स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
१९. पार्वतीक जन्म और तपस्या
‘रामचरितमानस मोती’ केर एहि धारावाहिक मे अपने सब पढ़लहुँ कोना सती पति द्वारा पत्नीरूप मे मौन-परित्यज्य भेलीह आ फेर कोना हुनक ओ शरीर केँ पति प्रति अद्भुत प्रेमक प्रदर्शन करैत पिता दक्ष केर कयल यज्ञक योगाग्नि मे भस्म कय देलीह। आगू देखूः
१. सती मरैत समय भगवान हरि सँ यैह वर माँगलथि जे हमरा आगू जन्म-जन्मान्तर तक शिवजीक चरण मे अनुराग रहय आ एहि कारण ओ हिमाचल केर घर जाकय पार्वतीक शरीर सँ जन्म लेलीह।
२. जहिया सँ उमाजी हिमाचलक घर जन्म लेलति तहिये सँ ओतय सब सिद्धि आर सम्पत्तिक अम्बार लागि गेल। मुनि लोकनि जहाँ-तहाँ सुन्दर आश्रम बना लेलनि आर हिमाचल सेहो हुनका लोकनि केँ उचित स्थान आ सम्मान देलनि। ओहि सुन्दर पर्वत पर बहुतो प्रकार के नव-नव वृक्ष सदिखन फूल ओ फल सँ युक्त भ’ गेल आर ओतय बहुतो प्रकारक मणि सभक खान सेहो प्रकट भ’ गेल। सब नदी मे पवित्र जल बहय लागल आर पक्षी, पशु, भ्रमर सबटा सुखी रहय लागल। सब जीव अपना स्वाभाविक शत्रुता छोड़ि देलक आ पर्वत पर सब परस्पर प्रेम करय लागल।
३. पार्वतीजी के घर आबि गेला सँ पर्वत एहेन शोभायमान होबय लागल मानू जेना रामभक्ति पाबिकय भक्त शोभायमान होइत अछि। पर्वतराज केर घर नित्य नव-नव मंगलोत्सव होइत अछि जेकर ब्रह्मादि लोकनि यशगान करैत छथि।
४. जखन नारदजी ई सब समाचार सुनलनि त ओ कौतुकता सँ हिमाचलक घर पहुँचलाह। पर्वतराज हुनकर बड़ा आदरपूर्वक चरण पखारिकय हुनका उत्तम आसन देलनि। फेर अपन स्त्री सहित मुनिक चरण मे सिर नमाकय आर चरणोदक केँ चारूकात घर मे छिड़काव करैत हिमाचल अपन सौभाग्यक खूब बखान कयलथि। पुनः ओ बेटी पार्वती केँ बजाकय मुनिक चरण मे राखि देलथि आर कहलथि, “हे मुनिवर! अपने त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ थिकहुँ, अहाँक सब तैर पहुँच अछि। तेँ अहाँ हृदय मे विचारिकय एहि कन्याक भाग्यक गुण-दोख कहू।
५. नारद मुनि हँसिकय रहस्ययुक्त कोमल वाणी सँ कहलखिन – अहाँक कन्या सब गुण केर खान छथि। ई स्वभाव सँ बहुते सुन्दर, सुशील और समझदार छथि। उमा, अम्बिका और भवानी हिनकर नाम थिकन्हि। कन्या सब सुलक्षण सँ सम्पन्न छथि, ई अपन पति केँ सदिखन प्रिय हेतीह। हिनकर सुहाग सदा अचल रहत आर एहि सँ हिनकर माता-पिता यश पेता। ई सम्पूर्ण जगत मे पूज्य हेतीह आर हिनकर सेवा कयला सँ किछुओ अप्राप्य नहि रहत। संसार मे स्त्रिगण समाज हिनकर नाम स्मरण कय केँ पतिव्रता रूपी तलवारक धार पर चढ़ि जेती। हे पर्वतराज! अहाँक कन्या सुलच्छनी छथि। आब हिनका मे जे दुइ-चार गोट अवगुण छन्हि सेहो सुनि लिअ। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह), योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेषवला, एहेन पति हिनका भेटतनि। हिनकर हाथ मे एहने रेखा छन्हि।
६. नारद मुनिक वाणी सुनिकय आर ओकरा सत्य बुझिकय पति-पत्नी (हिमवान् और मैना) केँ बड दुःख भेलनि। मुदा पार्वतीजी केँ खूब खुशी भेटलनि। नारदजी सेहो ई रहस्य केँ नहि बुझि पेलाह कियैक तँ बाहर सँ सभक दशा एक्के जेकाँ देखाय देलक लेकिन भीतरी समझ भिन्न-भिन्न छल। साब सखी, पार्वती, पर्वतराज हिमवान् और मैना सभक शरीर पुलकित छल आर सभक आँखि मे नोर भरि गेल छल। देवर्षिक वचन असत्य नहि भ’ सकैत अछि, ई विचारिकय पार्वती ओहि समस्त वचन केँ हृदय मे धारण कय लेलीह।
७. पार्वती केँ शिवजीक चरणकमल मे सिनेह जागि गेलनि, धरि मोन मे सन्देह सेहो भेलनि जे ओ भेटता कोना। हुनकर भेटब कठिन अछि। अवसर ठीक नहि बुझि उमा एहि सब भाव केर छिपाव कयलीह, आर ओ अपन सखी सभक संग जाय बैसलीह।
८. देवर्षिक वाणी झूठ नहि होयत से विचारिकय हिमवान्, मैना और सब चतुर सखी लोकनि चिन्ता करय लगलीह। फेर हृदय मे धीरज राखि पर्वतराज पुछलखिन – हे नाथ! कहू जे आब कोन उपाय कयल जाय?
