प्रसंग चलि रहल अछि जे शिवजी पार्वती केँ भगवानक अवतारक कथा सुना रहल छथि, ताहि मे श्रीराम अयोध्यानरेश दशरथ केर पुत्र रूप मे कोना अयलाह से सब कहि रहल छथि। आइ रावणक पूर्वजन्म मे एकटा प्रतापी राजा प्रतापभानु रहैत कोना ब्राह्मण द्वारा शापित भेलथि से प्रस्तुत अछि। एहि कथा मे सेहो हमरा सब केँ अपन जीवन मे अपनाबय वला कतेको रास महत्वपूर्ण शिक्षा भेटैत अछि, एकरे हम मोती कहिकय तुलसीकृत् रामायण केर भावानुवाद राखि रहल छी जे धारावाहिक लेख माध्यम सँ अपने सब धरि पहुँचि रहल अछि।
८. धर्मरुचि मंत्री केर श्री हरिक चरण मे प्रेम छलन्हि। ओ राजाक हित लेल सदिखन हुनका नीति सिखायल करथि। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण – हिनका सभक सदिखन सेवा करैत रहैत छलाह।
९. वेद मे राजा केर जे सब धर्म कहल गेल अछि, राजा सदिखन आदरपूर्वक और सुख मानिकय ओहि सभक पालन करथि। प्रतिदिन अनेकों प्रकार के दान देथि और उत्तम शास्त्र, वेद एवं पुराण सुनल करथि। ओ बहुतो रास कुन्ड, इनार, पोखरि, फुलवाड़ी, सुन्दर बगीचा, ब्राह्मण लेल घर और देवता सभक सुन्दर तथा विचित्र मंदिर सब तीर्थ मे बनबौलनि। वेद आ पुराण सब मे जतेक प्रकार के यज्ञ कहल गेल अछि, राजा एक-एक कय केँ ताहि सब यज्ञ केँ प्रेम सहित हजार-हजार बेर कयलनि।
१०. राजाक हृदय मे कोनो फलक टोह (कामना) नहि रहनि। ओ बहुत बुद्धिमान तथा ज्ञानी रहथि। ओ ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी सँ जे किछुओ धर्म करथि, सबटा भगवान वासुदेव केँ अर्पित करैत रहैत छलथि।
११. एक बेर ओ राजा एकटा सुन्दर घोड़ा पर सवार भ’ शिकारक सब सामान सजाकय विंध्याचलक सघन वन मे गेलाह आर ओतय बहुतो रास उत्तम-उत्तम हिरन मारलनि। राजा वन मे घुमैत एकटा सुग्गर केँ देखलनि, ओकर दाँत एना देखाइत छल मानू चन्द्रमा केँ मुँह सँ पकड़िकय राहु वन मे आबि नुकायल हुए। चन्द्रमा पैघ हेबाक कारण ओकर मुँह मे अँटि नहि रहल छथि आर ओ तामशे हुनका उगलि नहि रहल अछि। ई त सुग्गरक भयानक दाँत केर शोभा कहल गेल, एम्हर ओकर शरीर सेहो विशाल आ काफी मोट छल। घोड़ाक टाप सुनि ओ घुरघुराइत कान उठेने चौकन्ना भ’ देखि रहल छल। नील पर्वत केर शिखरक समान विशाल शरीरवला ओ सुग्गर केँ देखिकय राजा घोड़ा केँ चाबुक मारि तेजी सँ चलेलनि आ सुग्गर केँ ललकारलनि जे आब तोरा कियो नहि बचा सकैत छौक। अधिक शब्द करैत घोड़ा केँ अपना दिश अबैत देखि सुग्गर पवन केर वेग सँ भागि चलल। राजा तुरन्ते बाण केँ धनुष पर चढौलनि आ सुग्गर बाण देखिते धरती मे दुबकि गेल। राजा ताकि-ताकिकय तीर चलबैत छथि मुदा सुग्गर छल कयकेँ शरीर बचबैत जाइत अछि। ओ पशु कखनहुँ प्रकट होइत अछि आ कखनहुँ नुकाकय भागि जाइत अछि। राजा