मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद
समुद्र केर एहि पार आयब, सभक लौटब, मधुवन प्रवेश, सुग्रीव मिलन, श्री राम-हनुमान् संवाद
चौपाई :
चलैत महाध्वनि गर्जेथि भारी। गर्भ खसय सुनि निशिचर नारी॥
नाँघि सिंधु एहि पार मे एला। शब्द किलिकिला कपि केँ सुनेला॥१॥
नाँघि सिंधु एहि पार मे एला। शब्द किलिकिला कपि केँ सुनेला॥१॥
भावार्थ:- चलैत काल ओ महाध्वनि सँ भारी गर्जना कयलनि, जे सुनिकय राक्षस सभक स्त्रि लोकनिक गर्भ खसय लागल। समुद्र नाँघिकय ओ एहि पार एला और ओ वानर सब केँ किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनेलनि॥१॥
हर्खित सब कियो देखि हनुमान। नूतन जन्म कपि अप्पन जान॥
मुख प्रसन्न तन तेज विराजे। कयलनि रामचंद्र कर काजे॥२॥
मुख प्रसन्न तन तेज विराजे। कयलनि रामचंद्र कर काजे॥२॥
भावार्थ:- हनुमान्जी केँ देखिकय सब हर्षित भऽ गेल और तखन बानर सभ अपन नया जन्म बुझलक। हनुमान्जी केर मुख प्रसन्न छन्हि आर शरीर मे तेज विराजमान छन्हि, (जाहि सँ ओ सब बुझि लेला जे) ई श्री रामचंद्रजी केर कार्य कय एला अछि॥२॥
मिलय सब भय खूब खुशी जे। तड़पैत माछ मानू पानि पाबि के।
चलय हरखि रघुनायक पास। पूछैत कहैत नव इतिहास॥३॥
चलय हरखि रघुनायक पास। पूछैत कहैत नव इतिहास॥३॥
भावार्थ:- सब हनुमान्जी सँ मिलि बहुत खुशी भऽ रहल छथि, जेना तड़पैत माछ केँ जल भेट गेल हो। सब हर्षित होइत नव-नव इतिहास (कथा वृत्तान्त पूछैत-कहैत श्री रघुनाथजीक पास चलला॥३॥
फेर मधुबन भीतर सब एला। अंगद संमत मधु फल खेला॥
रखबाला जे बरजय लागल। मुष्टि प्रहार भाँजि सब भागल॥४॥
रखबाला जे बरजय लागल। मुष्टि प्रहार भाँजि सब भागल॥४॥
भावार्थ:- फेर सब कियो मधुवन केर भीतर एला आर अंगद केर सम्मति सँ सब कियो मधुर फल (या मधु और फल) खेला। जखन रखवाला रोकय लगलनि, तखन मुक्का खाइते ओ सब भागल॥४॥
दोहा :
गेल बाजिते से सब वन उजाड़ल युवराज।
सुनि सुग्रीव हरखे कपि कय आयल प्रभु काज॥२८॥
सुनि सुग्रीव हरखे कपि कय आयल प्रभु काज॥२८॥
भावार्थ:- ओ सब हल्ला करिते गेल जे युवराज अंगद वन उजाड़ि रहल छथि। ई सुनिकय सुग्रीव हर्षित भेलाह जे निश्चित वानर सब प्रभु केर काज कय आयल अछि॥२८॥
चौपाई :
यदि न होइत सीता सुधि जनने। मधुवन फल न खइतय एहने॥
यैह सब बात विचारथि राजा। आबि गेला कपि सहित समाजा॥१॥
भावार्थ:- यदि सीताजी केर खबरि नहि बुझने रहितय त कि ओ मधुवन केर फल एना खा सकितय? ई सब बात राजा सुग्रीव मन मे विचारिते छलाह कि समाज सहित वानर आबि गेलाह॥१॥
आबि सब कियो माथ झुकेला। प्रेम मे भरि कपि सब कियो मिलला॥
पूछल कुशल कुशल पद देखी। राम कृपा भेल काज विशेषी॥२॥
भावार्थ:- (सब कियो आबिकय सुग्रीव केर चरण मे माथ झुकौलनि (प्रणाम कयलनि)। कपिराज सुग्रीव सब सँ बड़ा प्रेम केर संग मिलला। ओ कुशल पुछलनि, (तखन वानर सब उत्तर देलखिन-) अहाँक चरणक दर्शन सँ सब कुशल अछि। श्री रामजी केर कृपा सँ विशेष कार्य भेल (कार्य मे विशेष सफलता भेटल अछि)॥२॥
नाथ काज कयला हनुमान। राखल सकल कपिन्ह के प्राण॥
