रामचरितमानस मोतीः श्रीराम-कैकेइ संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-कैकेयी संवाद

१. श्री रामचन्द्रजीक स्वभाव कोमल और करुणामय अछि। ओ अपन जीवन मे पहिल बेर दुःख देखलनि, एहि सँ पहिने कहियो ओ दुःख सुननहियो नहि रहथि। तथापि ओ समय के विचार कयकेँ हृदय मे धीरज राखि मीठ वचन सँ माता कैकेइ सँ पुछलथि – हे माता! हमरा पिताजीक दुःखक कारण बताउ जाहि सँ हम ओकर निवारण कय सकी, हम ओहेन यत्न करी जाहि सँ पिताजी पुनः अपन प्रसन्नता आ सुख केँ प्राप्त करथि। 

२. कैकेइ बजलीह – हे राम! सुनू, सबटा कारण एतबे अछि जे राजा केँ अहाँ सँ बहुत स्नेह छन्हि। ई हमरा दुइ गोट वरदान देबाक बात कहने रहथि। हमरा जे नीक लागल से हम माँगलहुँ। से सुनिकय राजाक हृदय मे सोच भ’ गेलनि अछि, कियैक तँ अहाँक संकोच ई नहि छोड़ि सकैत छथि। एम्हर पुत्र केर स्नेह छन्हि आर ओम्हर वचन (प्रतिज्ञा) छन्हि, राजा एहि धर्मसंकट मे पड़ि गेला अछि। जँ अहाँ कय सकैत छी त राजाक आज्ञा शिरोधार्य करू आ हिनकर कठिन क्लेश केँ दूर करू।

३. कैकेइ बेधड़क बैसल एना कड़ू वाणी कहि रहल छथि जे सुनिकय कठोरता सेहो व्याकुल भ’ जाय… जीभ धनुष थिक, वचन बहुतो रास तीर थिक आर मानू राजा टा कोमल निशाना बनल छथि। एहि सब साज-समानक संग मानू स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर के शरीर धारण कय धनुष विद्या सिखि रहल अछि।

४. श्री रघुनाथजी केँ सब हाल सुनाकय ओ एना बैसल छथि मानू निष्ठुरता स्वयं शरीर धारण कएने हो।

५. सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविके आनन्दनिधान श्री रामचन्द्रजी मनहि-मन मुस्कुरेलनि आ सब दूषण सँ रहित एहेन कोमल आ सुन्दर वचन बजलाह जे सब वाणीक भूषण छल – हे माता! सुनू, वैह पुत्र बड़भागी होइछ जे पिता-माताक वचन केर अनुरागी यानि पालन करयवला अछि। आज्ञा पालन द्वारा माता-पिता केँ सन्तुष्ट करयवला पुत्र, हे जननी! सारा संसार मे दुर्लभ अछि। वन मे विशेष रूप सँ मुनि लोकनि संग मिलाप होयत, जाहि सँ हमरे हर तरहक कल्याण होयत। ताहु मे, पिताजीक आज्ञा अछि आर हे जननी! अहाँक सम्मति अछि, और प्राण प्रिय भरत राज्य पेता। ई सब बात देखिकय यैह प्रतीत होइत अछि जे आइ विधाता सब तरहें हमरा पर अनुकूल छथि। जँ एहनो काजक लेल हम वन नहि जायब त मूर्खक समाज मे सब सँ पहिने हमरे गिनती करबाक चाही। जे कल्पवृक्ष केँ छोड़िकय अन्य कोनो एंड़-गेंड़ केर सेवा करैत अछि तथा अमृतक त्याग कय विष मांगि लैत अछि, हे माता! अहाँ मोन मे विचारिकय देखू, ओ महामूर्ख सेहो एहेन अवसर पाबि कहियो नहि चूकत। हे माता! हमरा एक्कहि गो दुःख विशेष रूप सँ भ’ रहल अछि से महाराज केँ अत्यन्त व्याकुल देखला सँ भ’ रहल अछि। एहि कनिक टा’क बात लेल पिताजी एतेक बेसी दुःखी होइथ, हे माता! हमरा एहि बात पर विश्वास नहि होइत अछि। कियैक तँ महाराज त बड़ा धीर और गुण केर अथाह समुद्र छथि। अवश्ये हमरा सँ कोनो पैघ अपराध भ’ गेल अछि, जाहि के कारण महाराज हमरा सँ किछु नहि कहैत छथि। अहाँ केँ हमरे शपथ अछि, अहाँ सच-सच कहू।

६. रघुकुल मे श्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजीक स्वभाव सँ कहल गेल सीधा वचन केँ दुर्बुद्धि कैकेइ टेढ़े रूप मे बुझि रहल छथि, किछु तहिना जेना जल सीधे रहैत अछि मुदा ताहि मे जोंक टेढे चाइल सँ चलल करैत अछि। 

७. रानी कैकेइ श्री रामचन्द्रजीक रुइख पाबिकय हर्षित भ’ गेलीह आर कपटपूर्ण स्नेह देखबैत कहली – अहाँक शपथ आर भरतोजीक शपथ अछि, हमरा राजाक दुःखक दोसर किछुओ कारण विदित नहि भ’ रहल अछि। हे तात! अहाँ अपराध करय योग्य छिहे नहि, अहाँ सँ माता-पिता प्रति अपराध बनय से सम्भवे नहि अछि। अहाँ त माता-पिता व भाइ सब केँ सुख दयवला छी। हे राम! अहाँ जे किछु कय रहल छी, सब सत्य अछि। अहाँ पिता-माताक वचन केर पालन मे तत्पर होउ। हम अहाँक बात सँ बहुत प्रसन्न भेलहुँ, अहाँ पिता केँ बुझाकय वैह बात कहू जाहि सँ एहि बुढापा मे हिनका अपयश नहि होइन। जाहि पुण्य सँ हिनका अहाँ जेहेन पुत्र भेटलनि, तेकरा निरादर करब उचित नहि अछि।

८. कैकेइक मुंह सँ ई शुभ वचन केना लगैत अछि जेना मगध देश मे गया आदिक तीर्थ! श्री रामचन्द्रजी केँ माता कैकेइ केर सब वचना ओहिना नीक लगलनि जेना गंगाजी मे मिलि गेलाक बाद सबटा नीक-बेजा सब तरहक जल शुभ आ सुन्दर भ’ जाइत अछि। 

हरिः हरः!!