सेहो क्रोधवश ओकर पाछू लागल चलैत रहैत छथि। सुग्गर बहुत दूर एहेन घनघोर जंगल मे चलि गेल जतय हाथी-घोड़े केर गमन नहि रहैक। राजा बिल्कुल अकेला रहथि आ वन मे क्लेश (कष्ट) सेहो काफी छलैक। तखन राजा ओहि पशु केर पीछा करब छोड़ि देलनि। राजा केँ बड़ा धैर्यवान देखि सुग्गर भागिकय पहाड़क एक खोह मे घुसि गेल। ओहि मे जायब कठिन देखि राजा केँ पछताकय वापस हुए पड़लनि, मुदा ओहि घोर वन मे लौटबाक रस्ता ओ बिसरि गेलाह। अत्यधिक परिश्रमक कारण थाकि गेल छलाह आ घोड़ा सहित भूख-प्यास सँ व्याकुल राजा नदी-पोखरि तकैत-तकैत पानि बिना बेहाल भ’ गेलाह। वन मे घुमैते-फिरैते ओ एक गोट आश्रम देखलनि।
१२. ओतय कपट सँ मुनिक वेष बनेने एकटा राजा रहैत छलथि, जिनकर देश राजा प्रतापभानु छीनि लेने रहथि आर ओ राजा अपन सेना केँ छोड़िकय युद्ध सँ भागि गेल रहथि। प्रतापभानुक समय नीक बुझि आ अपन कुसमय (खराब दिन) बुझि, मोन मे काफी ग्लानि मानि नहि त घर लौटलाह आ नहिये अभिमानक कारण राजा प्रतापभानु सँ मेल कयलनि। दरिद्र समान मनहि मे क्रोध भरिकय ओ राजा तपस्वीक वेष मे वन मे रहैत छलथि।
१३. राजा प्रतापभानु थाकल-पियासल ओहि आश्रम मे हुनकहि लग पहुँचि गेलाह। ओ तुरन्त चिन्हि गेलथि जे ई प्रतापभानु छथि। राजा प्यासल हेबाक कारण व्याकुलता मे हुनका नहि चिन्हि सकलाह। सुन्दर वेष देखिकय राजा हुनका महामुनि बुझलनि आ घोड़ा सँ उतरिकय हुनका प्रणाम कयलनि। मुदा चतुर राजा हुनका अपन नाम नहि बतेलनि।
१४. राजा केँ पियासल देखिकय हुनका सरोवर देखौलनि। हर्षित भ’ कय राजा घोड़ा सहित ओहि मे स्नान और जलपान कयलनि। सब थकावट मेटा गेलनि। राजा सुखी भ’ गेलाह। तखन तपस्वी हुनका अपन आश्रम मे लय गेलाह आ सूर्यास्तक समय बुझि हुनका बैसय लेल आसन देलनि। तदोपरान्त ओ तपस्वी कोमल स्वर मे बजलाह – अहाँ के छी? सुन्दर युवक होइत जीवनक परवाह कएने बिना वन मे असगरे कतय घुमि रहल छी? अहाँक चक्रवर्ती राजा जेहेन लक्षण देखिकय हमरा बहुत दया आबि रहल अछि।
१५. राजा कहलखिन – हे मुनीश्वर! सुनू! प्रतापभानु नाम केर एक राजा छथि, हम हुनकर मंत्री छी। शिकार लेल आयल रही, रस्ता भटकि गेलहुँ। बड़ा भाग्य सँ एतय आबि हम अहाँक चरणक दर्शन पेलहुँ अछि। हमरा लेल त अहाँक दर्शन दुर्लभे छल, एहि सँ बुझाइत अछि जे किछु नीके होयवला अछि।
१६. मुनि कहलखिन – हे तात! आब राति पड़ि गेल अछि। अहाँक नगर एतय सँ सत्तर योजन पर अछि। हे सुजान! सुनू, घोर अन्हरिया राइत अछि, घनघोर जंगल अछि, रास्ता नहि अछि, एना बुझि अहाँ आइ एतहि रुकि जाउ, भोर होइते चलि जायब।
१७. तुलसीदासजी कहैत छथि – जेहेन भवितव्यता (होनहार) होइत छैक, तेहने सहायता भेटि जाइत छैक। या त ओ अपने ओकरा लग चलि अबैत छैक या फेर ओकरे ओतय पहुँचा दैत छैक।
