स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजीक प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजीक परस्पर दर्शन
१. राति बीतल, मुर्गाक शब्द कान सँ सुनिकय लक्ष्मणजी उठलाह। जगत केर स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी सेहो गुरु सँ पहिने जागि गेलाह। सब शौचक्रिया कय नहा लेलाह। फेर संध्या-अग्निहोत्रादि नित्यकर्म समाप्त कय केँ ओ मुनि केँ मस्तक नमाकय प्रणाम कयलनि। पूजाक समय जानि गुरुक आज्ञा पाबि दुनू भाइ फूल तोड़य चललाह। ओ लोकनि राजाक सुन्दर बगीचा देखलनि, जतय वसंत ऋतु लोभवश ठहरि गेल छल। मोन केँ लोभाबय वला अनेकों वृक्ष लागल अछि। रंग-बिरंगक उत्तम लता सभक मंडप चतरल अछि। नव पत्ता, फल और फूल सँ युक्त सुन्दर वृक्ष अपन सम्पत्ति सँ कल्पवृक्ष केँ सेहो लजा रहल छथि। पपीहा, कोयल, तोता, चकोर आदि पंछी मीठ बोल बाजि रहल अछि आर मयूर सब सुन्दर नृत्य कय रहल अछि।
२. बगीचाक बीचोबीच सुहाओन सरोवर सुशोभित अछि जाहि मे मणिक सीढ़ी बहुत सुन्दर ढंग सँ बनायल गेल अछि। ओकर जल निर्मल अछि, ताहि मे अनेकों रंग के कमल फूल फुलायल अछि, जल मे पक्षी कलरव कय रहल अछि। बाग आ सरोवर केँ देखिकय प्रभु श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित भेलाह।
३. ई बाग वास्तव मे परम रमणीय अछि जे जगत केँ सुख देनिहार श्री रामचन्द्र जी केँ सुख दय रहल अछि।
४. चारू दिश दृष्टि दैत आ माली सँ पुछिकय ओ प्रसन्न मन सँ पत्र-पुष्प तोड़य लगलाह। ताहि समय सीताजी ओतय आबि गेलीह। माता हुनका गिरिजा जी (पार्वती जी) केर पूजा करबाक लेल पठेने रहथि। संग मे सब सुन्दरी और सयानी सखि सब छथि जे मनोहर वाणी सँ गीत गाबि रहली अछि।
५. सरोवर नजदीक गिरिजा जीक मन्दिर सुशोभित अछि, जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि, देखिकय मोन मोहित भ’ जाइत अछि। सखि सहित सरोवर मे स्नान कय केँ सीताजी प्रसन्न मन सँ गिरिजाजीक मन्दिर मे गेलीह। ओ खूब प्रेम सँ पूजा कयलीह आर अपना योग्य सुन्दर वर माँगलथि।
६. एक सखी सीताजी के संग छोड़िकय फुलवारी देखय चलि गेल छलीह। ओ जाय केँ दुनू भाइ केँ देखि आ प्रेम मे विह्वल भ’ कय ओ सीताजीक पास अयलीह। सखी सब हुनकर हाल देखलनि जे हुनकर शरीर पुलकित छन्हि आर नेत्र मे जल भरल छन्हि। सब गोटे कोमल वाणी सँ पुछय लगलीह जे अपन प्रसन्नता के कारण बताउ। तखन ओ कहलखिन जे दु गोटे राजकुमार बाग देखय लेल आयल छथि। किशोर अवस्था के छथि आर सब प्रकार सँ सुन्दर छथि। ओ साँवला आ गोर रंग के छथि। हुनकर सौन्दर्य केँ हम केना बखानिकय कहू! वाणी बिना नेत्र केर अछि आर नेत्र केर वाणी नहि छैक।
७. ई सुनिकय सीताजीक हृदय मे बड़ा उत्कंठा देखि सब सयानी सखी लोकनि प्रसन्न भेलीह। तखन एक सखी कहय लगलीह जे हे सखी! ई वैह राजकुमार छथि जे सुनलहुँ हँ कि काल्हि विश्वामित्र मुनिक संग अयलाह अछि। जे अपन रूप केर मोहिनी सँ नगरक स्त्री-पुरुष केँ अपना वश मे कय लेलनि अछि। जतय-ततय लोक हुनकहि छबिक वर्णन कय रहल छथि। अवश्य चलिकय देखबाक चाही, ओ देखय योग्य छथि।