सुनि सुग्रीव फेरो जे मिलला। कपि समेत रघुपति लग चलला॥३॥
सुनि सुग्रीव फेरो जे मिलला। कपि समेत रघुपति लग चलला॥३॥
भावार्थ:- हे नाथ! हनुमान सब कार्य कयलनि आर सब वानर सभक प्राण बचा लेलनि। ई सुनिकय सुग्रीवजी हनुमान्जी सँ फेरो गला मिलला आर सब वानर समेत श्री रघुनाथजी लग चलला॥३॥
राम कपि सब अबैत देखला। कयलक काज सोचि हर्षित भेला॥
फटिक शिला बैसल दुनू भाइ। पड़े सकल कपि चरणन जाय॥४॥
फटिक शिला बैसल दुनू भाइ। पड़े सकल कपि चरणन जाय॥४॥
भावार्थ:- श्री रामजी जखन वानर सभ केँ कार्य कय केँ अबैत देखला तखन हुनका काज कयलक सोचि काफी खुशी भेटलनि। दुनू भाइ स्फटिक शिला पर बैसल छलाह, सब वानर लोकनि जाय केँ हुनकर चरण पर खसला॥४॥
दोहा :
प्रीति सहित सब भेटला रघुपति करुणा पुंज॥
पूछल कुशल नाथ तखन कुशल देखि पद कंज॥२९॥
पूछल कुशल नाथ तखन कुशल देखि पद कंज॥२९॥
भावार्थ:- दयाक राशि श्री रघुनाथजी सभक संग प्रेम सहित गला लागिकय मिलला और कुशल पुछलनि। (वानर लोकनि बजलाह -) हे नाथ! अहाँक चरण कमल केर दर्शन पेला सँ आब कुशल अछि॥२९॥
चौपाई :
जामवंत कहे सुनु रघुराया। जाहि पर नाथ करी अहाँ दाया॥
ताहि सदा शुभ कुशल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ओकरा पर॥१॥
ताहि सदा शुभ कुशल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ओकरा पर॥१॥
भावार्थ:- जाम्बवान् कहलखिन – हे रघुनाथजी! सुनू। हे नाथ! जेकरा पर अहाँ दया करैत छी, ओकरा सदिखन कल्याण और निरंतर कुशल छैक। देवता, मनुष्य और मुनि सेहो ओकरा पर प्रसन्न रहैत छथि॥१॥
वैह विजयी विनयी गुण सागर। ओकर सुयश तिनू लोक उजागर॥
प्रभु केर कृपा भेल सब काजु। जन्म हमार सुफल भेल आजु॥२॥
भावार्थ:- वैह विजयी अछि, वैह विनयी अछि और वैह सब गुणक समुद्र बनि जाइत अछि। ओकरे सुंदर यश तीनू लोक मे प्रकाशित होइत छैक। प्रभु केर कृपा सँ सब कार्य भेल। आइ हमर जन्म सफल भऽ गेल॥२॥
नाथ पवनसुत कयल जे काज। सहसों मुख नहिं जाइ से बाज॥
पवनतनय केर चरित सुहाय। जामवंत रघुपति केँ सुनाय॥3॥
पवनतनय केर चरित सुहाय। जामवंत रघुपति केँ सुनाय॥3॥
भावार्थ:- हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् जे काज कयलनि, से हजारों मुख सँ पर्यन्त वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। तखन जाम्बवान् जी हनुमान्जीक सुन्दर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथ जी सँ सुनेलनि॥३॥
सुनथि कृपानिधि मन अति लागल। हरखि फेर हनु हृदय लगायल॥
कहू तात कोना छथि जानकी। रहथि करथि रच्छा स्वप्रान की॥४॥
कहू तात कोना छथि जानकी। रहथि करथि रच्छा स्वप्रान की॥४॥
भावार्थ:- (ओ चरित्र) सुनला पर कृपानिधि श्री रामचंदजी केर मन केँ बहुते नीक लगलनि। ओ हर्षित भऽ कय हनुमान्जी केँ फेरो हृदय सँ लगा लेलनि आर कहला – हे तात! कहू, सीता केना रहैत छथि आर अपन प्राणक रक्षा कोना करैत छथि?॥४॥
दोहा :
नामक पहरा दिन-राति ध्यान अहींके कपाट।
नयन स्वयंपद थिरकय प्राण जाय कुन बाट॥३०॥