१८. हे नाथ! बहुत नीक, एना कहिकय मुनिक आज्ञा शिरोधार्य करैत घोड़ा केँ गाछ मे बान्हि राजा बैसि गेलाह। राजा हुनकर बहुतो प्रकार सँ प्रशंसा कयलनि आ हुनकर चरणक वन्दना कय केँ अपन भाग्य केर सराहना कयलनि। फेर सुन्दर कोमल वाणी सँ कहलखिन – हे प्रभो! अहाँ केँ पिता जानिकय हम ढिठाई करैत छी। हे मुनीश्वर! हमरा अपन पुत्र और सेवक जानिकय अपन नाम (धाम) विस्तार सँ बताउ।
१९. राजा हुनका नहि चिन्हलनि, मुदा ओ राजा केँ चिन्हि गेल छल। राजा त शुद्ध हृदय के रहथि, आर ओ कपट करय मे चतुर लोक छल। एक त वैरी, फेर जाति के क्षत्रिय, फेर राजा। ओ छल-बल सँ अपन काज बनबय चाहैत छल। ओ शत्रु अपन राज्य सुख केँ मोन पाड़ैत दुःखी छल। ओकर छाती कुम्हारक आँवा केर आगि जेकाँ भीतर सँ धधकि रहल छलैक। राजाक सरल वचन कान सँ सुनिकय, अपन वैर केँ यादकय ओ हृदय मे हर्षित भेल। ओ कपट मे डुबाकय बड़ा युक्तिक संग कोमल वाणी बाजल – आब हमर नाम भिखारी अछि, कियैक तँ हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) छी।
२०. राजा कहलखिन – जे अपनेक सदृश विज्ञानक निधान और सर्वथा अभिमानरहित होइत छथि ओ अपन स्वरूप केँ सदिखन नुकौने रहैत छथि, कियैक तँ कुवेष बनाकय रहय मे सब तरहें कल्याण छन्हि। प्रकट संत वेश मे मान होयबाक सम्भावना अछि और मान सँ पतन केर। ताहि सँ त संत और वेद चिकरिकय कहैत अछि जे परम अकिंचन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) मात्र भगवान केँ प्रिय होइत छथि। अपने जेहेन निर्धन, भिखारी और गृहहीन केँ देखिकय ब्रह्मा और शिवजी केँ सेहो संदेह भ’ जाइत छन्हि जे ओ वास्तविक संत छथि या भिखारी। अपने जे छी से छी, हम अहाँक चरण मे नमस्कार करैत छी। हे स्वामी! आब हमरा पर कृपा करू।
२१. अपना पर राजाक स्वाभाविक प्रीति और अपना विषय मे हुनकर बेस विश्वास देखिकय सब प्रकार सँ राजा केँ अपना वश मे कयकेँ, अधिक स्नेह देखबैत ओ कपटी तपस्वी बजलाह – हे राजन्! सुनू, हम अहाँ सँ सत्य कहैत छी, हमरा एतय रहैत बहुत समय बीति गेल। एखन धरि नहि त कियो हमरा सँ भेटल आ नहिये हम अपना केँ केकरो पर प्रकट कयलहुँ अछि, कियैक तँ लोक मे प्रतिष्ठा अग्नि समान होइत छैक जे तपरूपी वन केँ भस्म कय दैत छैक।
२२. तुलसीदासजी कहैत छथि – सुन्दर वेष देखिकय मूढ़े टा नहि चतुर मनुष्य सेहो धोखा खा जाइत अछि। सुन्दर मोर केँ देखू, ओकर वचन त अमृत समान छैक लेकिन आहार साँप के करैत अछि।
२३. कपटी-तपस्वी आगू कहलखिन – तेँ हम एहि जग सँ नुकाकय रहैत छी। श्री हरि केँ छोड़िकय दोसर सँ कोनो प्रयोजन नहि रखैत छी। प्रभु तँ बिना जनेने सब बात जनैत छथि। फेर कहू जे संसार केँ रिझेला सँ कोन सिद्धि भेटत। अहाँ पवित्र और सुन्दर बुद्धिवला छी, एहि सँ हमरा बहुत प्रिय आ अहाँक सेहो हमरा पर प्रीति व विश्वास अछि। हे तात! आब जँ हम अहाँ सँ किछु नुकायब त हमरा बड भयानक दोष लागत।