८. ओहि सखीक वचन सीताजी केँ अत्यन्त प्रिय लगलनि आर दर्शन लेल हुनकर नेत्र अकुला उठल। वैह प्यारी सखी केँ आगू कयकेँ सीताजी चललीह। पुरान प्रीति केँ कियो लखि नहि पबैत अछि। नारदजीक वचन केँ स्मरण कयकेँ सीताजीक मोन मे पवित्र प्रीति उत्पन्न भेलनि। ओ चकित भ’ चारू दिश एना ताकि रहल छथि मानू डरायल कोनो मृगछौनी एम्हर-ओम्हर देखि रहल हो।
९. कंकण (हाथक काड़ा), करधनी और पायजेब केर शब्द सुनिकय श्री रामचन्द्रजी हृदय मे विचारिकय लक्ष्मण सँ कहैत छथि – ई ध्वनि एना आबि रहल अछि मानू कामदेव विश्व केँ जीतबाक संकल्प कय डंका पर चोट मारि रहला अछि। एना कहिकय श्री रामजी फेर ओहि दिश देखलाह जेम्हर सँ आवाज आबि रहल छल।
१०. श्री सीताजीक मुख रूपी चन्द्रमा केँ निहारबाक लेल हुनकर नेत्र चकोर बनि गेल छल। सुन्दर नेत्र स्थिर भ’ गेल छल, टकटकी लागि गेल छल। मानू निमि (जनकजी के पूर्वज), जिनका सभक पलक मे निवास करयवला मानल गेल अछि, बेटी-जमाय केर मिलन-प्रसंग केँ देखब उचित नहि होयत ताहि भाव सँ सकुचाकय पलक छोड़ि देलनि, पलक मे रहब छोड़ि देलनि, आ पलक खसब रुकि गेल।
११. सीताजीक शोभा देखिकय श्री रामजी बड़ा सुख पेलनि। हृदय मे ओ हुनक सराहना करैत छथि, मुदा मुंह सँ वचन नहि निकलैत छन्हि। ओ शोभा एहेन अनुपम अछि मानू ब्रह्मा अपन सम्पूर्ण निपुणता केँ मूर्तिमान कय संसार केँ प्रकट कय केँ देखा देलनि अछि। ओ सीताजीक शोभा आ सुन्दरता केँ सेहो सुन्दर करयवला अछि। ओ एना बुझि पड़ैत अछि मानू सुन्दरतारूपी घर मे दीपक केर लौ जरि रहल हुए। एखन धरि सुन्दरता रूपी भवन मे अन्हार छल, से भवन मानू सीताजीक सुन्दरता रूपी दीपशिखा पाबि जगमगा उठल अछि, पहिने सँ आर बेसी सुन्दर भ’ गेल अछि।
१२. सब उपमा केँ त कवि लोकनि पहिनहि लिखिकय आँठि कय चुकल छथि, हम जनकनन्दिनी श्री सीताजी केँ कोन बचल निराँठि उपमा दी। एहि तरहें हृदय मे सीताजीक शोभाक वर्णन कयकेँ आर अपन दशा केँ विचारिकय प्रभु श्री रामचन्द्रजी पवित्र मोन सँ अपन छोट भाइ लक्ष्मण सँ समयानुकूल वचन कहलाह – हे तात! ई वैह जनकजीक कन्या थिकीह जिनका लेल धनुषयज्ञ भ’ रहल अछि। सखी लोकनि हिनका गौरी पूजन लेल लय कय अयलीह अछि। ई फुलवारी मे प्रकाश पसारैत विचरि रहली अछि। जिनकर अलौकिक सुन्दरता देखिकय स्वभावहि सँ पवित्र हमर मन क्षुब्ध भ’ गेल अछि। एकर सबटा कारण त विधाता जानथि, मुदा हे भाइ! सुनू, हमर मंगलदायक दाहिना अंग फड़कि रहल अछि। रघुवंशी लोकनिक ई सहज (जन्मगत) स्वभाव छैक जे ओकर मोन कखनहुँ कुमार्ग पर पैर नहि रखैत छैक। हमरा त अपन मोन केर बहुते विश्वास अछि जे जागल अवस्था के त छोड़ू, सपनों मे पराया स्त्री पर दृष्टि नहि देलक अछि। रण मे शत्रु जिनकर पीठ नहि देखि पबैत अछि अर्थात् जे लड़ाई के मैदान सँ भागैत नहि अछि, पराया स्त्री जेकर मोन और दृष्टि केँ नहि खींचि पबैत छैक आर भिखारी जेकरा ओतय सँ ‘नहि’ नहि पबैत अछि अर्थात् खाली हाथ नहि लौटैत अछि, एहेन श्रेष्ठ पुरुष संसार मे बहुत कम अछि। एना श्री रामजी छोट भाइ संग बात कय रहल छथि, लेकिन मोन सीताजीक रूप मे लोभायल हुनकर मुखरूपी कमल केर छबि रूप मकरंद रस केँ भौंराक समान पीबि रहल रहैछ।
