जीवन लेल ५ गो महत्वपूर्ण निर्देशन श्रीमद्भागवद्गीता सँ – सभक लेल पठनीय, मननीय ओ अनुकरणीय

श्रीमद्भागवद्गीताक ५ महत्वपूर्ण निर्देशन
 
मूल लेख – श्री अनिरुद्ध जोशी शतायू (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
 
आइ समाज मे मनमाना ज्योतिष और स्वयंभू बाबाक भरमार देखाइत अछि। सब कियो अलगे-अलगे सिद्धांत गढ़बाक दाबी ठोकैत अछि, अलग-अलग समाधानक उपाय बतबैत अछि आर एहि तरहें धर्म सँ जुड़ल तरह-तरह केर मनमानी बात सब करैत अछि। लोक राहु, केतु और शनि सँ डेराइत य, ओकरा कालसर्प दोष सतबैत रहैत छैक आर तमाम तरहक कथित बाबा लोकनिक चक्कर कटैत रहैत य। एहने भटकैत लोक सभक लेल हम पवित्र गीता सँ किछु श्लोक और ओकर सही अर्थ व व्याख्या केँ प्रस्तुत कय रहल छी। वैह व्यक्ति सही बाट पर अछि जेकर आँगूर मे ग्रह सभक लेल औंठी नहि छैक, जेकर गला मे कोनो तरहक ताबीज नहि छैक आर जे कोनो बाबा, दरगाह वा समाधिक शरण मे सेहो नहि अछि। एहेन योद्धा आ धर्मवीर लोकक लेल टा गीता छैक।
 
१. पहिल निर्देशन (हिदायत) –
 
गीताक सप्तम अध्याय ज्ञान-विज्ञान योग मे अन्य देवता लोकनिक उपासनाक सन्दर्भ मे कहल गेल छैक। एतय प्रस्तुत अछि ओहि सँ जुड़ल किछु श्लोक।
 
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥
 
भावार्थ :
माया द्वारा जेकर ज्ञान हरल जा चुकल अछि, एहेन आसुर-स्वभाव केँ धारण कएने, मनुष्यहु मे नीच, दूषित कर्म करनिहार मूढ़ लोक हमरा नहि भजैत अछि। (सातम अध्यायक १५म श्लोक)
 
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
 
भावार्थ :
मुदा ओहि अल्प बुद्धिवाला केँ ओ फल नाशवान छैक तथा ओ देवता लोकनि केँ पूजयवला देवता केँ प्राप्त होइत अछि, जखन कि हमर भक्त चाहे जहिना भजय, अन्त मे ओ हमरहि प्राप्त होइत अछि। (सातम अध्यायक २३म श्लोक)
 
व्याख्या :
एतय भगवान ओहि देवता लोकनिक प्रार्थनाक विरोध नहि जे सचमुच मे देवता छथि। कियैक तऽ हिन्दू देवी-देवता मे सब एक-दोसर सँ जुड़ल रहबाक कारण सर्वोच्च शिखर पर भगवान् नारायण ओ जगज्जननी जगदम्बाक संयुक्त सर्वोच्च निराकार वा साकार स्वरूप केँ मानल जाइछ। भगवान् कृष्ण केँ पूर्ण अवतार कहल गेलनि अछि। अर्जुन जखन शरणागत शिष्य बनिकय हुनका सँ मार्गदर्शन हेतु कहलनि अछि तखन भगवान हुनका ई सब बात बुझा रहला अछि।
 
एतय भगवान स्पष्ट रूप सँ ओहि काल्पनिक देवी-देवताक पूजाक जिकिर कयलनि अछि जे विभिन्न स्रोत (गुरु आदि) द्वारा शरणागत शिष्य (अनुगामी) केँ उपदेश करैत पूजा आदि करबाक लेल निर्देश दैत छथि। किछु तँ अपन गुरुए केर पूजा आ भक्ति करैत छथि। बहुतो लोक कोनो समाधि, वृक्ष, गाय, दरगाह, बाबा आदि केर सेहो पूजा वा प्रार्थना करैत छथि। एहेन मूर्ख लोक केँ पूजा या प्रार्थनाक फल नाशवान होइछ। लेकिन जे ओहि एक परम तत्त्व केँ मानैत अछि आर हुनका कोनो रूप मे भजैत अछि, अंत मे ओ हुनकहि प्राप्त करैत अछि आर ओकर कर्म कहियो निष्फल नहि जाइत छैक।
 