भावार्थ:- (हनुमान्जी कहलखिन -) अहाँक नाम राति-दिन पहरा दयवला अछि, अहाँक ध्यानहि केर केवाड़ अछि। नेत्र केँ अपनहि चरण मे लगौने रहैत छथि, फेर प्राण जाय त कोन बाट सँ?॥३०॥
चौपाई :
चलैतकाल चूड़ामणि देलनि। रघुपति तेकरा हृदय लगेलनि॥
नाथ युगल लोचन भरि नोर। बात कहलि मोरा जानकी थोड़॥१॥
नाथ युगल लोचन भरि नोर। बात कहलि मोरा जानकी थोड़॥१॥
भावार्थ:- चलैत समय ओ हमरा चूड़ामणि (उतारिकय) देली। श्री रघुनाथजी ओ (चूड़ामणि) लय केँ हृदय सँ लगा लेलनि। (हनुमान्जी फेर कहलखिन -) हे नाथ! दुनू आँखि मे नोर भरिकय जानकीजी हमरा सँ किछु बात कहली -॥१॥
अनुज समेत गहब प्रभु चरणा। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम वचन चरण अनुरागी। कुन अपराध नाथ मोरे त्यागी॥२॥
मन क्रम वचन चरण अनुरागी। कुन अपराध नाथ मोरे त्यागी॥२॥
भावार्थ:- छोट भाइ समेत प्रभु केर चरण पकड़ब (आर कहब जे) अहाँ दीनबंधु छी, शरणागत केर दुःख केँ हरयवला छी आर हम मन, वचन और कर्म सँ अहाँक चरणक अनुरागिणी छी। फेर स्वामी (अहाँ) हमरा कोन अपराध सँ त्यागि देलहुँ?॥२॥
अवगुण एक मोर हम मानल। प्राण छुटल नहि साथिये छूटल॥
नाथ से नयनन्हि केर अपराधा। निकलत प्राण करय हठ बाधा॥३॥
नाथ से नयनन्हि केर अपराधा। निकलत प्राण करय हठ बाधा॥३॥
भावार्थ:- (हाँ) एकटा दोष हम अपन (अवश्य) मानैत छी जे अहाँक वियोग होइते हमर प्राण नहि गेल, मुदा हे नाथ! ई त नेत्रक अपराध छी जे प्राण केँ निकलय मे हठपूर्वक बाधा दैत अछि॥३॥
विरह अगिन तन तूर समीर। साँस जरय क्षणहि मे शरीर॥
नयन स्राव जल निज हित लागी। जरय न पाबय देह बिरहागी॥४॥
नयन स्राव जल निज हित लागी। जरय न पाबय देह बिरहागी॥४॥
भावार्थ:- विरह अग्नि थिक, शरीर रूई थिक आर श्वास पवन थिक, एहि तरहें (अग्नि और पवन केर संयोग भेला सँ) ई शरीर क्षणमात्र मे जरि सकैत अछि, मुदा नेत्र अपना हितक लेल प्रभु केर स्वरूप देखिकय (सुखी होयबाक लेल) जल (नोर) बरसाबैत अछि, जाहि सँ विरह केर आगि सँ सेहो देह जरि नहि पबैत अछि॥४॥
सीता के अति विपत्ति विशाला। बिनु कहले भला दीनदयाला॥५॥
भावार्थ:- सीताजीक विपत्ति बहुत भारी अछि। हे दीनदयालु! ओ बिना कहने ठीक अछि (कहला सँ अहाँ केँ बहुत क्लेश होयत)॥५॥
दोहा :
निमिष निमिष करुणानिधि जाय कल्प सम बीति।
वेगि चली प्रभु आनय ल भुज बल खलु दल जीति॥३१॥
वेगि चली प्रभु आनय ल भुज बल खलु दल जीति॥३१॥
भावार्थ:- हे करुणानिधान! हुनकर एक-एक पल कल्प केर समान बीति रहल छन्हि। अतः हे प्रभु! तुरंत चलू और अपन भुजाक बल सँ दुष्टक दल केँ जीतिकय सीताजी केँ लऽ आउ॥३१॥
चौपाई :
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अंगना। भरि आयल जल राजिव नयना॥
वचन काया मन मोर गति जेकरा। सपनेहु बूझु विपत्ति कि तेकरा॥१॥
वचन काया मन मोर गति जेकरा। सपनेहु बूझु विपत्ति कि तेकरा॥१॥
भावार्थ:- सीताजी केर दुःख सुनिकय सुखक धाम प्रभु केर कमल नेत्र मे जल भरि अयलनि (और ओ बजलाह -) मन, वचन और शरीर सँ जेकरा हमरे गति (हमरहि आश्रय) छैक, ओकरा कि सपनो मे विपत्ति आबि सकैत छैक?॥१॥