२४. जेना-जेना ओ तपस्वी उदासीनताक बात सब कहैत छल, तहिना-तहिना राजा केँ विश्वास उत्पन्न होइत जाइत छलन्हि। जखन ओहि बगुला जेकाँ ध्यान लगबयवला कपटी मुनि केँ राजाक कर्म, मन आ वचन अपन वश मे भेल बुझलक तखन फेर ओ बाजल – हे भाई! हमर नाम एकतनु थिक। ई सुनिकय राजा फेर माथ नमबैत कहलखिन – हमरा अपन अत्यन्त (अनुरागी) सेवक बुझिकय अपन नाम केर अर्थ बुझाकय कहल जाउ। कपटी मुनि कहलखिन – जखन सबसँ पहिने सृष्टि उत्पन्न भेल छल तखनहि हमर उत्पत्ति भेल। तहिया सँ हम दोसर देह नहि धारण कयलहुँ, ताहि सँ हमर नाम एकतनु अछि। हे पुत्र! मोन मे आश्चर्य जुनि करू, तप सँ किछुओ दुर्लभ नहि छैक, तप केर बल सँ ब्रह्मा जग रचैत छथि। तपहि केर बल सँ विष्णु संसारक पालन करयवला बनला अछि। तपहि केर बल सँ रुद्र संहार करैत छथि। संसार मे कोनो एहेन वस्तु नहि जे तप सँ नहि भेटि सकैछ।
२५. ई सुनि राजा केँ बड़ा अनुराग भेलनि। तखन ओ तपस्वी पुरान कथा सब कहय लागल। कर्म, धर्म और अनेकों प्रकारक इतिहास कहिकय ओ वैराग्य और ज्ञान केर निरूपण करय लागल। सृष्टि केर उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) केर अपार आश्चर्य भरल कथा सब ओ विस्तार सँ कहलक। राजा ओ सब सुनिकय ओहि तपस्वीक वश मे भ’ गेलाह। तखन ओ अपन नाम कहय लगलाह। तपस्वी कहलकनि – राजन! हम अहाँ केँ जनैत छी। अहाँ हमरा सँ कपट कयलहुँ, से हमरा नीके लागल। हे राजन्! सुनू, एहेन नीति छैक जे राजा जहतर-पहतर अपन नाम नहि कहैत छथि। अहाँक वैह चतुराइ बुझैत हमरा अहाँ पर अत्यन्त स्नेह भ’ गेल। अहाँक नाम प्रतापभानु छी, महाराज सत्यकेतु अहाँक पिता रहथि। हे राजन्! गुरुक कृपा सँ हम सब बात जनैत छी, मुदा अपन हानि बुझि कहैत नहि छी। हे तात! अहाँक स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति मे निपुणता देखिकय हमर मोन मे अहाँ ऊपर बड़ा भारी ममता उत्पन्न भ’ गेल अछि, ताहि हेतु अहाँक पुछला पर अपन कथा कहैत छी। आब हम प्रसन्न छी, एहि मे सन्देह नहि करब। हे राजन्! जे मन केँ भावय वैह माँगि लिअ।
२६. सुन्दर (प्रिय) वचन सुनिकय राजा हर्षित भ’ गेलाह आर मुनिक पैर पकड़िकय ओ बहुतो प्रकार सँ विनती कयलनि। हे दयासागर मुनि! अहाँक दर्शनहि सँ चारू पदार्थ – अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हमर मुट्ठी मे आबि गेल। तैयो स्वामी केँ प्रसन्न देखिकय हम ई दुर्लभ वर माँगिकय कियैक न शोकरहित भ’ जाय। हमर शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख सँ रहित भ’ जाय, हमरा युद्ध मे कियो जीति नहि सकय, आर पृथ्वी पर हमर सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हुए।
