स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
केवटक प्रेम आर गंगा पार जायब
१. जिनक वियोग मे पशु एहि तरहें व्याकुल अछि, हुनक वियोग मे प्रजा, माता आर पिता केना जियैत रहता? श्री रामचन्द्रजी जबर्दस्ती सुमंत्र केँ लौटेलनि आ तदोपरान्त ओ गंगाजीक तीर पर अयलाह। ओतय ओ केवट सँ नाव मंगबौलनि, मुदा ओ नाव लय कय नहि अबैछ। ओ कहय लागल –
“हम अहाँक मर्म जानि गेलहुँ। अहाँक चरणकमलक धूलकणक बारे मे लोक सब कहैत अछि जे ई मनुष्य बनबयवला कोनो जड़ी छी जेकरा छुआइते पाथरक शिला सुन्दर स्त्री बनि गेल छल। हमर नाव त काठ के छी। काठ पाथर जेहेन कठोर त नहि होइत छैक। हमरो नाव कहीं मुनिक स्त्री जेकाँ स्त्री बनि जायत तखन? हमर त नाउवे उड़ि जायत, हम लुटा जायब, हमर सब रास्ता रुकि जायत, जाहि सँ अहाँ पारो नहि भ’ सकब आ हमर रोजी-रोटी सेहो मारल जायत। हमर कमाय-खाय के सबटा बाट बन्द भ’ जायत। हम त एहि नाव सँ पूरा परिवार के पालन-पोषण करैत छी। दोसर कोनो काजो-धंधा नहि जनैत छी। हे प्रभु! जँ तैयो अहाँ पार जाय लेल चाहैत छी त पहिने हमरा अपन चरणकमल पखारय दिअ।”
छन्द:
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
“हे नाथ! हम चरण कमल धो’कय अपने सब केँ नाव पर चढ़ा लेब। हम अहाँ सँ किछुओ उतराई नहि चाहैत छी। हे राम! हमरा अपनेक दोहाइ आ दशरथजीक शपथ अछि। हम सब सच-सच कहैत छी। लक्ष्मण भले हमरा तीरे मारथि, लेकिन जाबत हम पैर नहि पखारब, ताबत धरि हे तुलसीदासक नाथ, हे कृपालु! हम पार नहि उतारब।”
२. केवटक प्रेम मे लपेटल अटपटा बात सुनिकय करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी दिश ताकिकय हँसय लगलाह। कृपाक समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट सँ विहुँसिकय कहलखिन –
“अरे भाइ! तूँ वैह करह जाहि सँ तोहर नाव नहि जाह। जल्दी जल लाबह आर पैर सेहो धो लह। देरी भ’ रहल अछि, पार जल्दी उतारह।”
३. एक बेर जिनकर नाम स्मरण करित मनुष्य अपार भवसागर के पार उतरि जाइत अछि आर जे वामनावतार मे जगत केँ तीनोटा डेग सँ छोट कय देने रहथि, दुइये डेग मे त्रिलोकी केँ नापि लेने रहथि, वैह कृपालु श्री रामचन्द्रजी गंगाजी सँ पार उतारबाक लेल केवट केँ निहोरा कय रहल छथि।
४. प्रभुक एहि वचन केँ सुनिकय गंगाजीक बुद्धि मोहित भ’ ओम्हरहि खिंचा गेल छलन्हि। ओ सोचय लागल छलीह जे ई साक्षात् भगवान रहितो पार उतारय लेल केवट केँ निहोरा केना कय रहल छथि। मुदा जखन भगवान् नजदीक अयलथि आ गंगाजी अपन उत्पत्तिक स्थान अर्थात् भगवानक चरणनख (पैरक नह) देखलीह, तखन देवनदी गंगाजी हुनका चिन्हिकय हर्षित भ’ गेलीह। ओ बुझि गेलीह जे भगवान् नरलीला कय रहल छथि। एहि तरहें हुनकर मोह नष्ट भ’ गेलनि आर चरणक स्पर्श प्राप्त कय केँ धन्य होयबाक विचार सँ आर बेसी हर्षित भ’ गेलीह।
५. केवट श्री रामचन्द्रजीक आज्ञा पाबिकय कठौत मे जल भरिकय लय आयल। अत्यन्त आनंद और प्रेम-उमंग सँ भरिकय ओ भगवानक चरणकमल धोबय लागल। सब देवता फूल बरसाकय सिहरि रहल छथि जे एकरा समान पुण्यक राशि कियो नहि अछि।
