रामचरितमानस मोतीः ब्राह्मण एवं संत केर वन्दना

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

तुलसीकृत् रामचरितमानस केर स्वाध्याय सँ प्राप्त महत्वपूर्ण शिक्षा केँ साररूप मे मैथिली भाषा मे राखि रहल छी। क्रमवद्ध ढंग सँ अलग-अलग शीर्षक अन्तर्गत एकरा सुविधा लेल राखि रहल छी। बाद मे समग्र रूप केर एक पुस्तक केर रूप मे प्रकाशित करबाक नियार अछि। बाकी कोनो बात केवल आ केवल श्री सीताराम केर कृपा मात्र सँ संभव होयत।

२. ब्राह्मण तथा संत केर वंदना

 
महाकवि तुलसीदास जी देवता तथा गुरुजन केँ प्रणाम करैत ‘ब्राह्मण’ केँ पृथ्वीक देवता कहिकय चरण-वन्दना कयलनि अछि। ब्राह्मणक परिभाषा मे ओ स्पष्ट कहलनि अछि, “जे अज्ञान सँ उत्पन्न सब संदेह केँ हरयवला छथि ओहि पृथ्वीक देवता केर चरणक वन्दना करैत छी। फेर सब गुणक खान संत समाज केँ प्रेम सहित सुंदर वाणी सँ प्रणाम करैत छी।” आर पुनः तुलसीदासजी द्वारा संत लोकनिक महिमामंडन करैत अत्यन्त लोकोपयोगी ज्ञान एहि तरहें देलनि अछिः
 
१. संत लोकनिक चरित्र कपास केर चरित्र (जीवन) समान शुभ अछि, जेकर फल नीरस, विशद और गुणमय होइत अछि। जहिना कपासक डोड़ी नीरस होइत अछि, संत चरित्र मे सेहो विषयासक्ति नहि होइछ। ताहि लेल ओ नीरस छथि, कपास उज्ज्वल होइत छैक, संतक हृदय सेहो अज्ञान आ पापरूपी अन्धकार सँ रहित होइत अछि, एहि लेल ओ विशद अछि और कपास मे गुण (तंतु) होइत छैक, तहिना संत केर चरित्र सेहो सद्गुणक भंडार होइत छैक, ताहि लेल ओ गुणमय छथि। जहिना कपासक ताग (धागा) सुई केर कयल गेल छिद्र केँ अपन शरीर दय कय झाँपि दैत छैक, अथवा कपास जेना लोढ़ल गेनाय, काटल जेनाय और बुनल जेबाक कष्ट सहियोकय वस्त्र केर रूप मे परिणत भ’ कय दोसरक गोपनीय स्थान केँ झाँपैत अछि, तहिना संत स्वयं दुःख सहिकय दोसरक छिद्रों (दोष) केँ झाँपैत छथि, जाहि कारण ओ जगत मे वंदनीय यश प्राप्त करैत छथि।
 
३. संतक समाज आनंद और कल्याणमय होइछ जे एहि जग मे चलैत-फिरैत तीर्थराज प्रयाग थिक। ओहि प्रयाग मे राम भक्ति रूपी गंगाजी केर धारा बहैत अछि और ब्रह्मविचार केर प्रचार सरस्वतीजी थिकीह। विधि और निषेध (ई करू और ई नहि करू) रूपी कर्म केर कथा कलियुग केर पाप सब हरयवाली सूर्यतनया यमुनाजी थिकीह और भगवान विष्णु तथा शंकरजीक कथा सब त्रिवेणी रूप सँ सुशोभित अछि, जे सुनैत देरी समस्त आनंद ओ कल्याण दयवला बनैछ। एहि संत समाज रूपी प्रयाग मे अपन धर्म मे जे सब अटल विश्वास रखैत अछि से सब अक्षयवट (गाछ) थिक आर शुभ कर्म ओहि तीर्थराज केर समाज (परिकर) थिक। ओ संत समाज रूपी प्रयागराज सब देश मे, सब समय मे, सब केँ सहजहि प्राप्त भ’ सकैत अछि और आदरपूर्वक सेवन कयला सँ क्लेश सभक शीघ्र नाश भेल करैत अछि। से तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय अछि एवं तत्काल फल दयवला अछि, एकर प्रभाव प्रत्यक्ष अछि। जे मनुष्य एहि संत समाज रूपी तीर्थराज केर प्रभाव प्रसन्न मन सँ सुनैत आ बुझैत छथि आर फेर अत्यन्त प्रेमपूर्वक एहि मे रमैत छथि, ओ एहि शरीर केँ रहिते धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारू फल पाबि जाइत अछि।
 