२७. तपस्वी कहलकनि – हे राजन्! एहिना हुए। मुदा एक बात कठिन अछि, सेहो सुनि लिअ। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल केँ छोड़ि कालो अहाँक चरण मे माथ झुकायत। तप केर बल सँ ब्राह्मण सदा बलवान रहैत छथि। हुनकर क्रोध सँ रक्षा करयवला कियो नहि होइछ। हे नरपति! यदि अहाँ ब्राह्मण केँ वश मे कय लेब त ब्रह्मा, विष्णु और महेश सेहो अहाँक अधीन भ’ जेताह। ब्राह्मण कुल सँ जोर जबर्दस्ती नहि चलि सकैछ, हम दुनू हाथ उठाकय सत्य कहैत छी। हे राजन्! सुनू, ब्राह्मणक शाप बिना अहाँक नाश कोनो काल मे नहि होयत।
२८. राजा हुनकर वचन सुनि बड़ा प्रसन्न भेलाह आर कहय लगलाह – हे स्वामी! हमर नाश आब नहि होयत, हे कृपानिधान प्रभु! अपनेक कृपा सँ हमर हर समय कल्याणे होयत। ‘एवमस्तु’ (एहिना हुए) कहिकय ओ कुटिल कपटी मुनि फेर कहलक – मुदा अहाँ हमरा सँ भेंट आ अपन रास्ता बिसरि जेबाक बात केकरो सँ कहब नहि, यदि कहि देब त हमर दोष नहि। हे राजन्! हम अहाँ केँ एहि वास्ते मना कय रहल छी जे ई प्रसंग कहला सँ अहाँ बड़ा भारी हानि होयत। छठम कान मे ई बात पड़िते अहाँक नाश भ’ जायत, हमर एहि वचन केँ सत्य जानब। हे प्रतापभानु! सुनू! एहि बात केँ प्रकट कयला सँ अथवा ब्राह्मणक शाप सँ अहाँक नाश होयत आर कोनो उपाय सँ, चाहे ब्रह्मा और शंकर सेहो मोन मे क्रोध करथि, अहाँक मृत्यु नहि होयत।
२९. राजा मुनिक चरण पकड़िकय बजलाह – हे स्वामी! सत्ये अछि। ब्राह्मण और गुरु केर क्रोध सँ कहू के रक्षा कय सकैत अछि? यदि ब्रह्मा सेहो क्रोध करथि, त गुरु बचा लैत छथिन, लेकिन गुरु सँ विरोध कयलापर जगत मे कियो बचेनिहार नहि छथि। यदि हम अहाँक कथनानुसार नहि चलब त भले हमर नाश भ’ जाय, हमरा ताहि बातक चिन्ता नहि अछि। हमर मन त केवल एक टा डर सँ डरा रहल अछि जे ब्राह्मणक श्राप बड़ा भयानक होइत छैक। से ब्राह्मण कोन तरह सँ वश मे भ’ सकैत छथि, कृपा कय केँ सेहो बताउ। अहाँ केँ छोड़ि आर केकरो हम अपन हितकर नहि देखि रहल छी।
३०. तपस्वी बजलाह – हे राजन्! सुनू, संसार मे उपाय त बहुतो छैक, लेकिन ओ बहुत कष्टसाध्य, बड़ा कठिनता सँ सिद्ध होइत छैक, जरूरी नहि जे तैयो सिद्ध भ’ए जाय। मुदा एकटा उपाय बहुत सहज छैक। ओहि मे कोनो कठिनता सेहो नहि छैक। हे राजन्! ओ युक्ति त हमर हाथ मे अछि, लेकिन हमर गेनाय अहाँक नगर मे सम्भव नहि अछि। जहिया सँ जन्म लेलहुँ तहिया सँ आइ धरि हम केकरो घर अथवा गाम नहि गेलहुँ अछि। आ जँ हम नहि जाइत छी त अहाँक काज बिगड़ि जायत। आइ ई बड असमंजस आबि गेल।