कहे हनुमंत विपत्ति प्रभु ओतय। अहाँक सुमिरन भजन नहि जतय॥
कतेक बात प्रभु राक्षस सब की। शत्रु जीति आनब जे जानकी॥२॥
कतेक बात प्रभु राक्षस सब की। शत्रु जीति आनब जे जानकी॥२॥
भावार्थ:- हनुमान्जी कहलखिन – हे प्रभु! विपत्ति तऽ ओतय (तखने) अछि जखन अहाँक भजन-सुमिरन नहि होयत। हे प्रभो! राक्षस सभक बाते कतेक अछि? अहाँ शत्रु केँ जीतिकय जानकीजी केँ लय आयब॥२॥
सुनु कपि तोरे समान उपकारी। नहिं कियो सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करू कि तोरा। सनमुख होय न सकय मन मोरा॥३॥
प्रति उपकार करू कि तोरा। सनमुख होय न सकय मन मोरा॥३॥
भावार्थ:- (भगवान् कहय लगलाह -) हे हनुमान्! सुने, तोहर समान हमर उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोनो शरीरधारी नहि अछि। हम तोहर प्रत्युपकार (बदला मे उपकार) त कि करू, हमर मन सेहो तोहर सामने नहि भऽ सकैत अछि॥३॥
सुनु सुत तोर उऋण हम नाहि। देखल कय विचार मन माहि॥
पुनि पुनि कपि चितवथि सुरत्राता। नयन नीर पुलकित भय गाता॥४॥
पुनि पुनि कपि चितवथि सुरत्राता। नयन नीर पुलकित भय गाता॥४॥
भावार्थ:- हे पुत्र! सुनह, हम मन मे (खूब) विचारिकय देख लेलहुँ जे हम तोरा सँ उऋण नहि भऽ सकैत छी। देवताक रक्षक प्रभु बेर-बेर हनुमान्जी दिश ताकि रहला अछि। आँखि सँ प्रेमाश्रुक जल भरल छन्हि आर शरीर अत्यन्त पुलकित छन्हि॥४॥
दोहा :
सुनि प्रभु वचन अवलोकि मुख गात हरख हनुमंत।
चरण पड़ेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥३२॥
चरण पड़ेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥३२॥
भावार्थ:- प्रभु केर वचन सुनिकय आर हुनकर (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंग केँ देखिकय हनुमान्जी हर्षित भऽ गेलाह आर प्रेम मे विकल भऽ कय ‘हे भगवन्! हमर रक्षा करू, रक्षा करू’ कहैत श्री रामजी केर चरण पर खसि पड़लाह॥३२॥
चौपाई :
बेर बेर प्रभु चाहि उठाबथि। प्रेम मगन ओ उठय न भावथि॥
प्रभु कर पंकज कपि केर सीशा। सुमिरि से दशा मगन गौरीशा॥१॥
प्रभु कर पंकज कपि केर सीशा। सुमिरि से दशा मगन गौरीशा॥१॥
भावार्थ:- प्रभु हुनका बेर-बेर उठाबय चाहथि, लेकिन प्रेम मे डूबल हनुमान्जी केँ चरण सँ उठेनाय नहि भाबैत छलन्हि। प्रभु केर करकमल हनुमान्जीक माथ पर छन्हि, एहि स्थिति केँ स्मरण कय केँ शिवजी प्रेममग्न भऽ गेलाह॥१॥
सावधान मन कय पुनि शंकर। लगला कहय कथा अति सुंदर॥
कपि उठाय प्रभु हृदय लगौलनि। कर गहि परम निकट बैसौलनि॥२॥
कपि उठाय प्रभु हृदय लगौलनि। कर गहि परम निकट बैसौलनि॥२॥
भावार्थ:- फेर मन केँ सावधान कयकेँ शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहय लगलाह – हनुमान्जी केँ उठाकय प्रभु हृदय सँ लगौलनि आर हाथ पकड़िकय एकदम नजदिक बैसौलनि॥२॥
कहु कपि रावण पालित लंका। कुन विधि दाहल दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जानल हनुमान। बाजल वचन विगत अभिमान॥३॥
प्रभु प्रसन्न जानल हनुमान। बाजल वचन विगत अभिमान॥३॥