६. चरण धो’कय सारा परिवार सहित स्वयं ओहि चरणोदक केँ पीबिकय ओहि महान पुण्य द्वारा अपन पितर लोकनि केँ भवसागर सँ पार कय फेर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ गंगाजीक पार लय गेल केवट।
७. निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव सँ उतरिकय गंगाजीक रेत पर ठाढ़ भ’ गेलथि। तखन केवट सेहो उतरिकय दण्डवत कयलक। ओकरा दण्डवत करैत देखि प्रभु केँ संकोच भेलनि जे एकरा किछु देलियैक नहि। पतिक हृदय केर बात बुझयवाली सीताजी आनंदित मोन सँ अपन रत्नजडित औंठी आंगुर सँ निकालिकय देबय लगलीह। ताहिपर कृपालु श्री रामचन्द्रजी केवट सँ कहलनि जे नावक उतराई लय लह।
८. केवट व्याकुल भ’ कय चरण पकड़ि लेलक। ओ कहलकनि –
“हे नाथ! आइ हम कि नहि पेलहुँ! हमर दोष, दुःख आर दरिद्रताक आइग आइ मिझा गेल अछि। हम बहुतो समय धरि मजदूरी कयलहुँ। विधाता आइ हमरा बहुत नीक आ भरपूर मजदूरी दय देलनि। हे नाथ! हे दीनदयाल! अहाँक कृपा सँ आब हमरा किछुओ नहि चाही। घुरैत काल अहाँ जे किछु हमरा देब से प्रसाद हम माथ चढाकय लय लेब।”
९. प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी बहुते आग्रह आ यत्न कयलनि लेकिन केवट किछु नहि लेलक। तखन करुणाक धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी निर्मल भक्ति केर वरदान दय कय ओकरा विदा कयलनि। फेर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी स्नान कयकेँ पार्थिव पूजा कयलनि आर शिवजी केँ सिर नमेलनि। सीताजी सेहो हाथ जोड़िकय गंगाजी सँ विनतीपूर्वक कहली –
“हे माता! हमर सब मनोरथ पूर करब। जाहिसँ हम पति आर देवर संग कुशलतापूर्वक घुरिकय आबी आ अहाँक पूजा करी।”
१०. सीताजीक प्रेम रस सँ सनल विनती सुनलीह त गंगाजीक निर्मल जल सँ श्रेष्ठ वाणी निकलल –
“हे रघुवीर केर प्रियतमा जानकी! सुनू, अहाँक प्रभाव जगत मे केकरा नहि पता छैक? अहाँक कृपादृष्टि सँ देखिते लोक लोकपाल भ’ जाइत अछि। समस्त सिद्धि सब हाथ जोड़ने अहाँक सेवा करैत अछि। अहाँ जे एतेक सुन्दर विनती हमरा सुनेलहुँ ई त अहाँ हमरा उपर कृपा कयलहुँ आर हमरा बड़ाई देलहुँ अछि। तैयो, हे देवी! हम अपन वाणी सफल हेबाक लेल अहाँ केँ आशीर्वाद देब। अहाँ अपन प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटब। अहाँक सब मनोकामना पूरा होयत आर अहाँक सुन्दर यश एहि जग मे पूरा पसरि जायत।” मंगल केर मूल गंगाजीक वचन सुनि आ देवनदी केँ अनुकूल देखि सीताजी आनंदित भेलीह।
११. तखन प्रभु श्री रामचन्द्रजी निषादराज गुह सँ कहलखिन जे भैया! आब अहाँ सेहो घर वापस चलि जाउ। ई सुनिते हुनकर मुंह सुखा गेलनि आ हृदय मे दाह उत्पन्न भ’ गेलनि। ओ हाथ जोड़िकय दीन वचन बजलाह –
“हे रघुकुल के शिरोमणि! हमर विनती सुनू। हम नाथक संग रहिकय, वन के रास्ता सब देखाकय, दुइ-चारि दिन चरणक सेवा कय, हे रघुराज! जाहि वन मे अहाँ जाकय रहब, ओतय हम सुन्दर पर्णकुटी बनाकय, तखन अहाँ हमरा जेना आज्ञा देब से हमरा हे रघुवीर! अहाँक दोहाइ अछि! हम वैह काज करब।”
१२. हुनक स्वाभाविक प्रेम देखि श्री रामचन्द्रजी हुनका संग लय लेलनि त हुनकर मोन मे खूब आनन्द भेलनि। फेर ओ अपन जातिक लोक सब केँ बजा लेलनि आर हुनका सब केँ संतोष दैत सब केँ वापस घुरेलनि।