४. एहि तीर्थराज मे स्नानक फल तत्काल एहेन देखबा मे अबैत अछि जे कौआ कोयली बनि जाइछ आ बगुला बनैछ हंस। ई सुनिकय कियो आश्चर्य नहि करब, कारण सत्संगक महिमा किनको सँ नुकायल नहि अछि। वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी अपन-अपन मुख सँ अपन जीवनक वृत्तांत कहने छथि।
 
५. जल में रहयवला, जमीन पर चलयवला और आकाश मे विचरन करयवला नाना प्रकारक जड़-चेतन जतेक जीव एहि जगत मे अछि ताहि मे सँ जे जाहि समय जतय कतहुओ जाहि कोनो यत्न सँ बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई प्राप्त कयलक से सब सत्संगहि केर प्रभाव बुझबाक चाही। वेद मे और लोक मे एहि ऐश्वर्य सभक प्राप्तिक दोसर कोनो उपाय नहि छैक।
 
६. ई महावाक्य थिकैक –
 
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
 
सत्संग केर बिना विवेक नहि भेटैत छैक आर श्रीरामजी केर कृपा बिना ई सत्संग सहजता सँ नहि भेटैत छैक। सत्संगति आनंद और कल्याण केर जैड़ होइछ। सत्संग केर सिद्धि (प्राप्ति) मात्र फल थिक बाकी सब साधन तऽ फूल मात्र थिक।
 
७. दुष्ट प्रकृतिक व्यक्ति सेहो सत्संगति पाबिकय सुधरि जाइत अछि जेना पारस केर स्पर्श सँ लोहा सोहाओन भऽ जाइत अछि, सुन्दर सोना बनि जाइत अछि, मुदा दैवयोग सँ यदि कखनहुँ सज्जन कुसंगति मे पड़ि जाइत छथि, तैयो ओ ओतय साँप केर मणिक समान अपनहि गुण टा केर अनुसरण करैत छथि। माने जेना साँपक संसर्ग पाबिकय सेहो मणि साँपक विष केँ ग्रहण नहि करैछ तथा अपन सहज गुण प्रकाश केँ नहि छोड़ैछ, तहिना साधु पुरुष दुष्टक संग मे रहिकय सेहो दोसर केँ प्रकाश टा दैत छैक, दुष्ट सभक हुनका लोकनि पर कोनो प्रभाव नहि पड़ैत छैक।
 
८. तुलसीदासजी संत महिमाक वर्णन उपरोक्त किछु विन्दु सँ करैत पुनः कहलनि अछि जे ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डित केर वाणी सेहो संत महिमाक वर्णन करय मे सकुचाइत छथि, से हमरा सँ भला कोन तरहें पूरा कहल जायत, ओहिना जेना साग-तरकारी बेचनिहार सँ मणि केर गुण समूह नहि कहल जा सकैत अछि।
 
९. संत प्रणम्य छथि। कारण हुनकर चित्त मे समता छन्हि। हुनकर न कियो मित्र छन्हि आ न शत्रु!
 
१०. जेना अंजलि (हथेली) मे राखल गेल सुन्दर फूल (जेकर हाथ फूल केँ तोड़लक आर जे ओकरा अपन हाथ मे रखलक, दुनू हाथ केँ समान रूप सँ सुगंधित करैत अछि, तहिना संत लोकनि शत्रु और मित्र दुनू केँ समान रूप सँ कल्याण करैत छथि।
 
११. संत सरल हृदय और जगत केर हितकारी होइत छथि। हुनक एहेन स्वभाव और स्नेह केँ जानिकय विनय करैत छी, आर हमर ई बाल-विनय केँ सुनिकय कृपा करैत श्रीरामजीक चरण मे हमरा प्रीति देथि।
 
हरिः हरः!!