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥
 
भावार्थ :
बुद्धिहीन पुरुष हमर अनुत्तम अविनाशी परम भाव केँ नहि जनैत मन-इन्द्रिय सँ एकदम दूर हम सच्चिदानन्दघन परमात्मा केँ मनुष्य जेकाँ जन्म लेनिहार आ व्यक्तिभाव केँ प्राप्त कयनिहार जेकाँ मानैत अछि। (सातम अध्यायक २४म श्लोक)
 
भगवान कृष्ण कहैत छथि जे ‘हमर भक्त’। ‘हमर भक्त’ केर अर्थ ई नहि जे ओ ई कहि रहला अछि कि हमरा भजू। ओ कहि रहला अछि जे ओहि एक कालरूपी परमेश्वर केँ भजू। असल मे, श्रीकृष्ण केर माध्यम सँ ओ परमेश्वर अपन वाणी केँ कहलनि अछि। गीताक संपूर्ण गहराई सँ अध्ययन कयला पर स्वतः ई बात ज्ञात होइत अछि।
 
२. दोसर निर्देशन (हिदायत) :
 
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥
 
भावार्थ :
ताहि लेल हे अर्जुन! नपुंसकता केँ जुनि प्राप्त होउ, अहाँ लेल ई बात उचित नहि अछि। हे परंतप! हृदय केर तुच्छ दुर्बलता केँ त्यागिकय युद्ध लेल तैयार भऽ जाउ। (दोसर अध्यायक ३रा श्लोक)
 
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
 
भावार्थ :
हे अर्जुन! अहाँ शोक नहि करय जोग मनुष्यक वास्ते शोक करैत छी आर तखन पण्डित सब जेकाँ वचन बजैत छी, मुदा जेकर प्राण चलि गेल हो, ओकरा लेल पण्डितजन शोक नहि करैत छथि। (दोसर अध्यायक ११म श्लोक)
 
व्याख्या :
 
द्वितीय अध्याय सांख्ययोग मे अर्जुन केर कायरताक विषय मे श्रीकृष्णार्जुन-संवाद अनुसार श्रीकृष्ण कहैत छथिन जे युद्ध नहि केनाय आर केकरो लेल शोक केनाय कायर लोकक काज थिक। भयभीत लोक हमेशा कोनो न कोनो लड़ाई सँ बचबाक प्रयास करैत रहैत अछि। आगू रहिकय लड़नाय उचित नहि लेकिन कियो लड़बाक लेल आतुर अछि तखन ओकरा सबक सिखइये कय दम धरबाक चाही। श्रीकृष्ण कहैत छथिन जे हृदय केर एहि तुच्छ दुर्बलता केँ त्यागिकय युद्ध लेल ठाढ भऽ जाउ, यैह क्षत्रिय लोकनिक धर्म थिक। क्षत्रिय केर मतलब कोनो समाज या जाति विशेष केर बात नहि, बल्कि एक वृत्ति केर नाम थिक।
 
३. तेसर निर्देशन (हिदायत) :
 
ई श्लोक ओहि लोकक लेल अछि जे स्वयं केँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र बुझैत अछि, लेकिन असल मे ओ अछि नहि। ओ सिर्फ अपन-अपन बौद्धिक इनार केर सीमा मे सीमित अछि जेकरा कुपमण्डुक सेहो कहि सकैत छी।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥
 
भावार्थ :
प्रकृति केर गुण सँ अत्यन्त मोहित भेल मनुष्य गुण मे आर कर्म मे आसक्त रहैत अछि, ओहि पूर्ण ढंग सँ नहि बुझनिहार मन्दबुद्धि अज्ञानी केँ पूर्ण रूप सँ जानयवला ज्ञानी लोक विचलित नहि करय। (तेसर अध्यायक २९म श्लोक)
 
व्याख्याः
 
जे लोक वर्ण व्यवस्था केँ मानिकय हिन्दू धर्म केँ विकृत कय रहल अछि ओकरा लेल गीता सँ एहेन कतेको श्लोक भेटि सकैत छैक जे वर्ण केर अर्थ रंग आर कर्म सँ जोड़ैत छैक।
 
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥
 
भावार्थ :
हे अर्जुन! एहि लोक मे भूत सभक सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय केवल दुइ तरहक अछि, एक तऽ दैविक प्रकृतिवला, दोसर आसुरिक प्रकृतिवला। ओहि मे सँ दैविक प्रकृतिवला तऽ विस्तारपूर्वक कहल गेल, आग अहाँ आसुरिक प्रकृतिवला समुदाय केर बारे मे सेहो विस्तार सँ सुनू। (१६म अध्यायक ६वाँ श्लोक)
 
आर, एकर बाद भगवान कृष्ण आसुरी वृत्तिवला मनुष्यक लक्षण सभक वर्णन कयलनि अछि, एहि सँ पूर्व दैवी गुण सँ सम्पन्न मनुष्यक सेहो विस्तार सँ चर्चा कएने छथि। एहि श्लोक सँ ई स्पष्ट होइत अछि जे मनुष्य केवल दुइ जातिक होइत अछि। शिक्षित, अशिक्षित!
 