३१. ई सुनिकय राजा कोमल वाणी सँ बजलाह, हे नाथ! वेद मे एहेन नीति कहल गेल अछि जे पैघ लोक छोट पर स्नेह करिते टा छथि। पर्वत अपन सिर पर सदा तृण (घास) केँ धारण कयने रहैत छथि। अगाध समुद्र अपन मस्तक पर फेन केँ धारण करैत छथि और धरती अपन सिर पर सदा धूलकण केँ धारण कयने रहैत छथि। एतेक कहिकय राजा मुनिक चरण पकड़ि लेलनि आर कहलखिन – हे स्वामी! कृपा करू। अपने संत छी। दीनदयालु छी। तेँ हे प्रभो! हमरा लेल एतबा कष्ट जरूर सहू।
३२. राजा केँ अपना अधीन बुझि कपट मे प्रवीण तपस्वी बजलाह – हे राजन्! सुनू, हम अहाँ सँ सत्य कहैत छी, जगत मे हमरा लेल किछुओ दुर्लभ नहि अछि। हम अहाँक काज अवश्य करब, कियैक त’ अहाँ मन, वाणी और शरीर (तीनू) सँ हमर भक्त छी। लेकिन योग, युक्ति, तप और मंत्रों केर प्रभाव तखनहि फलीभूत होइत छैक जखन ओ गुप्त रूप सँ कयल जाइत छैक। हे नरपति! हम यदि भोजन बनायब आ अहाँ ओ परोसब, आ हमरा कियो नहि चिन्हि पाबय त ओहि अन्न केँ जे-जे खायत से-से अहाँक आज्ञाकारी बनि जायत। एतबा नहि, ओहि भोजन केँ खायवला सभक घरहु मे जे कियो भोजन करत, हे राजन्! सुनू, ओहो अहाँक अधीन भ’ जायत। हे राजन्! जाकय यैह उपाय करू आर वर्ष भरि भोजन करेबाक संकल्प कय लेब। नित्य नव एक लाख ब्राह्मण केँ कुटुम्ब सहित निमंत्रित दय देबनि। हम अहाँक संकल्प केर समय यानि एक वर्ष धरि प्रतिदिन भोजन बना देल करब। हे राजन्! एहि तरहें एकदम कम परिश्रम सँ सब ब्राह्मण अहाँक वश मे भ’ जेताह। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करता त ओहि प्रसंग (संबंध) सँ देवता सेहो सहजहि वश मे भ’ जेताह। हम एकटा आर चिन्ह अहाँ केँ बता दैत छी, हम एहि रूप मे कदापि नहि आयब। हम अपन माया सँ अहाँ पुरहित केँ हरण कय केँ आनि लेब। तप केर बल सँ ओकरा अपना समान बनाकय एक वर्ष एतय राखब आर हे राजन्! सुनू, हम ओकरे रूप बनाकय सब प्रकार सँ अहाँक काज केँ सिद्ध करब। हे राजन्! राति बहुत बीति गेल, आब सुति रहू। आइ सँ ठीक तेसर दिन हमरा सँ अहाँक भेंट होयत। तप केर बल सँ हम घोड़ा सहित अहाँ केँ सुतले अहींक घर पहुँचा देब। हम वैह पुरहितक वेश धयकय आयब। जखन एकान्त मे अहाँ केँ बजाकय सब कथा सुनायब, तखन अहाँ हमरा चिन्ह लेब।
३३. राजा आज्ञा मानिकय शयन कयलनि आर ओ कपट-ज्ञानी आसन पर बैसि रहल। राजा थाकल छलाह, हुनका तुरन्ते खूब गहींर नीन्द आबि गेलनि। लेकिन ओ कपटी केना सुतितय! ओकरा त भारी चिन्ता भ’ रहल छलैक। ताहि समय ओतय कालकेतु राक्षस आयल, जे सुग्गर बनिकय राजा केँ वन मे भटकेने रहय। ओ तपस्वी राजाक बड़का मित्र रहय और खूब छल-प्रपंच जनैत छल। ओकर सौ पुत्र और दस भाइ रहैक, जे सब बड़ा भारी दुष्ट, केकरो सँ नहि जीतल जायवला आर देवता सब केँ भारी दुःख देनिहार छलैक। ब्राह्मण, संत और देवता लोकनि केँ दुःखी देखिकय राजा प्रतापभानु ओकरा सब केँ पहिनहि युद्ध मे मारि देने रहथिन। ओ दुष्ट वैह पैछला बैर याद कयकेँ तपस्वी राजा सँ मिलिकय सलाह विचारिकय (षड्यंत्र कयकेँ) आर जाहि प्रकारे शत्रुक नाश हो, वैह उपाय रचलक। भावीवश राजा प्रतापभानु किछुओ नहि बुझि सकलाह।