९. मुनीश्वर कहलखिन – हे हिमवान्! सुनू, विधाता जे किछु ललाट पर लिखि देलाह अछि ओकरा देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कियो नहि मेटा सकैत अछि। तैयो हम एक उपाय अहाँ केँ बतबैत छी। जँ दैवक सहयोग भेटत त ओ सिद्ध भ’ सकैत अछि। उमा केँ वर तँ निःसन्देह ओहने भेटतनि जेहेन हम वर्णन कयलहुँ, मुदा हम वरक जे-जे दोष बतेलहुँ, हमरा हिसाब सँ ओ सब शिवजी मे छन्हि। जँ शिवजीक संग विवाह भ’ जाइन त दोषहु केँ लोक गुणहि समान कहत। जेना विष्णु भगवान शेषनागक शय्या पर सुतैत छथि, तैयो पण्डित लोक हुनका कोनो दोष नहि लगबैत छथि। सूर्य और अग्निदेव नीक-बेजा सब तरहक रस केर भक्षण करैत छथि, मुदा हुनका कियो बेजा नहि कहैत छन्हि। गंगाजी मे शुभ और अशुभ सब जल बहैत अछि, धरि कियो हुनका अपवित्र नहि कहैत छन्हि। सूर्य, अग्नि और गंगाजीक भाँति समर्थ केँ किछु दोष नहि लगैत अछि। जँ मूर्ख मनुष्य ज्ञान केर अभिमान सँ एहि तरहक होड़ करैत छथि त ओ कल्प भरि लेल नरक मे पड़ि गेल करैत छथि। भला कहूँ जीवो ईश्वर समान सर्वथा स्वतंत्र भ’ सकैत अछि की? गंगा जल सँ बनायल गेल मदिरा केँ कहियो जानि-बुझि संत सब पान नहि करता। मुदा वैह गंगाजी मे मिल गेलापर जेना पवित्र भ’ जाइत अछि, ईश्वर और जीव मे सेहो तहिना भेद अछि। शिवजी सहजहि समर्थ छथि, कियैक त ओ भगवान छथि, ताहि लेल एहि विवाह मे सब प्रकारे कल्याणहि होयत। परञ्च महादेवजीक आराधना बड़ा कठिन अछि, तैयो क्लेश (तप) कयला सँ ओ बहुत जल्दी भ’ जाइत छथि। जँ अहाँक कन्या तप करथि त त्रिपुरारि महादेवजी होनहार केँ मेटा सकैत छथि। यद्यपि संसार मे वर अनेक अछि मुदा हिनका लेल शिवजी केँ छोड़िकय दोसर वर नहि अछि। शिवजी वर देनिहार, शरणागत सभक दुःख केँ नाश करनिहार, कृपाक समुद्र आ सेवक सभक मोन केँ प्रसन्न करनिहार छथि। शिवजीक आराधना कएने बिना करोड़ों योग और जप कयलोपर वांछित फल नहि भेटैत छैक।
१०. एतेक कहिकय भगवानक स्मरण कय केँ नारदजी पार्वती केँ आशीर्वाद देलनि आ कहलनि – हे पर्वतराज! अहाँ सन्देहक त्याग करू, आब यैह कल्याण हेब्बे टा करत। एतेक कहिकय नारद मुनि ब्रह्मलोक चलि गेलाह।
११. आब आगू जे चरित्र भेल से सुनू। पति केँ एकान्त मे पाबि मैना बजलीह – हे नाथ! हम मुनि केर वचनका अर्थ नहि बुझलहुँ। जे बेटीक अनुकूल घर, वर आ कुल-खानदान उत्तम हुए तखनहि विवाह करब, नहि त बेटी चाहे कुमारिये रहि जाय, हम अयोग्य वरक संग ओकर विवाह नहि करय चाहब, कियैक त हे स्वामिन्! पार्वती हमरा प्राणक समान प्रिय छथि। यदि पार्वतीक योग्य वर नहि भेटता त सब लोक कहत जे पर्वत स्वभावहि सँ जड़ (मूर्ख) होइत अछि। हे स्वामी! ई सब बात विचारियेकय विवाह करब जाहि सँ फेर पाछाँ हृदय मे सन्ताप नहि हो।
