बताउ जे हम कोन रस्ते आगू बढी।

१५. मुनि मनहि-मन हँसैत श्री रामजी सँ कहैत छथिन जे अहाँक लेल सब मार्ग सुगम अछि। फेर हुनका संग देबाक लेल शिष्य सब केँ बजौलनि, संग जेबाक बात सुनिते चित्त मे हर्षित होइत लगभग पचास टा शिष्य ओतय आबि गेलाह। सभक श्री रामजी पर अपार प्रेम छन्हि। सब कहैत छथि रस्ता हमरा देखल अछि त हमरा देखल अछि। तखन मुनि स्वयं चुनिकय चारि गोट ब्रह्मचारी केँ संग कय देलनि, जे बहुत जन्म धरि सबटा सुकृत मात्र कएने रहथि।

१६. श्री रघुनाथजी प्रणाम कय ऋषिक आज्ञा पाबि हृदय मे बड़ा आनन्दित भ’ कय चलि देलाह। जखन ओ कोनो गाम लग देने निकलैत छलथि त स्त्री-पुरुष सभक झुन्ड दौड़ि-दौड़ि हुनक रूप देखय आबि गेल करथि। जन्मक फल पाबि सब दिनक अनाथ ओ सब सनाथ भ’ जाइत छथि आ मोन केँ नाथ संग पठा शरीर सँ संग नहि रहबाक कारण दुःखी भ’ घुरि अबैत छथि। तदनन्तर श्री रामजी विनती कयकेँ चारू ब्रह्मचारी लोकनि केँ विदा कयलनि, ओहो सब मनचाहा वस्तु (अनन्य भक्ति) पाबिकय घुरि गेलाह।

१७. यमुनाजीक पार उतरिकय ओ सब यमुनाजीक जल मे स्नान कयलनि, जे श्री रामचन्द्रजीक शरीरहि समान श्याम रंग के छल। यमुनाजीक किनारपर रहनिहार स्त्री-पुरुष ई सुनिकय जे निषादक संग दुइ परम सुन्दर सुकुमार नवयुवक आ एक परम सुन्दरी स्त्री आबि रहल छथि, सब अपन-अपन काज बिसरिकय दौड़ि गेलथि। लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजीक सौन्दर्य देखि सब कियो अपन भाग्य केर बड़ाई करय लगलथि। हुनका सभक मोन मे परिचय जनबाक बहुतो रास लिलसा भरल छल। मुदा ओ नाम-गाम पुछैत लजाइत छथि। हुनका सब मे जे वयोवृद्ध आ चतुर रहथि, ओ सब युक्ति सँ श्री रामचन्द्रजी केँ चिन्हि गेलथि। वैह लोकनि सब केँ हिनक सब कथा सुनौलनि जे कोना ओ पिताक आज्ञा पाबि वन लेल चलि देलनि अछि। ई सुनि सब लोक दुःखी भ’ पछता रहल छथि रानी आ राजा नीक नहि कयलनि।

हरिः हरः!!