३४. तेजस्वी शत्रु असगरो रहय तैयो ओकरा छोट नहि बुझबाक चाही। जेकर सिर मात्र बचल छल, से राहु आइ धरि सूर्य-चन्द्रमा केँ दुःख देल करैत छन्हि।
३५. तपस्वी राजा अपन मित्र केँ देखि प्रसन्नता संग उठिकय गला मिललनि आ बहुत सुखी भेलाह। ओ ओहि कालकेतु केँ सब कथा कहि सुनेलनि, तखन राक्षस आनन्दित होइत बाजल – हे राजन्! सुनू, जखन अहाँ हमर कहल मुताबिक एतेक काज कय देलहुँ त आब हम शत्रु केँ काबू मे कय लेलहुँ से बुझि जाउ। अहाँ आब चिन्ता त्यागिकय सुति रहू। विधाता बिना दबाइये के सब रोग दूर कय देलनि। कुल सहित शत्रु केँ जड़-मूल सहित उखाड़ि-बहाकय, औझका चारिम दिन अहाँ सँ भेटब। एहि तरहें तपस्वी राजा केँ खूब दिलासा दय कय ओ महामायावी और अत्यन्त क्रोधी राक्षस चलि देलक। ओ प्रतापभानु राजा केँ घोड़ा सहित क्षणहि भरि मे घर पहुँचा देलक। राजा केँ रानी लग सुताकय घोड़ा केँ नीक जेकाँ घुड़साल मे बान्हि देलक। फेर ओ राजाक पुरोहित केँ उठाकय लय कय चलि गेल आर माया सँ ओकर बुद्धि केँ भ्रम मे पाड़ि ओकरा ओ एकटा पहाड़क खोह मे राखि देलक। पुनः ओ स्वयं ओहि पुरहित केर रूप बनाकय ओकर सुन्दर सेज पर जाकय पड़ि रहल।
३६. राजा भोर होइ सँ पहिनहि जगलाह आर अपन घर देखिकय बड़ा भारी आश्चर्य मानलनि। मोन मे मुनिक महिमा केर अनुमान कयकेँ ओ धीरे सँ उठलाह, जाहि सँ रानी नहि बुझि पाबथि। फेर ओहि घोड़ा पर चढ़िकय वन प्रस्थान कय गेलाह। नगर भरिक कोनो स्त्री-पुरुष केँ ई सब पता नहि चललैक। दु पहर बीति गेलाक बाद राजा अयलाह। घर-घर उत्सव होबय लागल। जखन राजा पुरहित केँ देखलनि त ओ अपन वैह कार्य केँ स्मरण करैत हुनका आश्चर्य सँ देखय लगलाह। राजा केँ तीन दिन तीन युग समान बीतलन्हि। हुनकर बुद्धि कपटी मुनिक चरण मे लागल रहलनि। निश्चित समय बुझि पुरहित बनल ओ राक्षस आयल आर राजाक संग कयल गेल गुप्त सलाह अनुसार ओ अपन सब विचार हुनका बुझाकय कहि देलक।
३७. संकेत अनुसार गुरु केँ ओहि रूप मे चिन्हिकय राजा प्रसन्न भेलाह। भ्रमवश हुनका चेत नहि रहलनि जे ई तापस मुनि थिक आ कि कालकेतु राक्षस। ओ तुरन्त एक लाख उत्तम ब्राह्मण केँ कुटुम्ब सहित सबजाना निमंत्रण दय देलनि। पुरहित छह रस और चारि प्रकारक भोजन, जेना कि वेद मे वर्णन अछि से बनेलनि। ओ मायामयी भोजन तैयार कयलनि आर एतबा व्यंजन बनेलनि जेकरा कियो गानियो नहि सकैत छल। अनेकों तरहक पशु केर मांस पकौलनि आर ओहि ओ दुष्ट ब्राह्मण मनुष्यक मांस सेहो मिला देलक।