१२. एतेक कहिकय मैना पतिक चरणपर मस्तक राखि देलीह। तखन हिमवान् हुनका प्रेमपूर्वक कहलथि – चाहे चन्द्रमा मे अग्नि प्रकट भ’ जाय लेकिन नारदजीक वचन झूठ नहि भ’ सकैत अछि। हे प्रिये! सबटा सोच-विचार केँ छोड़िकय श्री भगवान केर स्मरण करू, जे पार्वतीक रचा कयलनि अछि वैह कल्याणो करता। आब जँ अहाँक बेटी पर प्रेम अछि त जाय केँ ओकरा ई शिक्षा दियौक जे ओ एहेन तप करय जाहि सँ शिवजी ओकरा भेटि जाइथ। नारदजीक वचन रहस्य सँ युक्त और सकारण अछि आर शिवजी समस्त सुन्दर गुणक भण्डार छथि। एना विचारिकय अहाँ मिथ्या सन्देह केँ छोड़ू। शिवजी सब तरहें निष्कलंक छथि।
१३. पतिक वचन सुनि मोन मे प्रसन्न होइत मैना उठिकय तुरंत पार्वती लग गेलीह। पार्वती केँ देखिकय हुनकर आँखि मे नोर भरि गेलनि। हुनका स्नेहक संग अपन कोरा मे बैसा लेलीह। फेर बेर-बेर हुनका हृदय सँ लगबय लगलीह। प्रेम सँ मैनाक गला भरि गेलनि, किछुओ कहल नहि जाइत छन्हि। जगज्जननी भवानीजी तऽ सर्वज्ञ ठहरली। माताक मनक दशा केँ देखिकय ओ हुनका सुख पहुँचाबयवला कोमल वाणी मे बजलीह – माँ! सुने, हम तोरा सुनबैत छी, हम एहेन सपना देखलहुँ अछि जे हमरा एकटा सुन्दर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण एना उपदेश दय रहल छथि – हे पार्वती! नारदजी जे कहलनि अछि ओकरा सत्य बुझि अहाँ जाय केँ तपस्या करू। फेर ई बात अहाँक माता-पिता केँ सेहो नीक लगलनि अछि। तप सुख दयवला होइत छैक आ दुःख-दोष केँ नाश करयवला सेहो होइत छैक। तपहि केर बल सँ ब्रह्मा संसार केँ रचैत छथि और तपहि केर बल सँ विष्णु सारा जगत केर पालन करैत छथि। तप केर बल सँ मात्र शम्भु (रुद्र रूप सँ) जगत केर संहार करैत छथि और तपहि केर बल सँ शेषजी पृथ्वी केर भार धारण करैत छथि। हे भवानी! सारा सृष्टि तप केर आधार पर अछि। ई सब अपन मोन मे जानिकय अहाँ जाउ आ तप करू।
१४. ई सब बात सुनिकय माता केँ बड़ा भारी अचरज भेलनि आर ओ हिमवान् केँ बजाकय ओहि सपनाक बारे मे सुनौलनि।
१५. माता-पिता केँ बहुतो तरह सँ बुझाकय बड़ा हर्षक संग पार्वतीजी तप करय लेल चलि देलीह। प्रिय कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल भ’ उठलाह। किनको मुँह सँ कोनो शब्द तक नहि निकलि रहल छन्हि। तखन वेदशिरा मुनि आबिकय सबकेँ बुझेलनि आ कहलनि त पार्वतीजीक महिमा सुनिकय सभक मोनक प्रश्नक समाधान भेटि गेलनि।
१६. प्राणपति शिवजीक चरण केँ हृदय मे धारण कय केँ पार्वतीजी वन मे जाय तप करय लगलीह। पार्वतीजी केर अत्यन्त सुकुमार शरीर तपक योग्य नहि छलन्हि, तैयो पतिक चरण केँ स्मरण कय केँ ओ सब भोग केँ तेजि देलीह। स्वामीक चरण मे नित्य नया अनुराग उत्पन्न हुए लगलनि आर तप मे एहेन मोन लागि गेलनि जे शरीरक सब सुधि-बुधि बिसरा गेलनि। एक हजार वर्ष धरि ओ मूल आ फल खेलीह, फेर सौ वर्ष साग खाकय बितेलीह। किछु दिन जल और वायु केँ भोजन कयलीह आर फेर किछु दिन कठोर उपवास कयलीह, जे बेलक पात सुखाकय धरती पर खसि पड़ैत छल वैह खाकय तीन हजार वर्ष धरि रहि गेलीह। तेकर बाद ओ सुखायल पत्तो खायब छोड़ि देलीह, तहिये पार्वतीक नाम ‘अपर्णा’ भ’ गेलनि।