४. चारिम निर्देशन (हिदायत) :
 
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
 
भावार्थ :
काम, क्रोध तथा लोभ – ई तीन प्रकार केर नरकक द्वार (सर्व अनर्थक मूल और नरक केर प्राप्ति मे हेतु होयबाक चलते एतय काम, क्रोध और लोभ केँ ‘नरक केर द्वार’ कहल गेल अछि) आत्मा केँ नाश करयवला अर्थात्‌ ओकरा अधोगति मे लऽ जायवला अछि। अतएव एहि तिनू केँ त्यागि देबाक चाही। (१६म अध्यायक २१म श्लोक)
 
व्याख्या :
काम अर्थात् कोनो तरहक अनावश्यक भोग केर इच्छा जाहि मे संभोग सेहो शामिल अछि। क्रोध यानी तामस, रोष, आवेश, तनाव, नाराजगी, द्वेष आदि प्रवृत्ति। लोभ अर्थात लालच, लालसा, तृष्णा आदि। बहुते ज्योतिष, संत, संगतिया या दोसर धर्म केर लोक द्वारा अन्य लोक केँ लालच मे फँसेबाक लेल प्रलोभन, गिफ्ट, इनाम आदि देल जाइत छैक। स्वर्ग, जन्नत केर सेहो लालच देल जाइत छैक। लालच मे फंँसिकय मनुख अपन कुल केर नाश कय लैत अछि। एकटा उदाहरण रावणक लेल जा सकैत अछि, पूर्व जन्म मे ओ बहुत पैघ प्रतापी राजा प्रतापभानु छलाह। एक कपटी गुरु ‘एकतनु’ केर चक्कर मे फँसिकय दुनियाक सर्वोच्च सत्तावान बनबाक लोभ मे ओ फँसि गेलाह तथा ब्राह्मणक शाप सँ राक्षस कुल मे रावण बनिकय जन्म लेलनि आर फेर हुनक दुर्गतिक खिस्सा सब केँ बुझल अछि।
 
५. पाँचम निर्देशन (हिदायत) :
 
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
 
भावार्थ :
नीक जेकाँ आचरण मे उतारल गेल दोसरक धर्म सँ बरु गुणरहित अपन धर्म अति उत्तम होइछ। अपन धर्म मे मरनाय सेहो कल्याणकारक होइछ और दोसराक धर्म भय (डर) दयवला होइत छैक। (तेसर अध्यायक ३५म श्लोक)
 
व्याख्या :
 
तृतीयोध्याय कर्मयोग मे श्री भगवान द्वारा गुण, स्वभाव ओ अपन धर्म केर चर्चा कयल गेल अछि। अहाँक जे गुण, स्वभाव और धर्म अछि ओहि मे जिनाय आ मरनाय श्रेष्ठ अछि, दोसर केँ धर्म मे मरनाय भयावह होइछ।
 
जे व्यक्ति अपन धर्म छोड़िकय दोसराक धर्म अपनबैत अछि, ओ अपन कुलधर्म केँ नाश कय लैत अछि। कुलधर्म केर नाश भेला सँ आबयवला पीढीक आध्यात्मिक पतन भऽ जाइत छैक। एहि सँ ओकर समाज केर सेहो पतन भऽ जाइत छैक। सामाजिक पतन सँ राष्ट्र केर पतन सेहो भऽ जाइत छैक। एना कयला टा सँ मात्र भयावह नहि बल्कि अहु लेल जे एहेन व्यक्ति और ओकर आबयवला पीढी केर मृत्युक बाद ता धरि सद्गति नहि भेटैछ जा धरि कि ओकर कुल केँ तारयवला कियो नहि आबय।
 
निष्कर्षः
 
उपरोक्त ५ निर्देशन सँ हमरा लोकनि निश्चित अपन जीवन लेल एकटा नीक मार्ग ओ अवधारणा चुनि सकैत छी। कोनो एहेन दम्भ आ झूठक ज्ञान मे नहि फँसब जे हमरा लोकनिक अधोगतिक कारण बनय।
 
हरिः हरः!!