भावार्थ:- हे हनुमान्! बताउ त, रावण केर द्वारा सुरक्षित लंका और ओकर बड़ा बाँका किला केँ अहाँ कोन तरहे जरेलहुँ? हनुमान्जी प्रभु केँ प्रसन्न जनला और ओ अभिमानरहित वचन बजलाह – ॥३॥
शाखामृग केर बड़ मनुसाय। शाखा सँ शाखा पर जाय॥
नाँघि सिंधु हाटकपुर जारल। निशिचर गण बधि विपिन उजारल॥४॥
नाँघि सिंधु हाटकपुर जारल। निशिचर गण बधि विपिन उजारल॥४॥
भावार्थ:- बंदर केर बस यैह बड़का पुरुषार्थ छैक जे ओ एक डार्हि सँ दोसर डार्हि पर चलि जाइत अछि। हम जे समुद्र लाँघिकय सोनाक नगर जरेलहुँ आर राक्षसगण केँ मारिकय अशोक वन केँ उजाड़लहुँ, ॥४॥
से सब अहीं के प्रताप रघुराइ। नाथ नहि किछु मोर प्रभुताइ॥५॥
भावार्थ:- से सब त हे श्री रघुनाथजी! अहींक प्रताप थिक। हे नाथ! एहि मे हमर कोनो प्रभुता (बड़ाई) नहि अछि॥५॥
दोहा :
ओकरा ल नहि अगम किछु अपने जै’पर अनुकूल।
अहींक प्रभाव बड़वानलहु जारि सकय अछि तूर॥३३॥
अहींक प्रभाव बड़वानलहु जारि सकय अछि तूर॥३३॥
भावार्थ:- हे प्रभु! जेकर पर अहाँ प्रसन्न रहब, ओकरा लेल किछुओ कठिन नहि छैक। अहाँक प्रभाव सँ रूइया (जे स्वयं बहुत जल्दी जरि जाइवाली वस्तु थिक) बड़वानल (जंगलक आगि) केँ निश्चय टा जरा सकैत अछि (अर्थात् असंभव सेहो संभव भऽ सकैत अछि)॥३॥
चौपाई :
नाथ भक्ति अति सुखदायनी। दिअ कृपा कय अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि वाणी। एवमस्तु तखन कहला भवानी॥१॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि वाणी। एवमस्तु तखन कहला भवानी॥१॥
भावार्थ:- हे नाथ! हमरा अत्यंत सुख दयवला अपन निश्चल भक्ति कृपा कय केँ दिअ। हनुमान्जीक अत्यंत सरल वाणी सुनिकय, हे भवानी! तखन प्रभु श्री रामचंद्रजी ‘एवमस्तु’ (अहिना हो) कहलनि॥१॥
उमा राम स्वभाव जेकरा बुझल। तेकरा भजन छोड़ि आन नै सुझल॥
यैह संवाद जेकर हिय आबय। रघुपति चरण भगति से पाबय॥२॥
यैह संवाद जेकर हिय आबय। रघुपति चरण भगति से पाबय॥२॥
भावार्थ:- हे उमा! जेकरा श्री रामजीक स्वभाव बुझल छैक, ओकरा भजन छोड़िकय दोसर कोनो बात नहि सोहाइत छैक। यैह स्वामी-सेवक केर संवाद जेकर हृदय मे आबि गेल, वैह श्री रघुनाथजी केर चरणक भक्ति पाबि गेल॥२॥
सुनि प्रभु वचन कहथि कपि बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
पुनि रघुपति कपिपतिहि हकारि। कहल चलय के करू तैयारि॥३॥
पुनि रघुपति कपिपतिहि हकारि। कहल चलय के करू तैयारि॥३॥
भावार्थ:-प्रभु केर वचन सुनिकय वानरगण कहय लगलाह – कृपालु आनंदकंद श्री रामजीक जय हो, जय हो, जय हो! तखन श्री रघुनाथजी द्वारा कपिराज सुग्रीव केँ बजेलनि आर कहलनि – चलबाक तैयारी करू॥३॥
आब विलम्ब कुन कारण करब। तुरत कपि केँ आज्ञा दिअब॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरसय। नभ सँ भवन चलल सुर हरषल॥४॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरसय। नभ सँ भवन चलल सुर हरषल॥४॥
भावार्थ:- आब विलंब कोन कारण कयल जाय। वानर केँ तुरंत आज्ञा दिऔक। (भगवान् केर) ई लीला (रावणवध केर तैयारी) देखिकय, बहुत रास फूल बरसाकय और हर्षित भऽ कय देवता आकाश सँ अपन-अपन लोक लेल चललाह॥४॥