१७. तप सँ उमाक शरीर क्षीण देखिकय आकाश सँ गंभीर ब्रह्मवाणी भेल – हे पर्वतराजक कुमारी! सुनू, अहाँक मनोरथ सफल भेल। अहाँ आब सम्पूर्ण असह्य क्लेश (कठिन तपस्या) केँ छोड़ि दिअ। आब अहाँ केँ शिवजी भेटताह। हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत भेलथि लेकिन एतेक कठोर तपस्या कियो नहि कयलनि। आब अहाँ एहि श्रेष्ठ ब्रह्माक वाणी केँ सदा सत्य और निरंतर पवित्र जानिकय अपन हृदय मे धारण करू। जखन अहाँक पिताजी बजबय आबथि तखन सारा हठ छोड़िकय घर चलि जायब आर जखन अहाँ केँ सप्तर्षि भेटथि तखन एहि वाणी केँ ठीक बुझि जायब।
१८. एहि तरहें आकाश सँ कहल गेल ब्रह्माक वाणी केँ सुनिते देरी पार्वतीजी प्रसन्न भ’ गेलीह और हर्षक मारे हुनकर शरीर पुलकित भ’ गेलनि।
१९. याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी सँ कहलथि – हम अहाँ केँ पार्वतीक सुन्दर चरित्र सुनेलहुँ, आब शिवजीक सुहाओन चरित्र सुनू। जहिया सँ सती अपन शरीर त्यागि देलथि तहिये सँ शिवजीक मन मे वैराग्य भ’ गेलनि। ओ सदा श्री रघुनाथजीक नाम जपय लगलाह आर जतय-ततय श्री रामचन्द्रजीक गुण सभक कथा सुनबय लगलाह। चिदानन्द, सुख के धाम, मोह, मद और काम सँ रहित शिवजी सम्पूर्ण लोक केँ आनंद देनिहार भगवान श्री हरि (श्री रामचन्द्रजी) केँ हृदय मे धारण कय भगवानक ध्यान मे मस्त होइत पृथ्वी पर विचरन करय लगलाह। ओ कतहु मुनि लोकनि केँ ज्ञानक उपदेश करथि आर कतहु श्री रामचन्द्रजीक गुण सभक वर्णन करथि। यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम छथि, तैयो ओ भगवान अपन भक्त (सती) केर वियोगक दुःख सँ दुःखी छथि।
२०. एहि प्रकारे बहुतो समय बीति गेल। श्री रामचन्द्रजीक चरण मे नित नव प्रीति भ’ रहल अछि। शिवजीक कठोर नियम, अनन्य प्रेम और हुनकर हृदय मे भक्तिक अटल टेक केँ जखन श्री रामचन्द्रजी देखलनि तखन कृतज्ञ (उपकार मानयवला), कृपालु, रूप और शील केर भण्डार, महान् तेजपुंज भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट भेलथि। ओ बहुतो तरहें शिवजी केर सराहना कयलनि आर कहलनि जे अहाँ बिना एहेन कठिन व्रत दोसर के निबाहि सकैत अछि। श्री रामचन्द्रजी ने बहुतो प्रकार सँ शिवजी केँ बुझेलनि आर पार्वतीजीक जन्म हेबाक कथा सेहो सुनेलनि। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी विस्तारपूर्वक पार्वतीजी केर अत्यन्त पवित्र तपस्याक वर्णन कयलथि।