३८. सब ब्राह्मण केँ भोजन लेल बजायल गेल, चरण पखारिकय आदर सहित बैसायल गेल। जहाँ राजा भोजन परोसय लगलाह, ताहि समय कालकेतुकृत आकाशवाणी भेल – हे ब्राह्मण लोकनि! उठि-उठिकय अपन घर जाउ। ई अन्न एकदम नहि खाउ। ई खाय मे बड़ा भारी हानि अछि। भोजन मे ब्राह्मण मनुष्यक मांस बनायल गेल अछि।
३९. आकाशवाणीक विश्वास मानिकय सब ब्राह्मण उठिकय ठाढ़ भ’ गेलाह। राजा व्याकुल भ’ गेलाह, लेकिन हुनकर बुद्धि मोह मे सब किछु बिसरि गेल छलन्हि… आर होनहारवश हुनकर मुँह सँ एकहु टा शब्द – कोनो बात तक नहि निकलि सकल। तखन ब्राह्मण क्रोध सहित बाजि उठलाह – ओहो सब कोनो किछु विचार नहि कयलनि – अरे मूर्ख राजा! तूँ जाकय परिवार सहित राक्षस बने। रे नीच क्षत्रिय! तूँ त परिवार सहित ब्राह्मण सब केँ बजाकय हुनका सब केँ नष्ट करय चाहैत रहें, भगवाने हमरा सभक धर्म केर रक्षा कयलनि। आब तूँ परिवार सहित नष्ट हेमें। एक वर्ष के भीतर तोहर नाश भ’ जेतउ। तोहर कुल मे कियो पानियो देनिहार नहि रहि जेतौक।
४०. श्राप सुनिकय राजा डरक मारे अत्यन्त व्याकुल भ’ गेलाह। तखन फेर सुन्दर आकाशवाणी भेल – हे ब्राह्मण लोकनि! अपने लोकनि विचारिकय श्राप नहि देलियनि। राजा कोनो अपराध नहि कयलनि अछि।
४१. आकाशवाणी सुनिकय सब ब्राह्मण चकित भ’ गेलाह। तखन राजा ओतय गेलाह जतय भोजन बनल छल। देखलनि त ओतय न कोनो भोजन छल आ न ओ भोजन बनेनिहार ब्राह्मणे रहथि। तखन राजा मोन मे भारी चिन्ता करैत ओतय सँ घुरलाह। ओ ब्राह्मण लोकनि केँ सब वृत्तान्त सुनौलनि आ बहुत भयभीत और व्याकुल भ’ कय ओ पृथ्वी पर खसि पड़लाह।
४२. हे राजन! यद्यपि अहाँक दोष नहि अछि, लेकिन होनहार नहि मेटाइत अछि। ब्राह्मणक श्राप बहुते भयानक होइत अछि, ई कोनो तरहें टालला पर नहि टालल जा सकैत अछि। एतेक कहिकय सब ब्राह्मण चलि गेलाह। नगरवासी सब जखन ई समाचार पेलनि, त ओहो सब चिन्ता करैत विधाता केँ दोष दियए लगलाह, जे देवता हंस बनबैत-बनबैत कौआ केना बना देलनि, एहेन पुण्यात्मा राजा केँ देवता बनेबाक चाहैत छल, से राक्षस बना देलनि।
४३. पुरहित केँ हुनकर घर पहुँचाकय असुर (कालकेतु) कपटी तपस्वी केँ सब खबरि देलक। ओ दुष्ट जहाँ-तहाँ पत्र पठेलक जाहि सँ सब बैरी राजा सेना सजा-सजाकय चढाई कय देलक प्रतापभानु पर। आर ओ सब डंका बजाकय नगर केँ घेर लेलक। नित्य प्रति अनेक प्रकार सँ लड़ाई होबय लागल। प्रतापभानु केर सब योद्धा शूरवीर लड़ैत-लड़ैत रण मे मारल गेलाह। राजा सेहो भाइ सहित मारल गेलाह। सत्यकेतु केर कुल मे कियो नहि बाँचल। ब्राह्मणक श्राप झूठा केना भ’ सकैत छल। शत्रु केँ जीतिकय नगर केँ फेर सँ बसाकय सब राजा विजय और यश पाबिकय अपन-अपन नगर केँ चलि गेलाह।