१३. सीताजी चकुआइत चारू दिश ताकि रहली अछि। मोन मे एहि बातक चिन्ता छन्हि जे राजकुमार कतय चलि गेलाह। बाल मृगनयनी (मृगछौनी समान आँखिवाली) सीताजी जतय दृष्टि दैत छथि ओतहि मानू श्वेत कमल केर कतार बरैस जाइत अछि। तखन सखी लताक आड़ मे सुन्दर श्याम और गौर कुमार केँ देखेलनि।
१४. हुनकर रूप केँ देखिकय नेत्र ललचा उठल, ओ एना प्रसन्न भेलीह मानू ओ अपन खजाना चिन्हि गेलीह। श्री रघुनाथजीक छबि देखिकय नेत्र थकित (निश्चल) भ’ गेल। पलक खसब छोड़ि देलक।
१५. अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) भ’ गेल। मानू शरद ऋतु के चन्द्रमा केँ चकोरी (बेसुध भेल) देखि रहल हो। नेत्र केर रास्ते श्री रामजी केँ हृदय मे आनिकय चतुरशिरोमणि जानकीजी पलक केर केवाड़ लगा देलीह, अर्थात् नेत्र मुनिकय हुनकर ध्यान करय लगलीह।
१६. जखन सखी सब सीताजी केँ प्रेमक वश बुझलथि त ओ सब मनहि-मन सकुचा गेलीह, किछु कहि नहि सकैत छलथि। ताहि समय दुनू भाइ लता मंडप (कुंज) मे सँ प्रकट भेलाह मानू दुइ निर्मल चन्द्रमा बादलक परदा केँ हंटाकय निकलल हुए।
१७. दुनू सुन्दर भाइ शोभाक सीमा छथि। हुनकर शरीरक आभा नीला आर पीला कमल जेकाँ छन्हि। सिर पर सुन्दर मोरपंख सुशोभित छन्हि। हुनकर बीच-बीच मे फूलक कलीक गुच्छा लागल छन्हि। माथा पर तिलक और पसीनाक बूँद शोभायमान छन्हि। कान मे सुन्दर भूषणक छबि सजल छन्हि। टेढ़ भौंह आर घुँघराला केश छन्हि। नव लाल कमल के समान रतनार (लाल) नेत्र छन्हि। ठोड़, नाक और गाल बड़ा सुन्दर छन्हि। हँसीक शोभा मन के मूल्य लय लैत छन्हि। मुखक छबि त हमरा सँ कहले नहि जाइत अछि, जे देखिकय बहुतो रास कामदेव सेहो लजा जाइत छथि। वक्षःस्थल पर मणिक माला छन्हि। शंखक सदृश सुन्दर गला छन्हि। कामदेव केर हाथीक बच्चाक सूँडक समान उतार-चढ़ाव वला आ कोमल भुजा छन्हि, जे बल केर सीमा थिक। जिनकर बायाँ हाथ मे फूलक डाली अछि, हे सखि! ओ साँवला कुँअर त बहुते सुन्दर छथि।
१८. सिंह केर समान पातर आ लचीला डाँर्ह वला, पीताम्बर धारण कएने, शोभा और शील के भंडार, सूर्यकुल के भूषण श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय सखी सब अपना आपकेँ बिसरि गेलीह। एक चतुर सखी धीरज धयकय, हाथ पकड़िकय सीताजी सँ कहली – गिरिजाजी के ध्यान फेरो कय लेब, एहि समय राजकुमार केँ कियैक नहि देख लैत छी! तखन सीताजी सकुचाकय नेत्र खोललीह आर रघुकुल के दुनू सिंह केँ अपना सामने ठाढ़ देखलीह। नख सँ शिखा धरि श्री रामजीक शोभा देखिकय आर फेर पिताक प्रण याद कयकेँ हुनकर मोन बहुत क्षुब्ध भ’ गेलनि।
१९. जखन सखी लोकनि सीताजी केँ परवश (प्रेम के वश) देखलथि तखन सब भयभीत भ’ कय कहय लगलीह – बड देरी भ’ गेल अछि। आब चलबाक चाही। काल्हि यैह समय फेर आयब, एना कहिकय एक सखी भैर मोन हँसलीह।
२०. सखीक ई रहस्यभरल वाणी सुनिकय सीताजी सकुचा गेलीह। देरी भ’ गेल से जानि हुनका माताक भय लगलनि। बहुत धीरज धयकय ओ श्री रामचन्द्रजी केँ हृदय मे लय अनलीह आर हुनकर ध्यान करैते अपना केँ पिताक अधीन जानिकय वापस चलि देलीह।
हरिः हरः!!